स्वदेश कुमार सिन्हा
21 मई बुद्ध जयन्ती पर विशेष
‘ आधुनिकता मेेें तर्क बुद्धि और मनुष्य का अधिकार निहित होता हेै’
एक विचारक
आज भी भारतीय समाज अपने तमाम जीवन मूल्योें में आधुनिकता के बावजूद एक गैर आधाुनिक समाज ही माना जाता है। शिक्षित जन भी अतार्किक मूल्योें तथा मानसिक पिछड़ेपन के शिकार हैै। ऐसी स्थिति मेेें यह विश्वास करना कठिन होता है कि आज से करीब ढ़ाई हजार वर्ष पहले गौतम बुद्ध ने कहा था ‘ किसी चीज पर इस लिए विश्वास मत करो, कि तुम्हे वैसा बताया गया है या कि परम्परा से वैसा होता आया है अथवा स्वयं तुमने उसकी कल्पना की है। तुम्हारा शिक्षक तुम्हे बताये कि उस पर इसलिए विश्वास मत कर लो क्योकि तुम उसका सम्मान करते हो। किन्तु जिस चीज को तुम उचित परीक्षण और विश्लेषण के बाद सभी के लिए हितकर और कल्याणकारी पाओ उस सिद्धान्त पर विश्वास करो और उस पर दृढ़ रहो और उसे अपना मार्ग दर्शक बनाओ।’
करीब पाॅच हजार वर्ष प्राचीन भरतीय चिंतन परम्परा मेें एक ओर भौतिक व बुद्धिवादी दूसरी ओर अध्यात्मवाद की धारा मौजूद रही है। इन धाराओ मेेें आपस में कही समन्वय तो कही अंतर्विरोध भी दिखलाई पड़ता है। इन्ही दोनो के टकराव से भारतीय चिंतन परम्परा भी आगे बढ़ती दिखलाई पड़ती है। एक ओर कपिल कणाद चार्वाको तथा लोकायतोें की बुद्धिवादी , भौतिकवादी परम्परा थी दूसरी ओर वेदो और ब्राम्हण ग्रंथों मेें वर्णित अध्यात्मवाद की परम्परा थी जिसका प्रतिनिधित्व आदिशंकराचार्य ने किया। गौतम बुद्ध बुद्धवादी ,भौतिकवादी ,विचारधारा के महान दार्शनिक और चिंतक थे। उनका प्रभाव मानव जाति के चिंतन और जीवन पर गहरा पड़ा। विश्व चिंतन और संस्कृति की विरासत मेेें उनका महत्वपूर्ण स्थान है। क्योकि बौद्धिक प्रमाणिकता नैतिक उत्कृष्टता और अध्यात्मिक अन्र्तदृष्टि की कसौटी पर निःसन्देह वे इतिहास के महान व्यक्तित्व के रूप मेें उतरते हैै। बुद्ध के विचारो का प्राचीन तथा आधुनिक धर्माे पर गहरा असर पड़ा है। वे एक ऐसे पहले दार्शनिक थे जिन्होने जीव हत्या सहित हर तरह की हिंसा का विरोध किया। बाद मेें इसी अवधारणा को इसाई यहूदी तथा हिन्दू धर्म ने अपनाया।
बुद्ध के उपदेश तथा विचार बौद्ध साहित्य ’त्रिपिटक’ मेें संग्रहित है। अनेक बौद्ध विचारक नागार्जुन , अश्वघोष ,धर्मकीर्ती , शान्तिदेव , शान्ति रक्षित ने उनके विचारो के बारे में बहुत कुछ लिखा है तथा इनमें आपस मेें बहुत से वाद -विवाद तथा अन्र्तविरोध भी है। इसलिए उनके मूल विचारो को जानने मेें कठिनाई होती हेै। उनके निर्वाण के पश्चात अनेक राजाओ अशोक , अजातशत्रुं तथा कनिष्क ने इस धर्म को सारे देश के साथ-साथ करीब सारे दक्षिण पूर्व एशिया मेें फैला दिया। भारत में तो समय के साथ इसका प्रभाव कम होता गया, लेकिन लंका वर्मा ,थाईलैण्ड ,चीन ,जापान , कोरिया, मंगोलिया से लेकर , अफगानिस्तान ,इण्डोनेशिया तथा मध्य एशिया के रूसी गणराज्यो तक मेें बौद्ध धर्म के अवशेष आज भी प्राप्त होते हैै। यहाॅ यह धर्म अपने -अपने रूपो मेें आज भी मौजूद है। इन देशो के प्राचीन धर्मो के साथ मिलकर इसमेेे नया रूप ग्रहण कर लिया। जापान के जेन,ताओ,चीन के कन्फूशियस जैसे धर्मा के साथ इसका मिश्रण हो गया। बुद्ध के विर्वाण के कुछ समय बाद ही बौद्ध धर्म हीनयान , महायान, वज्रयान तीन धाराओ मेें बॅट गया। महायान शाखा बुद्ध की मूर्तिया बनाकर उनकी पूजा की जाने लगी। हीनयान में बुद्ध के अवशेषो पर स्तूप बनाकर उसका पूजन होने लगा। वज्रयान मेेें पुराने तिब्बत के प्राचीन तान्त्रिक धर्म से मिलकर लामावाद तथा अवतारवाद की अवधारणा विकसित हुयी। अनेक देवी देवताओ का पूजन होने लगा जिसके बुद्ध स्वयं घोर विरोधी थे। बुद्ध के मूल विचार बहुत सीधे-साधे थे। उन्होने चार आर्य सत्यो का प्रतिपादन किया-
1-संसार मेें दुःख है 2-दुखो का कारण है। 3- दुःखो का निवारण है। 4-दुःखो का निवारण भी इसी दुनियाॅ मेें है। बुद्ध ने वेदो में वर्णित यज्ञ बलि तथा धन सम्पदा की बर्बादी का प्रबल विरोध किया। वे मानते थे कि धन संचय तथा व्यक्तिगत सम्पत्ति मनुष्य के दुखो मूल कारण है। उन्होनेे अपने अनुयायियोें को अध्यात्मिक स्वतंत्रता से कभी वंचित नही किया। उन्हे प्रमाण स्वीकार करके भी सत्य की खोज त्याग नही देनी चाहिए। वे कहते हैैं’’ उन जैसे बनो जिनकी आत्मा प्रकाशित है, उन जेसे बनो जिनकी आत्मा आश्रय स्थल है ,सबसे बड़ी प्रमाणिकता अपने भीतर की आत्मा की आवाज है।’’ बुद्ध के उपदेशो मेें हठवादिता नही है। यह बात उस युग अथवा आज के युग मेें भी असाधारण है। उन्होने विवादो का गला घोटने से इन्कार कर दिया। वे असहिष्णुता को धर्म का सबसे बड़ा शत्रु मानते थे और अपने शिष्योे को सच्चे ज्ञान तथा सत्य की तलाश स्वयं करने की बात करते थेे। ‘आत्म दीपो भव’ की अवधारणा मेें यह बात स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। मृत्यु के कुछ समय पूर्व अपने प्रिय आनन्द से बुद्ध कहते हैैैें मैने सत्य का प्रचार गुप्त सत्य और प्रगट सत्य का भेद किये बिना किया है। क्योकि सत्य के संबंध मेें आनन्द तथा तथागत के पास ऐसा कुछ भी नही है जैसा कोई धर्मगुरू बन्द मुट्ठी मेें अपने आप तक सीमित रखे।
बुद्ध के प्रगतिशील विचारो मेेें कहीं कही अंतर्विरोध भी दिखलाई पड़ते हैैें। जैसे उन्होने कभी तत्कालीन गुलामी प्रथा का विरोध नही किया स्त्रियो तथा गुलामो को दीक्षा देने तथा भिक्षु बनाने से इन्कार किया। परन्तु उनका मूल्यांकन भी इस संबंध मेें देश काल तथा तत्कालीन परिस्थितियोें मेें करना चाहिए आज के सन्दर्भो मेेें नही।
आज असहिष्णुता ,हिंसा ,लोभ तथा धार्मिक कट्टरता से भरे सम्पूर्ण विश्व मेेें बुद्ध के विचारो मेें कितनी प्रासंगिकता है यह और बतलाने की आवश्यकता नही है।
(लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा से मोबाइल न॰ 9839223957 पर संपर्क किया जा सकता है)