गोरखपुर को विश्वविद्यालय शहर (University Town ) हुए पचास से ज्यादा बरिस हो गये लेकिन बौद्धिक जडता और रूढिवादिता जस की तस है।आज भी यह शहर वर्णबोध की गिरफ्त में जकडा हुआ है। कल्पना करें कि सौ साल पहले यह जकडन किस कदर मजबूत रही होगी। प्रेमचन्द की रचनात्मक उपस्थिति ने वर्णाग्रह से अभिभूत शहर की विश्वदृष्टि को चुपचाप झकझोर दिया था।
१९२० में स्वदेश में प्रकाशित मनुष्य का परम धर्म कहानी वर्णाग्रही मन का जैसा चित्र उपस्थित करती है वह काबिले गौर है।वर्णवादी अमानुषिकता प्रेमचन्द के मन में गहरे धंसी हुई थी।वे आजीवन वर्णाग्रह की तंगदिली से टकराते रहे और उससे आजिज लोगों के लिए एक नये आकाश और अवकाश का सृजन किया। वैसे ही जैसे गोरखपुर के सांस्कृतिक भूगोल के महान शिल्पियों -बुद्ध, गोरखनाथ और कबीर की उपस्थिति ने किया था। प्रेमचन्द की उपस्थिति ने गोरखपुर के सांस्कृतिक भूगोल को बदला और काफी हद तक रचा भी। उनकी उपस्थिति गोरखपुर के सांस्कृतिक भूगोल में एक उदार, समावेशी और लोकतांन्त्रिक स्पेस रचती है ।इसीलिए वे लोग तो प्रेमचन्द को याद रखते ही हैं जिन्हें ऐसे स्पेस की दरकार है, याद वे भी रखते हैं जिन्हें ऐसे लोकतान्त्रिक स्पेस के सृजन में अपनी दरकती हुई जमीन दिखायी देती है। अकारण नहीं है कि गोरखपुर विश्वविद्यालय का वर्चस्वशाली बौद्धिक मन प्रेमचन्द की उपस्थिति को लेकर निरन्तर असहज रहा है और है।
( सदानंद शाही बीएचयू में हिन्दी के प्रोफेसर हैं। उनका यह लेख आज ‘ हिंदुस्तान ‘ के गोरखपुर के संस्करण में प्रकाशित हुआ है )