मदन चमोली, पौढ़ी गढ़वाल
16 मई 2017 की रात पौढ़ी गढ़वाल (उत्तराखण्ड) में जन्में बुद्धिजीवी-चिन्तक, पत्रकार-सम्पादक, नाट्य कर्मी-संस्कृति कर्मी एंव साहित्य-राजनीति में प्रतिपक्ष की प्रबल आवाज राजेन्द्र धस्माना जी की जीवनयात्रा थम गई है। वह 81 वर्ष के थे।
यों तो धस्माना जी ने सरकारी सेवा में रहते हुए आकाशवाणी और दूरदर्शन में अपनी खास जगह व पहचान बनाई लेकिन उनकी मुख्य भूमिका चिन्तन-कर्म और सरोकार समाज की परिवर्तनकामी राजनीति की प्रतिज्ञाओं में निहित थे। वाम विचार और राजनीति में उनका अटूट विश्वास था। इसलिए एक बौद्धिक के रूप में धस्माना जी का वैचारिक हस्तक्षेप व्यापक लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए हो रहे संघर्षों को गति देने में निहित रहा। समर्पित रूप से, नाट्य कविता, गद्य लेख, सम्पादन, संभाषण, समीक्षा कर्म आदि सभी विधाओं में धस्माना जी ने मुखर मौलिक रचनाकार की पहचान बनाई और सराहे गए लेकिन नाटक और सम्पादन के क्षेत्र में वह अद्वितीय शख्सियत थे। सौ खंडो वाले गांधी वांगमय का सम्पादन उनकी असाधारण क्षमता से ही संभव हुआ था। इसके अतिरिक्त धस्माना जी ने उत्तराखंड से सम्बन्धित कई स्मारिकाओं-पुस्तकों का गहरी सन्नद्धता के साथ संपादन किया। गढ़वाली में लिखे उनके नाटकों ने इस विधा को समृद्ध किया ही, समाज को भी उद्वेलित किया। दिल्ली में रह रही उत्तराखंडी जनता को जितना सम्बोधित धस्माना जी ने किया उतना शायद किसी ने नहीं।
यह भी एक अहम तथ्य है कि राजेन्द्र धस्माना जी जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में से एक थे। पृथक उत्तराखंड राज्य के आन्दोलन में धस्माना जी ने सरकारी सेवा में होते हुए भी लोकतांत्रिक राजनीति की शक्तियों को मजबूत करने का साहस दिखाया था। इसलिए उनको जनता का अपार प्रेम-सम्मान मिला। सेवानिवृत्ति के बाद तो धस्माना जी ने अपने को अलग बन चुके राज्य उत्तराखण्ड के भीतर कांग्रेस-भाजपा की सत्ताओं के खिलाफ और संघर्षशील वाम जनवादी राजनीति के पक्ष में पूर्णतः झोंक दिया था।
ऐसी साहित्य-संस्कृति-सामाजिक और राजनैतिक प्रतिभा को नमन।