गोरखपुर, 18 जून। उर्दू और हिन्दी अदब में समान रूप से दखल रखने वाले कहानीकार बादशाह हुसैन रिजवी ने 80 वर्ष की उम्र में रविवार की सुबह इस फानी दुनिया को अलविदा कहा। वह अपने पीछे पांच पुत्र, एक पुत्री और नाती पोतों का भरापूरा कुनबा छोड़कर गये हैं। उनके निधन से साहित्यकारों में भारी शोक है। उनकी कमी शिद्दत से महसूस की जा रही है।
सामाजिक सरोकार व साहित्य से जुड़े भाई बादशाह हुसैन रिजवी जीवन भर अपने मित्रों के दुख से दुखी व उनके सुख में सुख की अनुभूति करते रहे। सबके मददगार साबित इस कहानीकार ने डुमरियागंज तहसील (जनपद सिद्धार्थनगर) के हल्लौर कस्बे से जीवन की प्रारंभिक रफतार शुरू की और रेलवे में काम करते हुए गोरखपुर को अपना कर्मभूमि बनाया। वर्ष 1995 में रेलवे से रिटायर होने के बाद वह जाफराबाजार क्षेत्र में अपना मकान बनाकर रहने लगे थे। एक साल से बीमार चल रहे बादशाह भाई ने गोरखपुर के अपने आवास पर ही अंतिम सांस ली। उनका अंतिम संस्कार उनके पैतृक गांव हल्लौर में किया गया।

बादशाह हुसैन रिजवी जनवादी लेखक संघ के गोरखपुर इकाई के अध्यक्ष थे.
की १०० कहानियां हिंदी और उर्दू की विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. उनका कहानी संग्रह ‘टूटता हुआ भय’, ‘पीड़ा गनेसिया की’, ‘चार मेहराबों वाली दालान’ और उपन्यास ‘मैं मोहाजिर नहीं हूँ’ पाठकों में लोकप्रिय हुए थे। बादशाह हुसैन रिज़वी की कहानियाँ नयी कहानी आंदोलन से प्रभावित हैं। ‘नई कहानियाँ’ पत्रिका में छपी उनकी कहानी ‘खोखली आवाजें’ काफी चर्चित हुई थी। वह इस समय एक और उपन्यास लिख रहे थे. बीमारी के कारण वह इसे पूरा नहीं कर पाए.

उनके निधन पर जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय संगठन सचिव मनोज कुमार सिंह, पत्रकार अशोक चौधरी, इप्टा के डा मुमताज खान, कवि देवेन्द्र आर्य, कहानीकार मदनमोहन, रवि राय, आलोचक कपिलदेव, प्रो अनिल राय, प्रो जर्नादन, प्रो केसी लाल, प्रो चित्तरंजन मिश्र, प्रो अनंत मिश्र, कवि सच्चिदानंद पांडेय, डा अजीज अहमद, डा कलीम कैसर, अलख कला मंच के बैजनाथ मिश्र, राजाराम चौधरी, स्वदेश सिन्हा, प्रेमचंद साहित्य संस्थान के डा राजेश मल्ल और साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं ने गहरा शोक व्यक्त किया है।
1 comment
Comments are closed.