स्मृति शेष : प्रो हरिशंकर श्रीवास्तव
प्रो चन्द्र भूषण अंकुर
प्रो हरिशंकर श्रीवास्तव से पहला परिचय 1981 में हुआ जब मैं गोरखपुर विश्वविद्यालय में बी ए का विद्यार्थी बना. इतिहास विभाग के यशस्वी विभागाध्यक्ष प्रो श्रीवास्तव का व्यक्तित्व ही पहली नजर में देखने वालों को विशिष्टता का अहसास करा देता था. सुनहरे फ्रेम का चश्मा, सलीके से प्रेस सूट, चमकते जूते। सप्ताह भर में उनके जूते अलग-अलग होते थे. क्लास के पहले विभागीय परिचर कई किताबें लेक्चर टेबल पर रख जाता था. मध्यकालीन इतिहास की कक्षाओं में उनके वक्तव्य से मध्यकाल मानो जीवंत हो जाता था. विद्यार्थी उनकी वक्तृता में खो जाते. बीए स्तर पर हम उनकी विद्वता से ज्यादा उनके व्यक्तित्व के कायल हो गए थे.
विभागीय शिक्षकों में तब प्रो लाल बहादुर वर्मा, प्रो अशोक कुमार श्रीवास्तव सीनियर , प्रो सुधीश धर द्विवेदी (अब स्व), प्रो पूनम पन्त, डॉ ब्रह्मानंद सरीखे लोग उनके विद्यार्थी रह चुके थे. आसपास के जिलों में इतिहास के अधिकतर शिक्षक भी उनके विद्यार्थी थे. इस अर्थ में उनका व्यक्तित्व स्वतः काफी बड़ा था. फिर अपने लेखन से राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने पहले ही ख्याति अर्जित कर ली थी. उनके कार्यकाल में भारत के अधिकतर बड़े इतिहासकार कभी न कभी गोरखपुर जरूर आए थे.
मैं उनके विद्यार्थियों की अंतिम पीढ़ी से हूँ क्योंकि जिस वर्ष मैंने एम् ए प्रथम वर्ष पास किया उसी वर्ष यानि 1984 में वह सेवानिवृत हो गए. यूं तो गुरुओं की महिमा से संबंधित बहुत से श्लोक, साहित्य हमारे यहाँ उपलब्ध है परंतु मैं यहाँ अपने स्वयं के अनुभव के आधार पर यह कहना चाहूंगा कि आज भी किसी विद्यार्थी के जीवन में शिक्षक का बहुत महत्व है.
विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रो श्रीवास्तव और प्रो लाल बहादुर वर्मा के रूप में दो ऐसे शिक्षक मिले जिनके सानिध्य में साहित्य का एक विद्यार्थी इतिहास का समर्पित विद्यार्थी बन गया. सबसे पहले प्रो श्रीवास्तव ने ही मेरे पिता से कहा कि मैं इसको अपने विभाग में नियुक्त करूँगा. हालाँकि उन्होंने मेरी नियुक्ति नहीं की परन्तु उनके इस कथन ने मुझमें यह विश्वास घनीभूत कर दिया कि मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक बनने के योग्य हूँ. इतिहास की जो भी समझ विकसित हुई वह ज्यादातर प्रो लाल बहादुर वर्मा के सानिध्य में हुई. प्रो श्रीवास्तव के उत्तराधिकारी विभागाध्यक्ष और शोध निर्देशक प्रो के पी मिश्र ने मुझे 1998 में नियुक्त किया.
1984 में अवकाश ग्रहण करने के बावजूद प्रो श्रीवास्तव जीवन पर्यंत अध्यनरत रहे. अच्छी बात यह थी कि इस उम्र में जब उनका शरीर कमजोर हो रहा था, वह मानसिक स्तर पर मृत्यु के तीन महीने पहले तक सचेत थे. जब भी मिलने जाओ सामान्य हालचाल के बाद वह पढाई-लिखाई की बात करने लगते. बातचीत में किसी नई किताब या पत्रिका का जिक्र आ गया तो उसे उपलब्ध करवाने को कहते. अगली मुलाकात में पता चल जाता कि उन्होंने उस नई पुस्तक या जर्नल को देख लिया है. अभी हाल में उनकी कहानियों, कविताओं का संग्रह आया था. यथा संभव वे अपने शिक्षक धर्म का निर्वाह अकादमिक गतिविधियों में शामिल होकर करते रहे. विद्वता से भी ज्यादा मनुष्यता उनके लिए महत्वपूर्ण थी . जब चलना-फिरना लगातार दूभर होता जा रहा था तब भी वे अपने प्रियजनों के सुख -दुख में कष्ट सहकर यथा संभव शामिल होते रहे.
पिछले एक डेढ़ माह में मृत्यु से संघर्ष करते हुए वह नितांत अकेले रहे। उनकी देखभाल करने वाले डॉ अशोक प्रसाद स्वयं अस्वस्थ होकर अस्पताल में भर्ती थे. सारी देखभाल उनके घरेलू सहायक शैलेंद्र कुमार और उनकी माता ने की. नियति ने उनके एकमात्र पुत्र को पहले ही छीन लिया था. पुत्रियां बीमारी के दौरान आईं, कुछ समय बिताकर कपनी गृहस्थी में चली गयीं. इस दौर में वे किसी को पहचान नहीं पा रहे थे. उनके जाना भरी धुप में एक छतनार वृक्ष के गिरने जैसा है.
( प्रो चन्द्र भूषण अंकुर गोरखपुर विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं. उनका लिखा यह संस्मरण राष्ट्रीय सहारा में 22 जून को प्रकाशित हुआ था )