( मीनल गुप्ता की कहानी “लाल पश्मीना ” की समीक्षा )
दीबा
मीनल गुप्ता कृत कहानी “लाल पश्मीना ” एक साथ कई मुद्दों को उठाती हुई चलती है, और केवल उठाती ही नहीँ चलती बल्कि उन मुद्दों पर जैसे सोचने को मजबूर ही कर देती है. मेरी दृष्टि में यह, प्रेम की कमी से ही जन्मे एक अलग तरह के प्रेम की कहानी है. वह प्रेम जो एक स्त्री के रूप में मंजुला को अपने पति से कभी नही मिला है, एक बहन के रूप में भी वो किसी को प्रेम नहीं दे पाई है और यही प्रेम की ख़ाली जगह उसको एक कश्मीरी युवक के माध्यम से महज़ दीदी कह देने भर से ही पूरी हो जाती है। एक व्यापारी कैसे उसे इतना स्नेह दे सकता है जितना उसे खुद अपने घर में भी नही मिला है, तभी तो वो सोच में पड़ जाती है ” क्या ऐसे भी कोई व्यापार करता है ?”
वहीं दूसरी ओर फरहान कश्मीरी युवकों का प्रतिनिधित्व कर रहा है जिनका जीवन प्रेम और सराहना जैसे शब्दों से एकदम अछूता है, यही कारण है कि अपने काम के लिए की गयी मंजुला की सराहना, उसे मंजुला के साथ एक अटूट रिश्ते में बांधती चली जाती है. इस प्रकार एक ही पल में दोनों एक दूसरे के जीवन में प्रेम की कमी के पोषक हो उठते हैं.
यह कहानी कश्मीरी जीवन की गंभीर समस्याओं से हमें रूबरू कराती है कि किस प्रकार उनकी प्रतिभाओ, भावनाओं और इंसानी ज़रूरतों को कुचल कर उनको केवल आतंक का पर्याय बना दिया गया है. कहानी जैसे अनसुनी चीख के साथ बतलाती है कि कश्मीरी लोगों का दिल भी आपके हमारे जैसा ही होता है भाई, वो भी सबकी तरह जीना चाहते हैं, सपने बुनते हैं. आपकी और हमारी तरह ही वो चाहते हैं कि उनकी पहचान उनकी कला से हो न की उनकी कला को केवल कौड़ियों के भाव बेच दिया जाये। कला को पहचान मिलने की यह तड़प फरहान के इस वाक्य में साफ सुनाई पड़ती है ” मैं अपने आप को कलाकार मानता हूँ , मुझे फेरीवाला या व्यापारी कहलाने में ज़रा भी ख़ुशी नही होती।”
कहानी यूँ ही मन को झिंझोड़ देती है कि कश्मीरी आतंकवादी नहीं होते जनाब वो भी रिश्तो को आपकी और हमारी तरह ही सहेज के रखते हैं या यूँ कहिये कि आपसे और हमसे कहीं ज़्यादा, तभी तो शायद फरहान के लिए मंजुला का रिश्ता इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि न तो वो उसको मिले बिना वापस जाता है और साथ उपहार भी लेके जाता है। आज की सीमित होती दुनिया में रिश्तों की इतनी क़दर ? वो भी उस इंसान के माध्यम से जिसका परिचय एक इंसान के रूप में नही बल्कि आतंकवादी और उग्रवादी के रूप में दिया जाना ही लोग अपना धर्म समझते हैं।
कहानी में मंजुला के माध्यम से स्त्री जीवन में व्याप्त गम्भीर समस्याओं की ओर भी दृष्टि डाली गई है कि किस तरह एक औरत को सम्पूर्ण होने के बाद भी निरंतर निरर्थकता का एहसास कराया जाता है, किस तरह उसके स्वयं के घर में ही आज़ादी की चन्द सांसो के लिए उसे संघर्ष करना पड़ता है और यह संघर्ष इतना दुखदायी होता है कि फिर आज़ादी के क्षणों में किसी का भी हस्तक्षेप अखरता है, यह केवल मंजुला की ही नही अपितु लगभग हर महिला की कहानी है।
डॉक्टर साहब का मंजुला के प्रति रवैय्या एक बार फिर हमें उस प्रश्न की और ले जाता है कि क्या कुछ बन जाने से ही इंसान पढ़ा लिखा हो जाता है ? आखिर क्या है शिक्षा का उद्देश्य ? और क्या कमी है उस शिक्षा व्यवस्था में जो व्यक्ति को आज भी स्त्री पुरुष से ऊपर उठा के इंसान नहीं बना पा रही है ? कहानी सोचने पर मजबूर करती हैं कि महिलाओं के हर तरह से बेहतर होने पे भी उनके मन में यह कमतरी का बीज क्यूं बोया जा रहा है और साथ ही यह भी कि पढ़ा लिखा समाज भी स्त्री की प्रतिभा से इतना भयभीत क्यू है ? कहीं उसे अपनी सत्ता छिन जाने का भय तो नहीं ? जिस तरह डॉक्टर साहब मंजुला को घर की चारदीवारी में कैद करके उसे घर के ही काम में उलझाये रखना चाहते हैं कहीं मंजुला की प्रतिभा के आगे हार जाने का उनको भय तो नहीं जिसे वो इस तरह दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। और आखिर करें भी क्यूं न जो इंसान केवल बीमार हो जाने से डर जाता हो उसे प्रतिभा कितना अधिक भयभीत कर सकती है, वो भी एक स्त्री की प्रतिभा, यह बताने की आवश्यकता नहीं।
कहानी इस ओर भी संकेत करती है कि एक डरी सहमी और हीनता से ग्रस्त स्त्री अपनी पीढ़ियों को भी डरा सहमा ही बनाती है. आर्ची का कपड़ो के लिए अपने पिता से झूट बोलना इसका सशक्त प्रमाण है। तो ज़रा सोचिए कि एक डरी सहमी स्त्री केवल अपने लिए ही नही अपनी पीढ़ियों के लिए भी कितनी घातक है।
लाल पश्मीना कहानी हमेशा से चले आ रहे एक महत्वपूर्ण सवाल को पुनः हमारे सामने खड़ा कर देती है और वो है अपनी भाषा के प्रति हमारी हीनता और उदासीनता, विषयों को लेकर समाज का भेदक रवैय्या। जैसा कि कहानी में बताया गया है कि हिंदी से एम ए होने के बाद भी मंजुला को कभी आपने विषय के प्रति उत्साह नहीं रहा, आखिर कब हम अपनी ही भाषा के प्रति हीनता में धंसे रहेंगे ? कहानी इस रवैय्ये को बदलने की मांग करती हुई दिखती है जैसे।
कहानी का अंत इसका सबसे मार्मिक और सशक्त भाग है जो पाठक को विचारों के गहरे समंदर में छोड़ जाता है कि आखिर कब तक कश्मीर में निर्दोषों को बलि देनी होगी कब तक उनके जीने के अधिकार का हरण होगा ? कहीं फरहान के द्वारा दिया गया लाल शाल उसके रक्त का प्रतीक तो नहीं था ? एक बहन को दिया गया अपना रक्त कभी न लौट के आने की मंशा से…….
( दीबा अमुवि , अलीगढ के हिंदी विभाग में शोध छात्रा हैं )