( कवि, पत्रकार अरुण गोरखपुरी की स्मृति में उनकी कुछ कवितायें व गीत)
तुममें भोर, भोर में तुमको, देख सकूं तो अच्छा है
जीवन को जीवन मे यारा, देख सकूं तो अच्छा है
रिमझिम रिमझिम, बरसाती बूंदों का सुर सरगम
आंखों से मौसम का नर्तन, देख सकूं तो अच्छा है
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आंखों में जब भी तस्वीर तुम्हारी होती है
सचमुच चन्दन चन्दन अपनी यारी होती है
हरे बांस की लाल पालकी जाने कब आये
सांस सांस में तन-मन की तैयारी होती है
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कइसे के सोना
सवंरिहैं धरतिया
कइसे के
होई रे उजास
नह भर जिनिगी
गदोरी भर सपना
चला चलीं
चनन अकास
भाई न
बहिनि जानै
माई न
रहनि जाने
जानै नाहीं
लछिमी क बास
नह भर जिनिगी
गदोरी भर सपना
चला चलीं
चनन अकास
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पूछना है ? खता पूछो
जानना है ? पता पूछो
हम नींव हैं, मकानों के
कैसे हुआ ? अता पूछो
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तारीफों के
पुल नहीं
उसे
एक अदद
बांध चाहिये
जो उसके
दुख की
उफनाई नदी को
आगे बढ़ने से
रोक सके
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किसान है
भगवान मत कहो
उसे रोटी कपड़ा
और मकान दो
खेत के लिये
खाद बीज पानी दो
उसे तसल्ली होगी
जब उसका
खेत लहलहायेगा
बच्चों की रोटी
बिटिया की शादी
और
तमाम जरूरतें
उसी खेत पर
टिकी हैं
वह आदमी है
उसे
आदमी ही रहने दो
साहब
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सन्यासी राम
टूट गयी अपनी मर्यादा,
राम का फ़िर वनवास हो गया
सरयू तीरे अवधपुरी मे.
राजनीति का वास हो गया
अपने राम तुम्हारे राम
सबके अपने अपने राम
गंगाजली उठाई फ़िर भी
सपने हो गये अपने राम
पाँच साल को हो गये आम
दिल्ली मे वनवासी राम
राजनीति की दाँव चढ़ गये
संतों के सन्यासी राम
संतों के बैसाखी राम
जनता के थे साखी राम
वोट की खातिर फ़िर दौड़ेगे
नारे नारे सीताराम
इस लंका मे आओ राम
मर्यादा सिखलाओ राम
बेच के घर तक खा जायेंगे
खुद को आज बचाओ राम
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जिधर भी देखिये, हताशा है
आदमी गांव में, तमाशा है
चढ़ा चौपाल फिर मदारी है
खेल में बेहतरी की आशा है
कर्ज में, गले तक धंसी सांसें
राज से, नीति तक निराशा हैे
कहो कैसे भला, बढ़ें आगे
किसी ने मेड़ तक तराशा है
नाच देखी है मैने महंगी की
उम्र परधान है, बताशा है
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अब तो
बहुत दूर
निकल आया हूं
खुदी की
राह में तन्हा ही
निकल आया हूं
जहां पे हूं
वहां से
लौटना मंजूर नहीं
कहें किससे?
सुनें किसकी ?
टंगी है आस भी अबतक
मगर
अब लौट के आना
मुझे मंजूर नहीं
तुम्हारी
चाल में आना
मुझे मंजूर नहीं
( ये कवितायेँ अरुण गोरखपुरी की फेसबुक वाल से ली गई हैं. इन दिनों वह नियमित रूप से गीत. कविता, मुक्तक लिख रहे थे )