मनोज कुमार सिंह
प्रेमचन्द का गोरखपुर से गहरा सम्बन्ध है। उनके बचपन के चार वर्ष यहीं बीते तो जवानी के साढे चार वर्ष भी। वह गोरखपुर में पढे और यहां के नार्मल स्कूल में बच्चों को पढाया भी। यहीं पर उनकी मुलाकात महावीर प्रसाद पोद्दार से हुई जिन्होंने अपने कलकत्ता स्थित प्रकाशन हिन्दी पुस्तक एजेन्सी से प्रेमचन्द की ‘ प्रेम पचीसी ’, ‘ सेवासदन ’ और ‘ प्रेमाश्रम ’ को प्रकाशित किया। गोरखपुर में ही उनकी मशहूर शायर रघुपति सहाय फिराक से दोस्ती हुई। गोरखपुर में ही उन्होंने गांधी जी का भाषण सुनने के बाद सरकारी नौकरी छोड़ दी। नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने जीवन निर्वाह के लिए करघे का कारखाना चलाया और गोरखपुर से हिन्दी व उर्दू में अखबार निकालने की योजना बनाते रहे। अखबार निकालने की योजना सफल न हो पाने के बाद वह अपने गांव लमही चले गए।
प्रेमचन्द गोरखपुर शहर में पहली बार 1892 में आए जब उनके पिता श्री अजायब लाल का तबादला गोरखपुर में हुआ। वह लगभग चार वर्ष तक यहां रहे और यहां रावत पाठशाला और फिर मिशन स्कूल में आठवी जमात तक पढ़ाई की। यहीं पर उन्हें तिलस्मी और ऐयारी की किताबें पढ़ने का जबर्दस्त चस्का लगा जिसने कहानीकार प्रेमचन्द को अंकुरित किया। प्रेमचन्द लिखते हैं कि-रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था। मैं उसकी दुकान पर जा बैठता था और उसके स्टाक के उपन्यास ले-लेकर पढ़ता था। मगर दुकान पर सारे दिन तो बैठ न सकता था, इसलिए मैं उसकी दुकान से अंग्रेजी पुस्तकों की कुंजियां और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और उसके मुआवजे में दुकान से उपन्यास घर लाकर पढ़ता था। दो-तीन वर्षों में मैने सैकड़ों उपन्यास पढ़ डाले होंगे।’
प्रेमचन्द ने महज 13 वर्ष की उम्र में गोरखपुर में 2-3 वर्षों में 25 हजार पन्नों वाली मौलाना फैजी की ‘ तिलस्म होशरूबा ‘, रेनाल्ड की मिस्ट्रीज आफ द कोर्ट आफ लण्डन की पचीसों किताबों के उर्दू तर्जुमे, मौलना सज्जाद हैसन की हास्य कृतियां, ‘ उमरावजान अदा ’ के लेखक मिर्जा रूसवा और रतनाथ सरशार के ढेरों किस्से पढ डाले। नवलकिशोर प्रेस से छपे पुराणों के उर्दू अनुवाद भी उन्होंने पढ़े।
गोरखुर में ही उन्होंने अपनी पहली कहानी लिखी जो उनके मामा पर थी। यह उनके मामू के प्रेम प्रसंग और उसको लेकर घटी सच्ची घटना पर थी।
प्रेमचन्द दूसरी बार गोरखपुर में गवर्नमेंट नार्मल स्कूल में सहायक अध्यापक होकर 18 अगस्त 1916 को आए। इसके पहले वह बस्ती में तैनात थे। वह 18 अगस्त की शाम को बस्ती से गोरखपुर पहुंचे थे। उसी रात उनके बड़े बेटे श्रीपत राय का जन्म हुआ। उन्हें सरकारी क्वार्टर नहीं मिल पाया था। वह नार्मल स्कूल के बरामदे में ही ठहर गए। छात्रों और अध्यापकों ने पूरी मदद की। जब प्रेमचन्द की पत्नी शिवरानी देवी को प्रसव वेदना हुई तो एक अध्यापक उन्हें अपने आवास ले गए। रात दस बजे श्रीपत राय का जन्म हुआ। दो महीने प्रेमचन्द उसी अध्यापक के आवास पर रहे जबकि अध्यापक उनको मिले आवास में चले गए। दो महीने बाद प्रेमचन्द सरकारी क्वार्टर मंे आए। गोरखपुर के बेतियाहाता में प्रेमचन्द पार्क के अन्दर यह सरकारी भवन आज भी वैसे ही स्थित है जिसे प्रेमचन्द निकेतन के नाम से जाना जाता है।
प्रेमचन्द गोरखपुर आने के पहले उर्दू के एक प्रतिष्ठित कथाकार के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। इसी वर्ष हिन्दी में उनकी कहानी ‘ पंच परमेश्वर ’ छपी थी।
गोरखपुर में रहते हुए प्रेमचन्द ने शिक्षण कार्य के साथ-साथ अपनी पढाई जारी रखी और बी.ए. किया। फिराक साहब इन्हीं दिनों प्रेमचन्द से मिले थे। इस मुलाकात जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है-जब मै पहली बार उनसे मिला था तब वह एक मुदर्रिस की हैसियत से प्राइवेट तौर पर इन्टरमीडिएट का इम्तहान दूसरे दरजे में पास कर चुके थे। जब 1919 में वह अपना उत्साहपूर्ण ‘ प्रेमाश्रम ’ (जिसका अनुवाद उर्दू में गोशाए आफियत के नाम से प्रकाशित हुआ) लिख रहे थे। तब वह स्कूल में पढ़ाते भी थे और बोर्डिंग हाउस के सुपरिटेन्डेन्ट का भी काम करते थे। फिर उसी रवारवी में उन्होंने बिना कोई विशेष परिश्रम किए दूसरे दरजे में बीए की डिग्री भी हासिल कर ली। उन्होंने अपने सारे जीवन में कभी एक विद्यार्थी के रूप में किसी कालेज में पैर भी नहीं रखा था। ’
प्रेमचन्द बहुत स्वाभिमानी थे। गोरखपुर की दो घटनाओं से इसका जिक्र मिलता है। एक बार उनके स्कूल में निरीक्षण करने स्कूल इंस्पेक्टर आया। पहले दिन प्रेमचन्द उसके साथ पूरे समय स्कूल में रहे। दूसरे दिन शाम को वह अपने घर पर आराम कुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे। इंस्पेक्टर की मोटरकार उधर गुजरी। इंस्पेक्टर को उम्मीद थी कि प्रेमचन्द उठ कर उन्हें सलाम करेंगे लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। इंस्पेक्टर ने गाड़ी रोक दी और अर्दली को भेजकर बुलवाया। शिवरानी देवी इस घटना का वर्णन करते हुए लिखती हैं कि इंस्पेक्टर के सामने जाकर प्रेमचन्द बोले-कहिए क्या है ?
इंस्पेक्टर-तूम बड़े मगरूर हो । तुम्हारा अफसर दरवाजे से निकला जाता है और तुम उठकर सलाम भी न करते ?
प्रेमचन्द बोले-मै जब स्कूल में रहता हूं तब नौकर हूं। बाद में मै भी अपने घर का बादशाह हूं।
इस घटना से प्रेमचन्द आहत हुए थे और इंस्पेक्टर के खिलाफ मानहानि का केस करने पर विचार करने लगे। शिवरानी देवी ने किसी तरह उन्हें मनाया।
प्रेमचन्द के गोरखपुर वाले घर के पास ही कलक्टर का आवास था। प्रेमचन्द ने गाय पाल रखी थी। एक दिन गाय कलक्टर के अहाते में चली गई। कलक्टर बहुत नाराज हुआ। उसने कहा कि प्रेमचन्द आकर अपनी गाय ले जाएं नही तो मै गोली मार दूंगा।
इस बात की जानकारी जब स्कूल के लड़कों को हुई तो वे कलक्टर के बंगले पर एकत्र हो गए और नाराजगी प्रकट करने लगे। प्रेमचन्द भी पहुंचे। सबसे पहले उन्होंने छात्रों को वहां से जाने को कहा। छात्र बोले कि बगैर गाय लिए नहीं जाएंगे।
इसी बीच एक लड़के ने कहा कि गाय को गोली मार दी गई तो खून की नदी बह जाएगी। एक मुसलमान गोली मार देता है तो खून की नदियां बह जाती हैं।
प्रेमचन्द ने उस लड़के को डांटा। बोले-फौज वाले तो रोज गाय, बछडे़ मार-मार कर खाते हैं, तब तुम लोग सोते हो ? यह तो गलती है कि मुसलमानों की एक कुर्बानी पर सैकड़ों हिन्दू-मुसलमान मरते-मारते हैं। गाय तुम्हारे लिए जितनी जरूरी है, मुुसलमानों के लिए भी उतनी जरूरी है। ’
इसके बाद प्रेमचन्द कलक्टर के पास गए। बोले-आपने मुझे क्यों याद किया ?
कलक्टर-तुम्हारी गाय मेरे हाते में आई। मै उसे गोली मार देता। हम अंग्रेज हैं । ’
प्रेमचन्द-‘ साहब, आपको गोली मारनी थी तो मुझे क्यों बुलाया ? आप जो चाहे सो करते। या, मेरे खड़े रहते गोली मारते ? ’
‘ हां, हम अंगे्रज हैं, कलक्टर हैं। हमारे पास ताकत है। हम गोली मार सकता है। ’
‘ आप अंग्रेज हैं। कलक्टर हैं। सब कुछ हैं, पर पब्लिक भी तो कोई चीज हैं। ’
‘ मै आज छोड़ देता हूं। आइन्दा आई तो गोली मार देगा। ’
‘ आप गोली मार दीजिएगा। ठीक है, पर मुझे न याद कीजिएगा। ’ यह कहते हुए प्रेमचन्द चले आए।
गोरखपुर में प्रेमचन्द गंभीर रूप से बीमार पड़े। ऐसी स्थिति हो गई कि बचने की आशा न रही। इस दौरान 8 फरवरी 1921 को महात्मा गांधी गोरखपुर आए। प्रेमचन्द पत्नी और बच्चों के साथ गांधी जी का भाषण सुनने गए। शिवरानी देवी लिखती हैं-‘ असहयोग का जमाना था। गांधी जी गोरखपुर में आए। आप बीमार थे, फिर भी मै, दोनों लड़के, बाबूजी मीटिंग में गए। महात्माजी का भाषण सुनकर हम दोनों बहुत प्रभावित हुए। हां, बीमारी की हालत थी। विवशता थी। मगर तभी से सरकारी नौकरी के प्रति एक तरह की उदासीनता पैदा हुई। ’
प्रेमचन्द को 40 रूपए वेतन मिलता था। इसमें से दस रूपए वह अपनी चाची को भेज देते थे। बेहद तंगी थी। इसके बावजूद गांधी जी के भाषण के प्रभाव में उन्होंने नौकरी छोड़ने का निर्णय लिया लेकिन यह निर्णय इतना आसान नहीं था।
शिवरानी देवी लिखती हैं-‘ एक दिन की बात है, मुझसे बोले-तुम राय देतीं तो सरकारी नौकरी छोड़ देता। मै जवाब देती हुई बोली कि इस विषय पर विचार करने के लिए दो-तीन दिन का समय चाहिए।
प्रेमचन्द बोले मै तो खुद ही चाहता हूं कि पहले तुम अपना विचार ठीक कर लो । ‘
प्रेमचन्द तो नौकरी छोड़ने का इरादा कर चुके थे लेकिन वह शिवरानी देवी की सहमति चाहते थे।
शिवरानी देवी लिखती हैं कि ‘ जो उलझन उनको थी वही तो -तीन दिन मुझे भी हुई। मुझे भी बार-बार यही ख्याल होता कि आखिर बीए की ख़्वाहिश क्यों हुई, यही न कि आगे तरक्की की आशा। पहले तो यह ख्याल था कि यह कभी प्रोफेसर हो जाएंगे और जीवन के दिन आराम से कटेंगे क्योंकि सेहत अच्छी न थी। और कहां यह प्रस्ताव कि जो कुछ मिलता है उसको भी छोड़कर महज हवा में उड़ा जाय। इन सब बातों को सोचकर यही दिल में आता था कि इनको नौकरी छोड़ने से रोक दूं। दो रोज का समय लिया था लेकिन चार-पांच दिन में भी कोई निर्णय न कर सकी। ’
चार-पांच दिन दिन के बाद उन्होंने फिर पूछा कि बतलाओ कि तुमने क्या निर्णय लिया। मै बोली -एक दिन का समय और। उस दिन मैने यह सोचा कि आखिर यह इतने बीमार थे और बचने की कोई आशा न थी। एक तरह शायद उन्होंने मुझे जवाब ही दे दिया था, यह कहकर कि यह 3000 रूपए हैं और तीन तुम हो। मैने सोचा कि यह अच्छे हो गए हैं तो नौकरी की कोई चिन्ता न होनी चाहिए क्योंकि ईश्वर कुछ अच्छा ही करने वाला होगा, तभी तो यह अच्छे हो गए हैं। मान लो जब यही नहीं रहते तो मै क्या करती, शायद इसी काम के लिए ईश्वर ने इन्हें अच्छा किया हो। फिर उन दिनों जलियांवाले बाग में जो भीषण हत्याकांड हुआ था, उसकी ज्वाला सभी के दिल में होना स्वभाविक थी। वह शायद मेरे भी दिल में रही हो। दूसरी दिन अपने को उन सभी मुसीबतों को सहने के लिए तैयार कर पाई जो नौकरी छोड़ने पर आने वाली थी। दूसरे दिन मैने उनसे कहा-छोड़ दीजिए नौकरी को। 25 वर्ष की नौकरी छोड़ते हुए तकलीफ तो होती ही थी। मगर नहीं! यह जो मुल्क पर अत्याचार हो रहे थे, उसको देखते हुए वह शायद नही के बराबर था। जब मैने उनसे कहा कि छोड़ दीजिए नौकरी क्योंकि इन अत्याचारों को तो अब सबको मिलकर मिटाना होगा और यह सरकारी नीति अब सहनशक्ति के बहार है।
‘ अब आप अपनी स्वभाविक हंसी हंसकर बोले-दूसरों का अंत करने के पहले अपना अन्त सोच लो। ’
मैं बोली-‘ मैने सोच लिया है, जब तुम अच्छे हो गए हो तो मैं सोचती हूं कि अब आगे भी मैं जंगल में मंगल कर सकूंगी और मेरा ख्याल है कि ईश्वर कुछ अच्छा ही करने वाला है। ’
शिवरानी देवी की सहमति मिलने के अगले दिन यानि 16 फरवरी 1921 को प्रेमचन्द ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और सरकारी मकान भी छोड़ दिया।
फिराक गोरखपुरी ने प्रेमचन्द के नौकरी से इस्तीफा देने के बारे में लिखा है-यदि वह नौकरी करते रहते तो निश्चित है कि आज वह अपने महकमे में काफी तरक्की कर चुके होते और उनकी गिनती इस सूबे के शिक्षा विभाग के बड़े अफसरों में होती लेकिन सन 1919 के असहयोग आंदोलन के समय, जब उनकी अवस्था 30 वर्ष से कुछ अधिक हो चुकी थी, मेरे यूपी सिविल सर्विस की नौकरी छोड़ने के कुछ ही हफ़्तों बाद वह भी सरकारी नौकरी से अलग हो गए।
प्रेमचन्द गोरखपुर में रहकर कुछ करना चाहते थे। शिवरानी देवी से कहा कि – मेरा तो विचार है कि यहीं गोरखपुर में कुछ काम कर लूं। कुछ नही तो कोई पचास-साठ रूपए तो दे ही देगा। यहीं दस-पांच रूपए का मकान लेकर पड़े रहें। मेरा विचार है कि एक चरखा संघ खोलें। इसके लिए पोद्दार महावीर प्रसाद पोद्दार तैयार भी हैं। ’
शिवरानी जी बनारस चलने के मूड में थीं जबकि प्रेमचन्द गोरखपुर महावीर प्रसाद पोद्दार की मदद से उर्दू व हिन्दी का अखबार निकालने की योजना बनाए हुए थे। नौकरी और सरकारी मकान छोड़ने के बाद प्रेमचन्द परिवार सहित मानीराम में महावीर पोद्दार के घर चले गए।
नौकरी छोड़ने के एक सप्ताह बाद 23 फरवरी 1923 को को लिखे एक पत्र में प्रेमचन्द ने अपनी यह मंशा जाहिर की थी। उन्होंने लिखा कि -किसी तरह अब मै आजाद हो गया। अब बतलाइए क्या करूं। प्रेस और अखबारनवीसी और कुतुबनवीसी के सिवा मै कोई दूसरा काम के काबिल नहीं। कपड़े बुनने के लिए तैयार नहीं। काश्तकारी मेरे किए हो ही नहीं सकती। क्या आपका इरादा अब अब भी प्रेस की तरफ है। मै चार-पांच हजार का सरमाया और अपना सारा वक्त आपके नज्र करने को तैयार हूं बशर्ते कि आप भी मेरे मुआविन सहयोगी और शरीक हों। मै एक अच्छा प्रेस उर्दू हिन्दी और अंग्रेजी का खेलना चाहता हूं ।’
महावीर प्रसाद पोद्दार के यहां प्रेमचन्द दो महीने रहे। शिवरानी देवी के अनुसार ‘ यहां हम लोगों के दिन बहुत अच्छे कटे। ऐसा मालूम होता था कि पोद्दार जी और हम सब एक ही हैं। पोद्दार जी ने हमारी काफी सेवा की। उन्हीं की सेवा की वजह से वे जल्दी तन्दरूस्त हुए। पोद्दार जी रोज 13 मील दूर शहर जाते। बाबू जी दरवाजे पर बैठे-बैठे चर्खे बनवाते और लिखते-पढ़ते।’
दो महीना रहने के बाद तय हुआ कि पोद्दार जी के साझे में शहर में चर्खे की दुकान खोली जाए और एक मकान वहां लिया जाए। उसी जगह दस कर्घे लगाए गए। चर्खा चलाने वाली कुछ औरते भी थीं। देहात से बनकर चर्खे आते थे, वे बेचे भी जाते थे। शाम के वक्त पोद्दारजी और बाबूजी तथा और कुछ मित्र लोग बैठ गपशप करते।
प्रेमचन्द ने करघे की दुकान के बारे में लिखा है कि मैने फिलहाल एक कपड़े का कारखाना खोल रखा है जिसमें करघे चल रहे हैं। कुछ चर्खे वगैरह बनवाए भी जा रहे हैं। एक मैनेजर पचीस रूपए माहवार पर रख लिया है। गो उससे मुझे माहवार कुछ न कुछ नफा जरूर होगा लेकिन इतना नहीं कि मै उस पर तकिया कर सकूं। ’
प्रेमचन्द का गोरखपुर से उर्दू अखबार निकालने में सफल नहीं हो पाए। इसका कारण यह था कि गोरखपुर से बंद एक उर्दू साप्ताहिक फिर से शुरू हो गया। प्रेमचन्द का मानना था कि इस उर्दू अखबार के फिर जारी होने जाने से इसकी मौजूदगी में किसी किसी दूसरे हफ्तेवार की खपत नहीं हो सकेगी।’
गोरखपुर से अखबार नहीं निकाल पाने का सपना उन्होंने बनारस जाकर पूरा किया। गोरखपुर से वापस वह जब लमही गए तो एक बार फिर उन्होंने चर्खे के प्रचार का काम किया। उन्होंने एक जमींदार से लकड़ी मांगी और कहा कि आप लकड़ी दीजिए मै बनवाई दूंगा। चर्खे देहात में बांटे जाएंगे ताकि गरीब भाइयों में चर्खे का प्रचार बढ़े । जमींदार राजी हो गए। गांव भर के आदमियों को इकट्ठा कर जमींदार के यहां से लकड़ी ले आए। एक माह तक दो बढ़ई दरवाजे पर चर्खे बनाते रहे। उसके बाद सब लोगों को एक-एक चर्खा मुफत में बांटा गया। चर्खे किस तरह से चलाए जाएं, कैसा सूत हो इन सब बातों की जानकारी वे लोगों को कराने लगे। ’