मनोज कुमार सिंह
बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर में आक्सीजन संकट के दौरान चार दिन में 53 बच्चों की मौत पूरे देश में चर्चा का विषय बनी हुई है। बच्चों की मौत को लेकर जहां आम लोगों में शोक और आक्रोश से भरी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं वहीं इसके लिए जिम्मेदार लोग इन मौतों को ‘ सामान्य ’ बताने के लिए पूरा जोर लगाए हुए हैं और इसके लिए आंकड़ों का खेल खेल रहे हैं। बच्चों की मौत ने पूरे सिस्टम को बेपर्दा कर दिया है। वो सभी चेहरे जो कल तक संवेदनशीलता का लेप लगाए हुए थे, उघड़ गए हैं और उन्हें इसे छिपाने के लिए नाटकीयता का सहारा लेना पड़ रहा है।
पूर्वांचल पिछले चार दशक से इंसेफेलाइटिस से बच्चों की मौत हो रही है। सिर्फ बीआरडी मेडिकल कालेज में वर्ष 1978 से इस वर्ष तक 9733 बच्चों की मौत हो चुकी है। इस आंकड़े में जिला अस्पतालों, सीएचसी-पीएचसी और प्राइवेट अस्पतालों में हुई मौतें शामिल नहीं हैं। इंसेफेलाइटिस से मौतों के आंकड़े आईसवर्ग की तरह हैं। जितनी हमें पता हैं उससे कहीं ज्यादा हमें नहीं पता क्योंकि यूपी के दूसरे हिस्सों में इंसेफेलाइटिस की रिपोर्टिंग निर्धारित गाइडलाइन के मुताबिक नहीं हो रही है।
अब तो इसे सिर्फ पूर्वांचल की बीमारी कहना भी ठीक नहीं होगा क्योकि इसका प्रसार देश के 21 राज्यों के 171 जिलों में हो चुका है।
नेशनल वेक्टर बार्न डिजीज कन्ट्रªोल प्रोग्राम के मुताबिक वर्ष 2010 से 2016 तक एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम से पूरे देश में 61957 लोग बीमार पड़े जिसमें से 8598 लोगों की मौत हो गई। इन्हीं वर्षों में जापानी इंसेफेलाइटिस से 8669 लोग बीमार हुए जिसमें से 1482 की मौत हो गई। इस वर्ष अगस्त माह तक पूरे देश में एईएस के 5413 केस और 369 मौत रिपोर्ट की गई है। जापानी इंसेफेलाइटिस के इस अवधि में 838 केस और 86 मौत के मामले सामने आए हैं।
जेई और एईएस से सर्वाधिक प्रभावित वाले राज्य आसोम, महाराष्ट्र, ओडिसा, तमिलनाडू, यूपी और पश्चिम बंगाल हैं।
पिछले एक दशक से अधिक समय से सरकारों द्वारा इस बीमारी के खात्मे के तमाम घोषणाएं व दावे नाकाम साबित हुए हैं और जेई एईएस के केस भयावह रूप से पूरे देश में बढ़ते जा रहे हैं।
इंसेफेलाइटिस को समझने के लिए हमें जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम को समझना पड़ेगा।
जापानी इंसेफेलाइटिस
वर्ष 1978 में गोरखपुर में इस बीमारी की पहचान जापानी इंसेफेलाइटिस के रूप में हुई। जापानी इंसेफेलाइटिस का प्रकोप सबसे पहले 1912 में जापान में हुआ था। उसी समय इसके विषाणु की पहचान की गई और इससे होने वाले संक्रमण को जापानी इंसेफेलाइटिस का नाम दिया गया। जापानी इंसेफेलाइटिस का विषाणु क्यूलेक्स विश्नोई नाम के मच्छरों से मनुष्य में फैलता है। यह मच्छर धान के खेतों में, गंदे पानी वाले गड्ढों, तालाबों में पाया जाता है और यह पांच किलोमीटर की परिधि तक विषाणु फैला पाने में सक्षम होता है। यह विषाणु मच्छर से उसके लार्वा में भी पहुंच जाता है और इस तरह इसका जीवन चक्र चलता रहता है। मच्छर से यह विषाणु जानवरों, पक्षियों और मनुष्यों में पहुंचता है लेकिन सुअर के अलावा अन्य पशुओं में यह विषाणु अपनी संख्या नहीं बढ़ा पाते और वे इससे बीमार भी नहीं होते। इसी कारण इन्हें ब्लाकिंग होस्ट कहते हैं जबकि सुअर में यह विषाणु बहुत तेजी से बढ़ते हैं। इसी कारण सुअर को एम्पलीफायर होस्ट कहते हैं।
जापान में जापानी इंसेफेलाइटिस को वर्ष 1958 में ही टीकाकरण के जरिए काबू पा लिया गया। चीन, इंडोनेशिया में भी टीकाकरण, सुअर बाड़ों के बेहतर प्रबन्धन से जापानी इंसेफेलाइटिस पर काबू कर लिया गया लेकिन भारत में हर वर्ष सैकड़ों बच्चांे की मौत के बाद भी सरकार ने न तो टीकाकरण का निर्णय लिया और न ही इसके रोकथाम के लिए जरूरी उपाय किए जबकि देश में जापानी इंसेफेलाइटिस का पहला केस 1955 में ही तमिलनाडू के वेल्लोर में सामने आया था। आज जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम देश के 19 राज्यों के 171 जिलों में फैल गया है। इसमें से उत्तर प्रदेश, बिहार, असोम, तमिलनाडू, पश्चिम बंगाल के 60 जिले सबसे अधिक प्रभावित हैं।
उत्तर प्रदेश में वर्ष 2005 में जेई और एईएस से जब 1500 से अधिक मौतें हुई तो पहली बार इस बीमारी को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर हाय तौबा मचा। तत्कालीन केन्द्र सरकार ने चीन से जापानी इंसेफेलाइटिस के टीके आयात करने और बच्चों को लगाने का निर्णय लिया। टीकाकरण से जेई के केस काफी कम हो गए हैं। वर्ष 2005 तक दिमागी बुखार के 70 फीसदी मामलों में जेई ही जिम्मेदार माना जाता था लेकिन आज यह कुल केस का दस फीसदी से भी कम हो गया है। इस वर्ष अभी तक बीआरडी मेडिकल कालेज में जेई के 23 केस रिपोर्ट हुए हैं।
सरकार ने अब जेई टीकाकरण को रूटीन टीकाकरण अभियान में शामिल कर लिया है। वयस्कों में जापानी इंसेफेलाइटिस के बढ़ते मामले को देखते हुए इस वर्ष वयस्कों को भी एक अभियान के तहत टीका लगाया जा रहा है।
फिर भी जापानी इंसेफेलाइटिस के मामले बढ़ते नजर आ रहे हैं जो चिंताजनक है।
इंसेफेलाइटिस से बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर में मौत के आंकड़े ( यहाँ पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के 10 जिलों, पश्चिमी बिहार के चार जिलों से मरीज इलाज के लिए आते हैं। कुछ मरीज नेपाल के भी आते हैं। आंकड़े 9 अगस्त 2017 तक के हैं)
year | case | death | Death rate | year | case | death | Death rate | year | case | death | Death rate |
1978 | 274 | 58 | 21 | 1992 | 305 | 109 | 36 | 2006 | 1940 | 431 | 22-21 |
1979 | 109 | 26 | 24 | 1993 | 127 | 53 | 42 | 2007 | 2423 | 516 | 21-19 |
1980 | 280 | 66 | 24 | 1994 | 300 | 107 | 36 | 2008 | 2194 | 458 | 20-87 |
1981 | 56 | 22 | 39 | 1995 | 490 | 152 | 31 | 2009 | 2663 | 525 | 19-71 |
1982 | 86 | 23 | 27 | 1996 | 519 | 181 | 35 | 2010 | 3302 | 514 | 15-56 |
1983 | 126 | 32 | 25 | 1997 | 160 | 53 | 33 | 2011 | 3308 | 627 | 18-95 |
1984 | 68 | 26 | 48 | 1998 | 804 | 161 | 20 | 2012 | 2517 | 527 | 20-86 |
1985 | 234 | 105 | 45 | 1999 | 787 | 205 | 25 | 2013 | 2110 | 619 | 29-33 |
1986 | 176 | 81 | 46 | 2000 | 646 | 151 | 21 | 2014 | 2208 | 616 | 27-90 |
1987 | 74 | 23 | 31 | 2001 | 787 | 168 | 24 | 2015 | 1758 | 442 | 25-14 |
1988 | 875 | 278 | 32 | 2002 | 540 | 127 | 20 | 2016 | 1924 | 514 | 26-16 |
1989 | 13 | 2 | 15 | 2003 | 952 | 191 | 25 | 2017 | 487 | 129 | 26-48 |
1990 | 313 | 103 | 33 | 2004 | 876 | 215 | 28 | ||||
1991 | 441 | 160 | 36 | 2005 | 3532 | 937 | 26-52 | 40784 | 9733 | 23-71 |
एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम
वर्ष 2005 में जब जापानी इंसेफेलाइटिस से बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हुई, उसी समय गोरखपुर और आस-पास के इलाकों में दिमागी बुखार के लिए जिम्मेदार कुछ और विषाणुओं की उपस्थिति के बारे में संदेह हुआ। टीकाकरण के बावजूद जब दिमागी बुखार के मरीजों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ने लगे तो यह संदेह पक्का हो गया कि इस इलाके में जेई के विषाणुओं के अलावा कुछ अन्य विषाणु भी सक्रिय हैं क्योंकि जांच में जेई पाजिटिव के केस दस फीसदी से ज्यादा नहीं आ रहे थे। बीआरडी मेडिकल कालेज के बाल रोग विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष प्रो केपी कुशवाहा ने दिमागी बुखार के दूसरे विषाणुओं की उपस्थिति जांचने के लिए सीरम, मेरूदंड द्रव यानि सेरीब्रो स्पाइनल फलूइड सीएफएल के नमूनों को जांच के लिए देश के शीर्षस्थ संस्थानों में भेजा तो इनमें से अधिकतर में नान पोलियो इन्टेरो वायरस की पुष्टि हुई। वर्ष 2004 और 2005 में जितने नमूनों की जांच हुई उसमें से 60 फीसदी नमूनों में नान पोलियो इन्टेरो वायरस की पुष्टि हुई। इसके बाद इसे वीई यानि वायरल इंसेफेलाइटिस कहा गया लेकिन बाद में दिमागी बुखार के सभी रोगों की पहचान, जांच व बेहतर इलाज के लिए इसे एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम (एईएस) का नाम दिया गया। एईएस का मतलब है-किसी भी उम्र के व्यक्ति में वर्ष के किसी भी वक्त यदि बुखार के साथ सुस्त, बदहवासी, अर्धचेतन, पूर्ण अचेतन,झटका, विक्षिप्तता के प्रकार लक्षण दिखते हैं तो उसे एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम कहेंगे। दिमागी बुखार तंत्रिका तंत्र मस्तिष्क व मेरूदंड का खतरनाक संक्रमण है जो मुख्यतः विषाणुओं से होता है। इसके अलावा कीटाणुओ, फंफूदी, परजीवी से भी मस्तिष्क में आघात व शरीर के दूसरे हिस्सों में संक्रमण हो सकता है। दिमागी बुखार किसी भी आयु के व्यक्ति को हो सकता है लेकिन 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में यह ज्यादा है। इस रोग में मृत्यु दर तथा शारीरिक व मानसिक अपंगता बहुत अधिक है।
एईएस से मृत्यु का विवरण 2010-2016
year | india | U P | BRD Medical college |
2010 | 679 | 494 | 514 |
2011 | 1160 | 579 | 627 |
2012 | 1250 | 557 | 527 |
2013 | 1273 | 609 | 619 |
2014 | 1719 | 627 | 616 |
2015 | 1210 | 479 | 442 |
2016 | 1301 | 621 | 514 |
एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम के रोगियों के नमूनों की जांच में इन्टेरो विषाणुओं की कई प्रजातियां पायी गई है। इनमें प्रमुख हैं-पोलियो इन्टेरो विषाणु, नान पोलियो इन्टेरो विषाणु और काक्सिकी ए, काक्सिकी बी, इको विषाणु। इन्टेरो विषाणु मिट्टी व प्रदूषित जल में मिलते हैं। ये विषाणु शरीर में सांस के द्वारा श्वसन तंत्र और प्रदूषित भोजन व पानी के जरिए आहार तंत्र में पहुंच जाते हैं। ये विषाणु पहले गले के टांसिल और आहार तंत्रिका के लिम्फ कोशों में संवर्धित होते हैं और फिर खून में पहुंच जाते हैं। इसके बाद से उतकों को संक्रमित करते हैं।
मोटे तौर माना जाता है कि एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्डोम यानि एईएस के मरीजों में 80 फीसदी इन्टेरो विषाणुओं से संक्रमित हुए जिनकी संख्या सैकड़ों में है। शेष 20 फीसदी में 10 फीसदी जापानी इंसेफेलाइटिस, दो से तीन फीसदी मेनिगो इंसेफेलाइटिस, एक से दो फीसदी ट्यूबक्यूलस मेनिनजाइटिस, एक से दो फीसदी दिमागी टाइफाइड, 0.3 फीसदी दिमागी मलेरिया, 0.1 फीसदी हरपीज विषाणु जनित इंसेफेलाइटिस है। कुछ मरीजों में स्क्रब टाइफस भी पाया गया है हालांकि इसकी दवा सभी मरीजों को दिए जाने का निर्देश दिया गया है।
इंसेफेलाइटिस के रोकथाम के दावे और हकीकत
वर्ष 2012 में पांच राज्यों में इंसेफेलाइटिस के नियंत्रण के लिए 4,038 करोड़ की योजना की घोषणा की गई। इस योजना के तहत इन पांच राज्यों के 60 जिलों में इंसेफेलाइटिस को नियंत्रित करने के लिए स्वास्थ्य विभाग, पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय, सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण, शहरी गरीबी उन्मूलन और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को मिलजुल कर काम करना था।
एईएस के केस
year | india | UP | BRD Medical college |
2010 | 5167 | 3540 | 3302 |
2011 | 8249 | 3492 | 3308 |
2012 | 8333 | 3484 | 2517 |
2013 | 7825 | 3096 | 2110 |
2014 | 10867 | 3329 | 2208 |
2015 | 9854 | 2894 | 1758 |
2016 | 11651 | 3919 | 1924 |
स्वास्थ्य विभाग के जिम्में इंसेफेलाइटिस के इलाज की व्यवस्था ठीक करने, टीकाकरण और इस बीमारी पर शोध का काम था तो पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय को गांवों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए इंडिया मार्का हैण्डपम्पों, नलकूपों की स्थापना तथा व्यक्तिगत शौचालयों का बड़ी संख्या में निर्माण कराना था। इसी तरह सामाजिक न्याय मंत्रालय को इस बीमारी से विकलांग हुए बच्चों के पुनर्वास, शिक्षा व इलाज की व्यवस्था का काम था। इस योजना के पांच वर्ष गुजर गए लेकिन अभी तक इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतों व अपंगता को कम करने में सफलता मिलती नहीं दिख रही है।
बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर
बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर में इंसेफेलाइटिस के सर्वाधिक मरीज आते हैं। यहां पर गोरखपुर, बस्ती, आजमगढ मंडल के अलावा बिहार और नेपाल से मेडिकल कालेज में हर वर्ष जेई/एईएस के 2500 से 3000 मरीज आते हैं। अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर में मरीजों की संख्या 400 से 700 तक पहुंच जाती है लेकिन इस मेडिकल कालेज को दवाइयों, डाक्टरों, पैरा मेडिकल स्टाफ, वेंटीलेटर, आक्सीजन के लिए भी जूझना पड़ता है। इंसेफेलाइटिस की दवाओं, चिकित्सकों व पैरामेडिकल स्टाफ, उपकरणों की खरीद व मरम्मत आदि के लिए अभी तक अलग से बजट का प्रबंध नहीं किया गया है।
यहां पर 100 बेड का नया इंसेफेलाइटिस वार्ड बन जाने के बावजूद मरीजों के लिए बेड सहित अन्य संसाधानों की कमी हो रही है। इंसेफेलाइटिस के अलावा अन्य बीमारियों से ग्रसित बच्चे भी बड़ी संख्या में भर्ती होते हैं। इस वर्ष के आंकड़े को ही ले तो हर माह 600 से लेकर 900 की संख्या में बच्चे एडमिट हुए। एक तरफ इतनी बड़ी संख्या में बच्चे यहां इलाज के लिए आ रहे हैं तो दूसरी तरफ यहां पर बाल रोग विभाग के पास चार वार्डों में सिर्फ 228 बेड ही उपलब्ध हैं। मेडिकल कालेज में इलाज के लिए आने वाले इंसेफेलाइटिस मरीजों में आधे से अधिक अर्ध बेहोशी के शिकार होते हैं और उन्हें तुरन्त वेंटीलेटर की सुविधा चाहिए। यहां पर पीडियाट्रिक आईसीयू में 50 बेड उपलब्ध हैं। वार्ड संख्या 12 में कुछ वेंटीलेटर है। चूंकि मेडिकल कालजे में बड़ी संख्या नवजात बच्चे भी विभिन्न प्रकार की दिक्कतों के कारण भर्ती होते हैं और उन्हें भी न्यू नेटल आईसीयू में रखने की जरूरत होती है, इसलिए यहां बड़ी क्षमता का नियोनेटल आईसीयू की जरूरत है लेकिन इसका विस्तार अभी तक नहीं हो सका है। एसएनसीयू में सिर्फ 12 वार्मर हैं जबकि यहां जरूरत 30 से अधिक वार्मर की है। वार्मर की कमी के कारण एक-एक वार्मर पर चार-चार बच्चों को रखना पड़ता जिससे एक दूसरे को संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। वार्मर की मांग लगातार की जा रही है लेकिन अभी तक इसकी व्यवस्था नहीं हो सकी है।
इसी तरह मौजूदा पीआईसीयू को अपग्रेड करने के लिए 10 करोड़ का प्रस्ताव मेडिकल कालेज ने भेजा है जिसे अभी तक स्वीकृत नहीं किया गया है।
वर्ष 2017 में बीआरडी मेडिकल कालेज में नवजात शिशुओं की भर्ती व मृत्यु का विवरण (12 अगस्त 2017 )
month | admission | death | |
jan | 661 | 210 | |
feb | 631 | 180 | |
mar | 822 | 227 | |
apr | 873 | 186 | |
may | 943 | 190 | |
june | 837 | 208 | |
july | 990 | 193 | |
august | 507 | 133 | |
Total | 6264 | 1527 |
इंसेफेलाइटिस इलाज के लिए 40 करोड़ देने में भी कंजूसी कर रही है केन्द्र व यूपी की सरकार
बीआरडी मेडिकल कालेज का दौरा करने वाले केन्द या राज्य सरकार के मंत्री एक बात जरूर कहते हैं कि इंसेफेलाइटिस मरीजों के इलाज के लिए धन की कमी नहीं होने दी जाएगी। साथ ही वे मेडिकल कालेज के प्राचार्य व अन्य ओहदेदारों को निर्देश देते हैं कि इंसेफेलाइटिस मरीजों के इलाज के लिए जरूरी धन का प्रस्ताव भेजें।
बीआरडी मेडिकल कालेज पिछले चार-पांच वर्षों से केन्द्र और प्रदेश सरकार को जो प्रस्ताव भेजता रहा है उसमें सर्वाधिक इस बात के हैं कि इंसेफेलाइटिस मरीजों के इलाज में लगे चिकित्सकों, नर्स, वार्ड ब्वाय व अन्य कर्मचारियों का वेतन, मरीजों की दवाइयां तथा उनके इलाज में उपयोगी उपकरणों की मरम्मत के लिए एकमुश्त बजट आवंटित की जाए। यह बजट एक वर्ष का करीब-करीब 40 करोड़ आता है लेकिन दोनों सरकारें आज तक यह नहीं कर सकी हैं।
14 फरवरी 2016 को मेडिकल कालेज के प्राचार्य द्वारा महानिदेशक चिकित्सां एवं स्वास्थ सेवाएं को इंसेफेलाइटिस के इलाज के मद में 37.99 करोड़ मांगे थे। महानिदेशक ने इस पत्र को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के निदेशक को भेज कर इस बजट को बजट को एनएचएम की राज्य की वार्षिक कार्ययोजना में शामिल करने का अनुरोध किया था लेकिन यह आज तक नहीं हो पाया। इस बजट में 100 बेड वाले इंसेफेलाइटिस वार्ड में स्थित पीआईसीयू को लेवल 3 आईसीयू में अपग्रेड करने और उसके लिए 149 मानव संसाधान के लिए भी 10 करोड़ का बजट सम्मिलित था। इस बजट को न दिए जाने के कारण ही इंसेफेलाइटिस मरीजों के इलाज में दिक्कतें बरकरार हैं।
यही यह सभी चिकित्सक, कर्मचारी संविदा पर हैं और नियमित कर्मियों के मुकाबले वेतन कम हैं। इन्हें नियमित किए जाने और वेतन बढ़ाने की मांग भी निरन्तर होती रहती है। वेतन कम होने से खासकर चिकित्सक इन वार्डों में ज्वाइन करने के लिए ज्यादा उत्साहित नहीं रहते और वेहतर अवसर मिलते ही नौकरी छोड़ देते हैं। इस कारण भी स्वीकृत पदों के मुकाबले चिकित्सकों व अन्य पद रिक्त रहते हैं जिससे इलाज में दिक्कत आती है।
ऐसा नहीं है कि यह पत्र पहली बार लिखा गया है। वर्ष 2010 से ऐसे पत्रों की संख्या सैकड़ों तक पहुंच गई है। पूर्व प्राचार्य प्रो केपी कुशवाहा, आरके सिंह, आरपी शर्मा के कार्यकाल में तमाम ऐसे प्रस्ताव भेजे गए लेकिन अमल नहीं हुआ। प्रो केपी कुशवाहा अपने कार्यकाल में चिकित्सकों व कर्मियों का वेतन बढ़वाने में जरूर कामयाब हुए लेकिन इसके लिए उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी। उन्हें 100 बेड के इंसेफेलाइटिस वार्ड के लिए 239 मानव संसाधन की स्वीकृति के लिए बहुत भाग दौड़ करनी पडी और आखिरकार पदों पर कटौती करते हुए 214 पदों पर ही नियुक्ति की स्वीकृति दी गई।
ये हालात बताते हैं कि मंत्रियों-अफसरों के दावों और उन्हें अमली जामा पहनाने में कितना फर्क हैं।
सीएचसी, पीएचसी का हाल
पूर्वांचल के जिला अस्पतालों के अलावा 100 पीएचसी, सीएचसी को इंसेफेलाइटिस ट्रीटमेंट सेंटर (ईटीसी) बनाया गया है और मरीजों को ले जाने वाली एम्बुलेंस सेवा को भी कहा गया है कि वे पहले मरीजों को यही पर ले जाएं। यहां से मरीज रेफर होकर ही बीआरडी मेडिकल कालेज आए न कि सीधे। यह व्यवस्था बीआरडी मेडिकल कालेज में मरीजों की भीड़ को नियंत्रित करने के उद्देश्य से किया गया है लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि यह सिर्फ घोषणा भर है। पीएचसी-सीएचसी पर इंसेफेलाइटिस मरीजों के इलाज के लिए जरूरी सुविधाएं नहीं हैं। सीएचसी पर इंसेफेलाइटिस के लिए पांच बेड और पीएचसी पर दो बेड आरक्षित किए गए हैं लेकिन यहां पर चिकित्सकों की बहुत कमी है और इसे 24 घंटे संचालित करना मुश्किलहो रहा है। ईटीएस के लिए चिन्हित किए गए पीएचसी-सीएचसी की ओर से इलाज के लिए जरूरी संसाधनों की मांग की गई तो उनसे कहा गया कि जो संसाधन है, उसी से काम चलाया जाए। यहां पर मरीज इलाज के लिए नहीं आ रहे हैं। इस वर्ष 9 अगस्त तक चार जिलों के सीएचसी-पीएचसी पर सिर्फ मरीज ही इलाज के लिए आए। इसमें से अधिकरत को मेडिकल कालेज रेफर कर दिया गया। गोरखपुर के भटहट सीएचसी पर इस वर्ष एक जनवरी से 15 अगस्त तक इंसेफेलाइटिस का एक भी मरीज इलाज के लिए नहीं आए। ये स्थिति बताती है कि इंसेफेलाइटिस मरीजों का सीएचसी-पीएचसी पर अभी तक भरोसा नहीं बन पाया है।
इंसेफेलाइटिस से विकलांग बच्चों का इलाज व पुनर्वास का सवाल
एक अनुमान है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के 10 जिलों में जेई /एइएस से मानसिक व शारीरिक रूप से विकलांग हुए बच्चों की संख्या 10 हजार से अधिक होगी। जेई /एइएस के केस में एक तिहाई बच्चे मानसिक और शारीरिक विकलांगता के शिकार हो जाते हैं। बाल आयोग ने कई बार प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि वह विकलांग बच्चांे का सर्वे कराए और उनके इलाज, शिक्षा, पुनर्वास के लिए ठोस कार्य किए जाएं लेकिन यह कार्य अभी तक नहीं हो सका है। हाईकोर्ट के आदेश से यहां पर मनोविकास केन्द्र शुरू हुआ। बाद में इंसेफेलाइटिस से विकलांग हुए बच्चों की चिकित्सकीय सहायता और उनके पुनर्वास के लिए पीएमआर विभाग (फिजिकल, मेडिसिन एंड रिहैबिलेटेशन) बन तो गया है कि लेकिन समय से धन आवंटन नहीं होने से यह सुचारू रूप से संचालित नहीं हो पा रहा है। यहां इस समय कार्य कर रहे 11 चिकित्सा कर्मियों को 27 माह से वेतन नहीं मिल सका है। वेतन नहीं मिलने के कारण यहां तैनात 3 चिकित्सक नौकरी छोड़ कर जा चुके हैं।
इस विभाग में बड़ी संख्या में दिव्यांग आते हैं। वर्ष 2011-12 से इस वर्ष तक यहां पर इलाज कराने 21210 लोग आए। यह संख्या देखते हुए इस विभाग को और मजबूत करने की जरूरत है लेकिन केन्द्र व राज्य सरकार इसकी जिम्मेदारी एक दूसरे पर ठेल रहे हैं जिसके कारण इसके बंद होने की नौबत आ गई है।
वर्ष 2012 से इंसेफेलाइटिस से विकलांग और मृत बच्चो के परिवारीजनों को क्रमश एक लाख और 50 हजार रुपए की आर्थिक मदद शुरू की गई है लेकिन 1978 से अब तक इस बीमारी से विकलांग बच्चों के बारे में कोई ठोस योजना नहीं है। सामाजिक न्याय मंत्रालय के अधीन कार्य करने वाले राष्ट्रीय बहुविकलांग व्यक्ति अधिकारिता संस्थान, चेन्नई द्वारा संचालित कम्पोजिट रीजनल सेंटर को बीआरडी मेडिकल कालेज के एक भवन में शुरू किया गया लेकिन एक वर्ष के अंदर ही यहां के स्टाफ और संसाधनों में काफी कमी कर दी गई। इस संस्थान को स्थापित करने के लिए अभी तक भूमि भी दिलाने में राज्य सरकार विफल रही है।
सूअर बाड़ों के प्रबन्धन का सवाल
जापानी इंसेफेलाइटिस और इन्टेरोवायरस के सबसे बड़े स्रोत सूअर होते हैं। जिन देशों ने इंसेफेलाइटिस पर काबू पाया है उन्होंने दो कार्य मुख्य रुप से किए। बच्चों को टीके लगाकर जापानी इंसेफेलाइटिस से प्रतिरक्षित किया और सुअरबाड़ों को आबादी से दूर हटाकर उन्हें बेहतर तरीके से प्रबंधन किया जिससे सुअर पालकों की आजीविका प्रभावित न हो और आबादी में जहां-तहां विचरते सुअर बीमारी को न फैला पाएं। इन देशों में सुअरबाड़ों के निर्माण, उनका पालन पोषण, उनकी चिकित्सा जांच, टीकाकरण के लिए कड़े मापदण्ड बनाए गए हैं और उसका पालन होता है।
अपने देश में सूअर पालन के पेशे से दलित समुदाय जुड़ा हुआ है। हजारों लोगों की आजीविका इससे जुड़ी हुई है इसलिए सूअर पालन को बंद कराना संभव नहीं है। लेकिन इंसेफेलाइटिस प्रभावित जिलों में सुअरबाड़ों के प्रबन्धन का कार्य कर जापानी इंसेफेलाइटिस के रोकथाम में महत्वपूर्ण प्रगति प्राप्त की जा सकती है। गोरखपुर मंडल के चार जिलों में 1800 से अधिक सुअर बाड़े चिन्हित किए गए हैं। सुअर पालकों को प्रशिक्षण के दिशा में भी कोई काम नहीं हुआ है जबकि उन्हें प्रशिक्षण देने से वे स्वंय सुअर पालन में सुधार कर इस रोग के रोकथाम में प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं।
जल जनित इंसेफेलाइटिस की रोकथाम
जल जनित इंसेफेलाइटिस से बचने के लिए जरूरी है कि पीने का पानी शुद्ध हो और पेयजल स्रोत का किसी भी तरह से वह शौचालयों, नाले या गंदे पानी से सम्पर्क न हो। कम गहराई वाले हैंडपम्प आस-पास बने शौचालय, नाले या गन्दे पानी से भरे गड्ढों से दूषित हो सकते हैं। इसलिए सलाह दी जाती है कि लोग गहराई वाले ( 80 फीट से अधिक) वाले हैंडपम्प के ही पानी का प्रयोग करें। सरकारी इंडिया मार्का हैण्डपम्प के पानी के प्रदूषित होने की संभावना कम रहती है, इसलिए इसका प्रयोग करने की सलाह दी जाती है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में एक तो इंडिया मार्का हैंडपम्प कम हैं और दूसरे बड़ी संख्या में वे खराब हैं। जुलाई माह में हमने यह रिपोर्ट दी थी कि हाई रिस्क वाले गोरखपुर जिले के खोरबार ब्लाक के पांच गांवों 51 इंडिया मार्का हैण्डपम्प खराब हैं। यह एक नजीर है कि गांवों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने की क्या स्थिति है। गोरखपुर सहित कई जिलों के गांवों में पाइप लाइन से पेयजल आपूर्ति की योजना लागू की जा रही है लेकिन बिजली कनेक्शनों से इसे न जोड़ने से अधिकतर चालू नहीं हो पाए हैं।
इसी तरह शौचालयों के निर्माण में भी सरकार फिसड्डी साबित हुई है। जो शौचालय बने हैं, वह भी प्रयोग में नहीं लाए जाते। इसका प्रमुख कारण है कि पानी की अनुपलब्धता। विशेषज्ञों का मत है कि शौचालयों में पानी और फलश की सुविधा बिना वे किसी काम के नहीं होते।
नोटिफाएबल डिजीज
जेई /एइएस के जो भी आंकड़े हमारे पास उपलब्ध हैं वह सरकारी अस्पतालों के आंकड़े हैं। निजी अस्पतालों के आंकड़े इसलिए मिल नहीं पाते क्योंकि इस बीमारी को नोटिफाएबल डिजीज के रूप में अधिसूचित नहीं किया गया है। निजी अस्पतालों से इस बीमारी के मरीजों की संख्या मिलने के बाद ही इसकी व्यापकता का सही -सही अनुमान लग सकता है। चीन ने जेई को नोटिफाएबल डिजीज के रूप में अधिसूचित किया है और इसके आंकड़े वर्ष 2007 से ही आन लाइन उपलब्ध है। कुछ महीने पहले केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्ढा ने लोकसभा में कहा कि जेई /एइएस को नोटिफाएबल डिजीज घोषित किया जाएगा। इस सम्बन्ध में एक आर्डर भी जारी किया गया है लेकिन अभी भी निजी अस्पतालों से इसके आंकड़े नहीं मिल रहे हैं। इस बीमारी के सर्विंलास की स्थिति भी बहुत खराब है।
रोकथाम पर नहीं, इलाज पर जोर
जेई /एइएस की रोकथाम पर सरकार का शुरू से ही कम जोर रहा है। जोर इलाज तक केन्द्रित है। सब जानते हैं कि इंसेफेलाइटिस की बीमारी में मृत्यु व विकलांगता की दर को किसी भी सूरत में बहुत ज्यादा कम नहीं किया जा सकता। विकसित देश भी मृत्यु दर को कम करने में नाकामयाब रहे हैं जबकि उनका स्वास्थ्य तंत्र का ढांचा बेहद मजबूत है। भारत जैसे कमजोर स्वास्थ्य ढांचे के बलबूते जापानी इंसेफेलाइटिस या एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम से मृत्यु दर कम करना तो और कठिन है। इस स्थिति में इस बीमारी को खत्म करने के लिए इस रोग से बचाव के उपायों पर जोर देना होगा। कोशिश करनी होगी कि इस बीमारी से कम से कम लोग प्रभावित हों। इसके लिए जरूरी है कि इंसेफेलाइटिस प्रभावित इलाकों में प्रत्येक नागरिक को शुद्ध पेयाजल की गारंटी दी जाए और हर घर में शौचालय की व्यवस्था की जाए। शुद्ध पेयजल के लिए पाइप वाटर सप्लाई व अन्य उपायों को अपनाने की जरूरत है। यह तभी संभव है जब इंसेफेलाइटिस के खात्में के लिए युद्ध स्तर पर अभियान चलाए जाएं।
मरने वाले गरीब हैं इसलिए हंगामा नहीं
जेई /एइएस से मरने वाले बच्चे और लोग चूंकि गरीब परिवार के हैं इसलिए इस मामले में चारों तरफ चुप्पी दिखाई देती है। डेंगू या स्वाइन फलू से दिल्ली और पूना में कुछ लोगों की मौत पर जिस तरह हंगामा मचता है उस तरह की हलचल इंसेफेलाइटिस से हजारों बच्चांे की मौत पर कभी नहीं हुई। एक स्वंयसेवी संगठन द्वारा गोरखपुर मण्डल में इंसेफेलाटिस से विकलांग हुए बच्चों के बारे में कराए गए अध्ययन में पाया गया कि जो बच्चे इस बीमारी से प्रभावित हुए उनमें से 74 फीसदी की आमदनी दो हजार रूपए महीने से कम थी और 83 फीसदी ग्रामीण क्षेत्र के थे। ये बच्चे मजदूर और छोटे किसानों के परिवार के थे। गरीबी के कारण ये लोग इस बीमारी से बचाव के उपाय नहीं कर पाते हैं और इसके सबसे आसान शिकार बन जाते हैं। गरीबी के कारण ये इंसेफेलाइटिस के आसान शिकार होने के साथ-साथ हमारी राजनीति के लिए भी उपेक्षा के शिकार है।
नकली देशभक्ति और चीनी वैक्सीन
देशभक्ति के नाम पर चीन निर्मित वस्तुओं के बहिष्कार का अभियान चला रहे लोगों को शायद यह नहीं पता है कि पिछले एक दशक से चीन में बना टीका ही देश के लाखांे बच्चों को जापानी इंसेफेलाइटिस जैसी घातक बीमारी से बचा रहा है। वर्ष 2006 और 2010 में इंसेफेलाइटिस प्रभावित जिलों में करोड़ों बच्चों को यही टीका लगाया गया और इसके अच्छे प्रभाव को देखते हुए पिछले तीन वर्ष से 150 जिलों में दो वर्ष तक के 10 करोड़ से अधिक बच्चों को यह टीका दो बार लगाया जा रहा है।
वर्ष 2005 में डेढ़ हजार से अधिक बच्चों के जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम एईएस से मौत के बाद मचे हंगामे के बाद यूपीए-1 सरकार ने बच्चों को जापानी इंसेफेलाइटिस का टीका लगाने का निर्णय लिया। टीके चीन से मंगाए गए। वर्ष 2006 में चार राज्यों 11 जिलों में 16.83 मिलियन बच्चों को और 2007 में नौ राज्यों के 27 जिलों में 18.20 मिलियन बच्चों को टीका लगाया गया। वर्ष 2008 में 22 और 2009 में 30 जिलों में एक से 15 वर्ष के बच्चों को सिंगल डोज टीका लगाया गया।
2006 और 2009 तक जापानी इंसेफेलाइटिस का टीका लगने का बहुत अच्छा परिणाम मिला और इसके केस काफी कम होते गए। अब इंसेफेलाइटिस के कुल मामलों में जापानी इंसेफेलाइटिस के केस 6 से 7 फीसदी ही रह गए हैं।
इसके बाद वर्ष 2011 में 181 जिलों में 16 से 18 महीने के बच्चों को नियमित टीकाकरण के तहत चीन निर्मित यह टीका सिंगल डोज दिया गया।
इस वैक्सीन से जापानी इंसेफेलाइटिस की रोकथाम में अच्छे नतीजे मिलने के बाद केन्द्र सरकार ने वर्ष 2013 में इंसेफेलाइटिस प्रभावित जिले में प्रत्येक बच्चे को यह टीका लगाने का निर्णय लिया और जापानी इंसेफेलाइटिस के टीके को नियमित टीकाकरण में शामिल कर लिया। अब शून्य से दो वर्ष के बच्चों को दो बार यह टीका लगता है। पहली बार नौ से 12 माह के बीच और दूसरा 18 से 24 माह के बीच। स्वास्थ्य कार्यकर्ता गांवों में जाकर बच्चों को यह टीके लगाते हैं। उत्तर प्रदेश के इंसेफेलाइटिस प्रभावित 36 जिलों में यह टीका बच्चों को लगाया जा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक एक करोड़ से भी अधिक बच्चों को चीनी आयातित टीका लगाकर उन्हें जापानी इंसेफेलाइटिस से प्रतिरक्षित किया जा रहा है। पूरे देश में करीब 11 करोड़ बच्चों को इस वैक्सीन से प्रतिरक्षित किया जा रहा है।
चीन का यह वैक्सीन टिश्यू कल्चर पर बना है। इसे लाइव एटीनेयूटेड एसए 14-14-2 कहते हैं जिसे चीन की चेगदू इंस्टीट्यूट आफ बायोलाजिकल प्रोडक्ट्स कम्पनी बनाती है। चीन निर्मित यह वैक्सीन बेहद सस्ता है और इसकी एक डोज की कीमत 20-22 रूपए ही है। चीन ने यह वैक्सीन वर्ष 1988 में विकसित किया था। चीन न सिर्फ अपने देश के बच्चों को यह वैक्सीन देता है बल्कि भारत, नेपाल, दक्षिण कोरिया, उत्तर कोरिया, श्रीलंका, कम्बोडिया, थाईलैण्ड आदि देशों को भी देता है। इस वैक्सीन पर हुए अध्ययन के मुताबिक सिंगल डोज पर इसकी सफलता दर 90 फीसदी तक और डबल डोज पर 98 प्रतिशत पायी गई है।
इतना सस्ता टीका मिलने के बावजूद हमारे देश की सरकार ने टीके लगाने का निर्णय लेने में काफी देर की नही ंतो सैकड़ों बच्चों की जान बचायी जा सकती थी।
भारत में 2013 में बना जेई का देसी वैक्सीन
वर्ष 2013 में भारत में जेई का देशी वैक्सीन बना। यह वैक्सीन हैदराबाद स्थित निजी क्षेत्र की संस्था भारत बायोटेक इंटरनेशनल ने इंडियन कौंसिल आफ मेडिकल रिसर्च और नेशनल इंस्टीट्यूट आफ वायरोलाजी की मदद से तैयार किया। यह वैक्सीन कर्नाटक के कोलार जिले में वर्ष 1981 में जापानी इंसेफेलाइटिस के एक मरीज से प्राप्त जेई विषाणु के स्ट्रेन से तैयार किया गया है। इस वैक्सीन को अक्टूबर 2013 में लांच करने की घोषणा की गई लेकिन अभी देश की जरूरतों के मुताबिक यह वैक्सीन उत्पादित नहीं हो पा रही है। यही कारण है कि नियमित टीकाकरण में अभी चीन निर्मित वैक्सीन का ही उपयोग हो रहा है।
भारत में पहले संेटर रिसर्च इंस्टीट्यूट कसौली जेई के लिए माउस ब्रेन वैक्सीन बनाता था जो तीन डोज लगाया जाता था लेकिन इसका बड़ी संख्या में उत्पादन संभव नहीं था। भारत में बने वेरो सेल डिराईव्ड प्यूरीफाइड इनएक्टिवेटेड जेई वैक्सीन जेईएनवीएसी से यह संभावना बनी है कि आने वाले दिनों में देश जेई वैक्सीन के मामले में आत्मनिर्भर हो सकता है।
सामाजिक, आर्थिक पिछड़ापन और सरकारी स्वास्थ्य ढांचा
इंसेफेलाइटिस की सबसे अधिक मार सरयूपार का मैदानी क्षेत्र पर है। यह क्षेत्र सामाजिक, आर्थिक रूप से बहुत पिछड़ा है।
भौगोलिक रूप से सरयूपार क्षेत्र गोरखपुर, बस्ती, देवीपाटन मंडल और बिहार के पांच जिलों पश्चिमी चम्पारण, पूर्वी चम्पारण, गोपालगंज, सीवान और सारण यानि 19 जनपदों के सामाजिक, आर्थिक विकास के सूचकांक और स्वास्थ्य के ढांचे का विश्लेषण करें तो स्थिति और ज्यादा साफ हो जाती है।
इन 19 जिलों को हम सरयूपार मैदान क्षेत्र और आजमगढ मंडल का नाम दे सकते हैं। इन 19 जिलों की आबादी 6.14 करोड़ है जिसमें बच्चों की संख्या 99 लाख से ज्यादा है। यह कुल जनसंख्या का 16 फीसदी है। इस इलाके का जनसंख्या घनत्व 1056 और साक्षरता 65.2 है। प्रति दस लाख आबादी पर उद्योगों की संख्या 3.49 है।
अब जरा स्वास्थ्य ढांचे पर नजर डाले। इस इलाके में एक लाख की आबादी पर असपताल और डिस्पेन्सरी 29.37 है जबकि मध्य यूपी में यह 41.04 और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 32.24 है। एक लाख की आबादी पर इस इलाके के हिस्से में आधुनिक चिकित्सा के सिर्फ 2.68 बेड आते है। इस इलाके में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र 182, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र 250 और जिला अस्पताल 16 है।
उपरोक्त आंकड़े बताते हैं इस इलाके में स्वास्थ्य ढांचा बेहद कमजोर है। इस कारण लोग निजी अस्पतालों पर इलाज पर निर्भर होते हैं और उनकी आय का बड़ा हिस्सा इलाज पर खर्च हो जाता है। खुद सरकार मानती है कि स्वास्थ्य व चिकित्सा पर अपनी आय का 70 फीसदी धन खर्च करने के कारण हर वर्ष 6.30 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे आ जाते हैं। ऐसा इसलिए है कि देश की सरकार सकल घेरलू उत्पाद का सिर्फ 1.01 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च कर रही है। बहुत से छोटे देश भी स्वास्थ्य पर भारत से ज्यादा खर्च कर रहे हैं।
स्वास्थ्य को सिर्फ चिकित्सा से जोड़ कर नहीं देखना चाहिए बल्कि इसका सीधा सम्बन्ध गरीबी और सामाजिक-आर्थिक कारण भी हैं। यह क्षेत्र बहुत गरीब है और लोग स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल, स्वच्छता पर खर्च करने की स्थिति में नहीं है। यदि गरीबी कम नहीं होगी और सभी लोगों को बेहतर रोजगार, स्वच्छ पेयजल, शौचालय उपलब्ध नहीं होगा तो देश को स्वस्थ रखना संभव नहीं हो पाएगा।
(मूल रूप से यह लेख रामजी यादव के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘ गांव के लोग ‘ के जून-जुलाई के अंक में प्रकाशित हुआ था. इसे अपडेट कर फिर से प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि इंसेफेलाइटिस के सभी पहलुओं को समझने में आसानी हो )
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