गीतेश सिंह
15 नवम्बर 2017 को लगभग नब्बे वर्ष की आयु में हिंदी के महान कवि कुँअर नारायण की सांसों ने उनका साथ छोड़ दिया और कुँवर जी ने हमारा | ‘अबकी बार वृहत्तर लौटने ’ की उम्मीद में हम उन्हें अपने साथ लिए ‘मनुष्यतर’ होने की राह पर चलते रहेंगे |
विज्ञान विषय की पढ़ाई से साहित्य की दुनिया की ओर रुख करते हुए कुँअर जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया | ‘चक्रव्यूह’ से शुरू हुई उनकी काव्य-यात्रा अनेकानेक व्यूह चक्रों से गुजरती, खुद को और साथ ही साथ साहित्य-समाज को समृद्ध करती आज काल गति के सम्मुख विराम को प्राप्त हुई | कुँअर नारायण के प्रकाशित महत्वपूर्ण कविता संग्रह हैं-चक्रव्यूह, परिवेश: हम-तुम, अपने सामने, कोई दूसरा नहीं, इन दिनों | आत्मजयी और बाजश्रवा के बहाने उनके खंड काव्य हैं | एक कहानी संग्रह ‘आकारों के आस-पास’ और ‘आज और आज से पहले’ तथा ‘देश काल’ उनकी आलोचनात्मक पुस्तकें हैं |
‘कोई दूसरा नहीं’ के लिए कुँअर जी 1995 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुए, 2006 में आपको शलाका सम्मान, 2008 में ज्ञानपीठ और 2009 में पद्मभूषण पुरस्कार प्राप्त हुआ |
कुँअर नारायण सबके हिताहित को सोचने वाले कवि हैं | आज के इस मुश्किल समय में जो कहने-सुनने पर ही पाबंदियों का दौर है, मनुष्यता ही सर्वाधिक हताहत है, कुँअर जी का यूँ चले जाना गहरा अवसाद तो पैदा करता ही है, महत्तर जिम्मेदारियाँ भी सौंप जाता है | समकालीन जनमत के संपादक रामजी राय इसीलिए कुँअर नारायण को याद करते हुए कहते हैं-‘कुंअर नारायण अब हमारे बीच नहीं रहे। लंबी बीमारी के बाद सांस ने उनका साथ छोड़ दिया। हमने भी उनका कितना हाथ गहा, हमें अपने से पूछना चाहिए। एक नृशंस समय में कुंअर नारायण के होने का मतलब हमारे बीच मानुष्यता के रखवाले की आवाज़ का होना था। मुक्तिबोध ने 1964 में ही उनकी आवाज़ और महत्त्व को पहचाना था। लिखा था कि कुंअर नारायण मूलतः आदर्शवादी कवि हैं। फलतः उनके हृदय में एक अनबन है, एक बेबनाव है…..कुंवर नारायण केवल मनुष्य बनना चाहता है। यही उसका रोग है, यही उसकी समस्या है। …..कुंअर नारायण की कविता में अंतरात्मा की पीड़ित विवेक-चेतना और जीवन की आलोचना है।”
यह विवेक चेतना और जीवन की आलोचना कुंअर नारायण की कविताओं में आजीवन बनी रही |
कुंअर नारायण को उनकी ही कुछ पंक्तियां याद करते हुए श्रद्धांजलि-
अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूँगा
घर से निकलते
सड़कों पर चलते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं
अगर बचा रहा तो कृतज्ञतर लौटूँगा
अबकी बार लौटा तो हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूँगा
जानता हूँ कि मैं
दुनिया को बदल नहीं सकता,
न लड़ कर
उससे जीत ही सकता हूँ
हाँ लड़ते-लड़ते शहीद हो सकता हूँ
और उससे आगे
एक शहीद का मकबरा
या एक अदाकार की तरह मशहूर…
लेकिन शहीद होना
एक बिलकुल फ़र्क तरह का मामला है
बिलकुल मामूली ज़िन्दगी जीते हुए भी
लोग चुपचाप शहीद होते देखे गए हैं
इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने झगड़ने को
पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा
और जीवन बीत गया
हम सब एक सीधी ट्रेन पकड़ कर
अपने अपने घर पहुँचना चाहते
हम सब ट्रेनें बदलने की
झंझटों से बचना चाहते
हम सब चाहते एक चरम यात्रा
और एक परम धाम
हम सोच लेते कि यात्राएँ दुखद हैं
और घर उनसे मुक्ति
सचाई यूँ भी हो सकती है
कि यात्रा एक अवसर हो
और घर एक संभावना
ट्रेनें बदलना
विचार बदलने की तरह हो
और हम सब जब जहाँ जिनके बीच हों
वही हो
घर पहुँचना
हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य !
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर – लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है !
हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान – किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक….
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक