डॉ. संदीप कुमार सिंह
कवि, समीक्षक,संस्कृतिकर्मी व पत्रकार कौशल किशोर का बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित ” वह औरत नहीं महानद थी ” पहला काव्य संग्रह है. यह संकलन दो खण्डों में विभक्त है . पहले खंड ‘ एक मुट्ठी रेत ‘ में 29 कविताएँ तथा दूसरे ‘ अनंत है यह यात्रा ‘ में 35 कविताएँ हैं . 176 पृष्ठ में फैले इस संकलन में अपने समय, समाज, संस्कृति और आसपास के जन जीवन का यथार्थ रूप में चित्रण हुआ है .
कौशल जी की कविताओं का कैनवास बहुत विस्तृत है. कवर पेज बहुत ही चित्ताकर्षक है और इस संग्रह की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि संग्रह में जितनी भी कविताएँ है वे कहाँ और कब छपीं इसका भी संदर्भ दिया गया है. ऐसा प्रायः किसी संग्रह में पहली बार देखा गया है । 1977 से लेकर 2015 तक की चुनिंदा कविताऍं यहाँ रखी गयी है । लगभग पाँच दशकों में फैली सृजन यात्रा को समेट पाना आसान नहीं है । जितनी कविताएँ इस संग्रह में हैं उससे ज्यादा तो अभी उनके पास पड़ी हैं । संकोची प्रवृत्ति होने के कारण उन्होंने छपने छपाने के प्रति कभी ध्यान भी नहीं दिया । उनके समकालीन कवियों,लेखकों की दर्जनों पुस्तकें छप चुकी हैं । कौशल जी बाजारवाद और खुद की ब्रांडिग से बहुत दूर रहे । वरन् क्या ऐसा होता कि साहित्य और संस्कृति की दुनिया में इतनी सक्रियता के बावजूद 65 वर्ष की उम्र में पहला संकलन आता । आजकल तो लोगों में कलम पकड़ते ही छपास के कीड़े लग जाते हैं ।
[box type=”shadow” ]◆वह औरत नहीं महानद थी (काव्य संग्रह)
◆रचनाकार- कौशल किशोर
◆प्रकाशक- बोधि प्रकाशन,जयपुर
पृष्ठ- 176 रु, मूल्य- 150 रुपये ।[/box]
कौशल जी बहुत ही बेहतरीन और जिंदादिल इंसान हैं । लखनऊ की साहित्यिक और सांस्कृतिक दुनिया में उनका बड़ा हस्तक्षेप है । मैंने एक बात निजी तौर पर महसूस की है कि कोई भी आयोजन हो वे तय समय से पहले पहुँचते हैं और पूरी निष्ठा के साथ सहभागिता भी करते है। अँधेरे से प्रतिबद्ध ये लोग, इस वक्त के बाद, नए दिन की शुरुआत, सुजानपुर गाँव के लड़के नाटक खेल रहे हैं, औरत और घर, राम सेवक की सिसकियाँ, उसकी जिंदगी में लोकतंत्र , दुनिया की सबसे सुंदर कविता आदि कविताएँ संग्रह को विशिष्ट बनाती हैं. बानगी के तौर पर ” लिख दूँ एक नारा दीवार पर ” कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –
दीवारें तटस्थ नहीं होती
ये साथ चलती हैं
सन्दर्भों के समानांतर
रेल की दो पटरियों की तरह
अपने सीने पर
नफरत की गहरी लकीर लिए
रात के जवान होते ही
समय की गंध के साथ
फिर महक उठती हैं
ये दीवारें।
(प्रारूप-2,1981)
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