गोरखपुर। गोरखपुर और आस-पास के एक दर्जन जिलों में व्यापक टीकाकरण अभियान के बावजूद जापानी इंसेफेलाटिस रोगियों की संख्या इस वर्ष काफी बढ़ गई है. बीआरडी मेडिकल कालेज में अभी तक जापानी इंसेफेलाइटिस के 110 केस रिपोर्ट हुए हैं. इसमें बिहार के 23 जेई रोगी भी हैं।
इंसेफेलाइटिस के कुल मामलों में जापानी इंसेफेलाइटिस का 14 फीसदी हो जाना सभी को चौंका रहा है.
वर्ष 2005 में डेढ़ हजार से अधिक बच्चों की जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम (एईएस) से मौत के बाद मचे हंगामे के बाद यूपीए-1 सरकार ने बच्चों को जापानी इंसेफेलाइटिस का टीका लगाने का निर्णय लिया. टीके चीन से मंगाए गए. वर्ष 2006 में चार राज्यों 11 जिलों में 16.83 मिलियन बच्चों को और 2007 में नौ राज्यों के 27 जिलों में 18.20 मिलियन बच्चों को टीका लगाया गया. वर्ष 2008 में 22 और 2009 में 30 जिलों में एक से 15 वर्ष के बच्चों को सिंगल डोज टीका लगाया गया.
2006 और 2009 तक जापानी इंसेफेलाइटिस का टीका लगने का बहुत अच्छा परिणाम मिला और इसके केस काफी कम होते गए.
इसके बाद वर्ष 2011 में 181 जिलों में 16 से 18 महीने के बच्चों को नियमित टीकाकरण के तहत चीन निर्मित यह टीका सिंगल डोज दिया गया.
केन्द्र सरकार ने वर्ष 2013 में इंसेफेलाइटिस प्रभावित जिलों में प्रत्येक बच्चे को यह टीका लगाने का निर्णय लिया और जापानी इंसेफेलाइटिस के टीके को नियमित टीकाकरण में शामिल कर लिया. अब शून्य से दो वर्ष के बच्चों को दो बार यह टीका लगता है. पहली बार नौ से 12 माह के बीच और दूसरा 18 से 24 माह के बीच. स्वास्थ्य कार्यकर्ता गांवों में जाकर बच्चों को यह टीके लगाते हैं.
योगी सरकार ने वर्ष 2017 में सत्त में आने के बाद 95 लाख बच्चों को जेई का टीका लगाने का दावा किया था. इस वर्ष भी दस्तक अभियान के पहले चरण में 38 जिलों में घर-घर जाकर बच्चों को जापानी इंसेफेलाइटिस का टीका लगाया गया. हर जिले में अभियान को 100 प्रतिशत सफल होने का दावा किया गया. इंसेफेलाइटिस का सीजन शुरू होने के कुछ समय बाद ही इंसेफेलाटिस का ग्राफ काफी हद तक गिर जाने के दावे भी किए गए लेकिन जनवरी से सितम्बर तक नौ महीने में जापानी इंसेफेलाइटिस के 110 केस मिलने से इन सभी दावों की हवा निकल गई है.
AES case (02.10.2018 )
DISTRICT | Total Case | JE+ | dengue + | scrub Typhus + |
GORAKHPUR | 199 | 36 | 10 | 64 |
MAHRAJGANJ | 62 | 04 | 01 | 18 |
KUSHINAGR | 114 | 14 | 05 | 22 |
DEORIA | 120 | 13 | 11 | 41 |
BASTI | 45 | 03 | 03 | 12 |
SIDDARTHNAGAR | 61 | 12 | 04 | 18 |
SANTKABEERNAGAR | 53 | 02 | 02 | 19 |
MAU | 13 | — | — | 05 |
BALRAMPUR | 06 | — | — | 02 |
GONDA | 03 | 01 | — | 01 |
GHAZIPUR | 03 | — | — | 01 |
BAALLIA | 02 | — | — | 01 |
AZAMGARH | 02 | 01 | — | 01 |
BIHAR | 80 | 23 | 04 | 12 |
NEPAL | 03 | 01 | — | 01 |
Total | 766 | 110 | 40 | 218 |
बीआरडी मेडिकल कालेज में एक जनवरी से दो अक्टूबर तक इंसेफेलाइटिस के 766 मरीज भर्ती हुए. इन मरीजों की जांच में 110 जापानी इंसेफेलाइटिस से ग्रसित पाए गए. डेंगू के 40 और स्क्रब टाइफस के 218 मरीज पाए गए. ये मरीज गोरखपुर, देवरिया, कुशीनगर, महराजगंज, बस्ती, संतकबीरनगर, सिद्धार्थनगर, मउ, बलिया, गाजीपुर, आजमगढ़, बलरामपुर, गोंडा के अलावा बिहार के हैं. नेपाल से इंसेफेलाइटिस के 3 मरीज भर्ती हुए जिसमें से एक में जापानी इंसेफेलाइटिस की पुष्टि हुई. बिहार के 80 मरीजों में से 23 में जापानी इंसेफेलाइटिस की पुष्टि हुई है.
जापानी इंसेफेलाइटिस के सर्वाधिक केस गोरखपुर जिले से पाए गए हैं. गोरखपुर जिले में जेई के 36 केस (कुल केस का 32 फीसदी) पाए गए हैं. इसके अलावा कुशीनगर, देवरिया, सिद्धार्थनगर में जेई के अधिक केस मिले हैं.
बीआरडी मेडिकल कालेज में भर्ती हुए 766 इंसेफेलाइटिस मरीजों में जापानी इंसेफेलाइटिस के मरीजों का प्रतिशत 14 फीसदी से अधिक है. जापानी इंसेफेलाइटिस मरीजों में 23 बिहार के और एक नेपाल का है। यदि इन्हें अलग कर दिया जाय तब भी उत्तर प्रदेश के 13 जिलों में अब तक जेई के 86 केस मिले जो कुल मरीजों का 12.59 फीसदी हैं.
पिछले पांच वर्षों में सितम्बर माह तक जेई केस का तुलनात्मक अध्यन करें तो इस वर्ष मरीजों की संख्या बढ़ती नजर आ रही है। वर्ष 2013 में जेई के 99, 2014 में 75, 2015 में 95, 2016 में 119 और 2017 में 83 केस पाए गए थे।
यह तथ्य साफ तौर पर इशारा कर रहे हैं कि टीकाकरण के 100 फीसदी लक्ष्य पाने के दावों पर संदेह किया जाना चाहिए.
क्या है जापानी इंसेफेलाइटिस
वर्ष 1978 में गोरखपुर में जापानी इंसेफेलाइटिस का पहला केस पाया गया. जापानी इंसेफेलाइटिस का प्रकोप सबसे पहले 1871 में जापान में हुआ था. वर्ष 1925 में इसके विषाणु की पहचान की गई. 1935 में इसका नाम जापानी इंसेफेलाइटिस दिया गया. जापान के अलावा कोरिया, चीन, फिलीपीन्स, ताईवान, जावा, सुमात्रा, म्यांमार, श्रीलंका आदि आदि देशों में जापानी इंसेफेलाइटिस के केस सामने आए.
भारत में 1952 में महाराष्ट के नागपुर और तमिलनाडू के चिंगलपेट में जापानी इंसेफेलाइटिस के एंटीबाडीज पाए गए. 1955 में तमिलनाडू और पांडिचेरी में इसकी उपस्थिति पता चली.
1956 में मच्छर में और 1958 में मनुष्य में जेई वायरस आइसोलेट किया गया. वर्ष 1973 , 1975 और 1976 में पश्चिम बंगाल के बांकुरा व वर्दवान जिले में जापानी इंसेफेलाइटिस का आउटब्रेक हुआ. वर्ष 1978 में देश के कई हिस्सों में जेई का आउटब्रेक हुआ। इसी वर्ष चार ब्रेन सैम्पल में जेई वायरस की पुष्टि हुई. इसी वर्ष गोरखपुर और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में जापानी इंसेफेलाइटिस महामारी के तौर पर प्रकट हुआ. यूपी में 1072 लोगों की जान गई. गोरखपुर के एक मरीज के ब्रेन टिश्यू में जेई वायरस आइसोलेट हुआ.
जापानी इंसेफेलाइटिस पशुओं और पक्षियों से मनुष्यों में फैलने वाला रोग है जिसमें मच्छर अहम भूमिका निभाते हैं. मादा मच्छर चिड़ियों, बत्तखों व सुअर से रक्त चूसने के दौरान उनमें मौजूद जापानी इंसेफेलाइटिस का वायरस लेती है. फिर यह मच्छर मनुष्य को काटता है तो वह जापानी इंसेफेलाइटिस रोग से ग्रसित हो जाता है. यह विषाणु मनुष्य से मनुष्य में स्थानान्तरित नहीं होता है. मनुष्य में इस रोग का इन्क्यूबेशन पीरियड 5 से 15 दिन का होता है.
अब तक मच्छरों की 12 प्रजातियों में जेई के वायरस पाए गए हैं. इनमें क्यूलेक्स ट्राइटेनिओरिंकस और क्यूलेक्स विश्नोई नाम का मच्छर सबसे अधिक लोगों को संक्रमित करता है. यह मच्छर धान के खेतों में, गंदे पानी वाले गड्ढों, तालाबों में पाया जाता है और यह पांच किलोमीटर की परिधि तक विषाणु फैला पाने में सक्षम होता है. यह विषाणु मच्छर से उसके लार्वा में भी पहुंच जाता है और इस तरह इसका जीवन चक्र चलता रहता है. ये मच्छर सुबह और शाम को खूब सक्रिय रहते हैं.
मच्छरों के काटने से यह विषाणु अन्य जीवों में पहुंचता है. मच्छर के काटने से सुअर में जब जेई का विषाणु पहुंचता है तो यह अपने शरीर में विषाणुओं की संख्या को बढ़ा देता है. इस कारण सुअर को जेई वायरस को एम्लीफायार होस्ट कहते हैं. खुद सुअर इस विषाणु से बीमार नहीं होता. बगुले, बत्तख व अन्य पक्षियों में भी जेई का विषाणु होता है लेकिन वे भी इस विषाणु का शिकार नहीं होते.
सुअर-मच्छर-सुअर या पक्षी-मच्छर-पक्षी में जापानी इंसेफेलाइटिस विषाणु का जीवन चक्र चलता रहता है.