रमणिका गुप्ता नहीं रही। आज शाम 4-5 के बीच डिफेंस कालोनी नई दिल्ली के अपने आवास पर उनका देहावसान हो गया। तीन दिन पहले ही वो अस्पताल से डिस्चार्ज होकर घर वापिस आई थीं। वो 89 वर्ष की थी। वो लगातार अस्वस्थ चल रही थी और उन्हें बोलने में भी दिक्कत थी। डॉक्टरों ने उन्हें बोलने के लिए मना किया था बावजूद इसके वो लगातार तमाम मंचों और मौकों पर अपनी बात रखती आई थी। हंस और कथादेश की तरफ से रखे गए अर्चना वर्मा की स्मृति सभा में वो सीधे अस्पताल से आईं थी और उन्होंने स्म़ति सभा में दिवगंत अर्चना जी को याद करते हुए उनके प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित किया था।
रमणिका गुप्ता जी का जन्म 22 अप्रैल, 1930, सुनाम (पंजाब) में हुआ था। उन्होंने एम.ए., बी.एड.तक की पढ़ाई की थी। प्रारम्भिक दिनों से ही उनकी रुचि रूस की आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों की ओर थी। विद्यार्थी जीवन में ही वे अपनी साम्यवादी विचारधारा के कारण जेल गई। उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत राजनीति में शुरु की थी। वो बिहार/झारखंड की विधायक चुनी गई और बाद में विधान परिषद् की सदस्या भी मनोनीत की गई थी। इसके बाद वो राजनीति छोड़कर समाज सेवा व सामाजिक आंदोलनों की तरफ मुड़ गई। और उन्होंने लिसन अनार्किस्ट। एन अपील टू द यंग। अनार्किज्म इट्स फिलॉसोफी एंड आईडियाज जैसे महत्वपूर्ण पंपलेट भी प्रकाशित करवाये।
राजनीति समाजिक लड़ाई लड़ते रहने के साथ ही साथ उन्होंने सांसकृतिक लड़ाई के महत्व को समझा और फिर कालांतर में उन्होंने खुद को पूरी तरह से साहित्य संस्कृति में झोंक दिया और अपने जीवन की अंतिम सांस तक वो लगातार कलम के साथ अपनी बहुमूल्य योगदान देती रहीं। आदिवासी, दलित वंचित हाशियए की महिलाओं-बच्चों के लिए वो आजीवन कार्यरत रहीं। इस बीच उन्होंने कई देशों की यात्राएँ और उन्हें कई सम्मानों एवं पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
लेखन के अलावा उन्होंने संपादन के महत्व को समझा और बखूबी उसका निर्वाहन भी किया। उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हं- आदिवासी: विकास से विस्थापन, आदिवासी: साहित्य यात्रा, भीड़ सतर में चलने लगी है, तुम कौन, तिल-तिल नूतन, मैं आजाद हुई हूं, अब मूरख नहीं बनेंगे हम, भला मैं कैसे मरती, आदम से आदमी तक, विज्ञापन बनता कवि, कैसे करोगे बँटवारा इतिहास का, प्रकृति युद्धरत है, पूर्वांचल: एक कविता-यात्रा, आम आदमी के लिए, खूँटे, अब और तब, गीत-अगीत (काव्य-संग्रह); सीता, मौसी (उपन्यास); बहू-जुठाई (कहानी-संग्रह); स्त्री विमर्श: कलम और कुदाल के बहाने, दलित हस्तक्षेप, निज घरे परदेसी, साम्प्रदायिकता के बदलते चेहरे (स्त्र विमर्श), दलित-चेतना: साहित्यिक और सामाजिक सरोकार, दक्षिण-वाम के कटघरे और दलित-साहित्य, असम नरसंहार – एक रपट, राष्ट्रीय एकता, विघटन के बीज (गद्य-पुस्तकें).
इसके इलावा छः काव्य-संग्रह, चार कहानी-संग्रह एवं पाँच विभिन्न भाषाओं के साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन सम्पादित। शरणकुमार लिंबाले की पुस्तक दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र का मराठी से हिन्दी में अनुवाद। आदिवासी स्वर: नयी शताब्दी (सम्पादन)। ‘आदिवासी: शौर्य एवं विद्रोह’ (झारखंड), ‘आदिवासी: सृजन मिथक एवं अन्य लोककथाएँ’ (झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात और अंडमान-निकोबार) का संकलन-सम्पादन। इसके साथ ही सन् 1985 से लगातार वो त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका युद्धरत आम आदमी का सम्पादन करती रहीं। कई मह्तवपूर्ण विशेषांको के लिए उन्होंने अतिथि संपादकों को भी पत्रिका से जोड़ा। इसके अलावा उनके द्वारा गठित रमणिका फाउंडेशन की ओर से लगातार मासिक साहित्यिक आयोजन में नए पुराने तमाम साहित्यकारों को रचनापाठ का मौका दिया गया।
आखिर में नम आँखों और भीगे मन से उन्हें श्रद्धाजलि और मानव सेवा को दिये उनके उपादेयों के लिए उन्हें नमन करते हुए उनकी एक कविता-
वरमाला रौंद दूँगी
एक
बड़ी बारादरी में
सिंहासनों पर सजे तुम
बैठे हो-
कई चेहरों में
वरमाला के इंतजार में
बारादरी के हर द्वार पर
तुमने
बोर्ड लगा रखे हैं
‘बिना इजाजत महिलाओं को बाहर जाना मना है
परंपराओं की तलवार लिए
संस्कार पहरे पर खड़े हैं
संस्कृति की
वर्दियां पहने
मैं
वरमाला लिए
उस द्वार-हीन बंद बारादरी में
लायी गयी हूं
सजाकर वरमाला पहनाने के लिए
किसी भी एक पुरुष को
मुझे
बिना वरमाला पहनाए
लौटने की इजाजत नहीं
मेरा ‘इनकार’
तुम्हें सह्य नहीं
मेरा ‘चयन’
तुम्हारे बनाए कानूनों में कैद है
वरमाला पहनानी ही होगी
चूंकि बारादरी से निकलने के दरवाजे
मेरे लिए बंद हैं
और बाहर भी
पृथ्वीराज मुझे ले भागने को
कटिबद्ध है
मेरा
‘न’ कहने का अधिकार तो
रहने दो मुझे
मेरा
‘चयन’ का आधार तो
गढ़ने दो
बनाने दो मुझे
पर
तुम-जो बहुत-से चेहरे रखते हो
मुखौटे गढ़ते हो
स्वांग रचते हो
रिश्ते मढ़ते हो
संस्कृति की चित्रपटी पर
केवल
एक ही चित्र रचते हो
मेरे इनकार का नहीं
और
आज मैंने इनकार करने की हठ ठान ली है…
वरमाला लौटाने का प्रण ले लिया
‘न’ कहने का संकल्प कर लिया है
इसलिए
हटा लो
संस्कारों के पहरेदारों के
दरवाज़ों पर से
नहीं तो-
मैं
तुम्हारे मुखौटे नोच दूंगी
होठों से सिली मुसकानें उधेड़ दूंगी
ललाट पर सटा कथित भाग्य उखाड़ दूंगी
हाथों से दंभ के दंड छीन लूंगी
हावों से अधिकार की गंध खींच लूंगी
आंखों में चमकते आन के आईने फोड़ दूंगी
और तेरी आकांक्षाओं में छिपे
शान और मान के पैमाने तोड़ दूंगी
तेरी नजर के भेड़ियों को रगेदकर
दरवाजों पर खड़े पहरेदारों को खदेड़कर
वरमाला रौंद दूंगी
पर
नहीं पहनाऊंगी
तुम्हारी सजी हुई कतार में से किसी को
क्योंकि
इस व्यवस्था में
‘चयन’ का मेरा अधिकार नहीं है !