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यूपी-बिहार में एईएस/जेई से होने वाली मौतें टिप आफ आईसवर्ग की तरह हैं

मीडिया रिपोर्टस के अनुसार जून के पहले पखवारे तक बिहार के मुज़फ्फरपुर में एईएस ( एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम ) और उससे जुड़ी बीमारियों-चमकी बुखार, से बच्चों की मौत का आंकडा 100 पार कर गया है। मुज़फ्फरपुर के श्रीकृष्णा मेडिकल कालेज एवं अस्पताल (एसकेएमसीएच) और एक निजी अस्पताल केजरीवाल मातृ सदन में रोज दिमागी बुखार जिसे यहां स्थानीय भाषा में चमकी बुखार बोला जा रहा है, रोज बड़ी संख्या में बच्चे भर्ती हो रहे हैं।

ठीक पांच साल बाद मुज़फ्फरपुर वही दृश्य देख रहा है जो उसने 2014 में देखा था। उस वर्ष भी मुज़फ्फरपुर में चमकी बुखार से बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हुई थी। उस वक्त तक इसे एईएस के अन्तर्गत रिपोर्ट किया जा रहा था। नेशनल वेक्टर बार्न डिजीज कंट्रोल प्रोग्राम (एनवीबीडीसीपी) के आंकड़ों के अनुसार 2014 में बिहार में एईएस से 355 और जापानी इंसेफेलाइटिस (जेई) से 2 लोगों की मौत हुई। तब नई-नई बनी मोदी सरकार-1 के स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने 20 -22 जून 2014 को मुज़फ्फरपुर, पटना का दौरा किया और तमाम घोषणाएं की थीं।
ठीक पांच साल बाद वह फिर मोदी सरकार-2 के स्वास्थ्य मंत्री के बतौर डॉ हर्षवर्धन ने 16 जून को मुजफ्फरपुर का दौरा किया और पांच वर्ष पूर्व की गईं घोषणाओं को दोहराया जिसमें से दो को छोड़कर किसी पर अमल अमल शुरू ही नहीं हुआ है. जो दो घोषणाएं उन्होंने पांच वर्ष पहले की थी -एसकेएमसीएच में वायरोलाजी लैब और इस मेडिकल कालेज को सुपर स्पेश्यिलिटी में अपग्रेड करने का, वह बही तक आधा-अधूरा है.
बिहार रवाना होने के पहले उन्होंने एएनआई से बातचीत में कहा कि एईएस से मौतों की संख्या कम हो रही है।
सरकारी आंकड़ों को देखें तो यह ठीक ही प्रतीत होगा। एईएस और जेई के केस का हिसाब रखने वाली संस्था एनवीबीडीसीपी के आंकड़े (30 अप्रैल तक ) बताते हैं कि बिहार में एईएस और जेई का न तो कोई केस आया है और न किसी मरीज की मौत हुई है। उत्तर प्रदेश में इस वर्ष के शुरूआती चार महीनों में एईएस से 330 केस व एक मौत और जेई से 16 केस व कोई मौत नहीं दर्शायी गई है।
लेकिन जमीनी हकीकत दूसरी है। स्थानीय अखबार यूपी और बिहार के विभिन्न हिस्सों में अज्ञात बुखार, रहस्यमय बुखार, दिमागी बुखार से लोगों खास कर बच्चों की मौतों की खबर से भरे पड़े हैं। अगस्त-सितम्बर 2018 में यूपी के बहराइच का वाकाया शायद लोग और सरकार भूल चुके हैं। वहां इन दो महीनों में ‘ रहस्यमय बुखार’ , ‘ अज्ञात बुखार ‘ से 75 बच्चों की मौत की खबरें आईं थी। इस ‘ अज्ञात बुखार ’ के सभी लक्षण सरकार द्वारा परिभाषित एईएस के दायरे में आते थे लिहाजा इन्हें एईएस की श्रेणी में रखा जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हो रहा था। मीडिया के साथ-साथ सरकार और सरकारी महकमे अज्ञात बुखार से मौतें बता रहे थे। बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर के आक्सीजन कांड से चर्चा में आए डा. कफील खान ने बहराइच जिला अस्पताल में जाकर इस मामले को उठाने की कोशिश की तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
बिहार के मुज़फ्फरपुर में 2014 एईएस आउटब्रेक के बाद नवम्बर 2016 में पटना में हुई एक उच्चस्तरीय बैठक में निर्णय लिया गया कि डेंगू,मलेरिया, स्क्रब टाइफॅस और टीबी के केस को एईएस में काउंट न किया जाए। हालांकि गोरखपुर और आस-पास के जिलों में स्क्रब टाइफस को एईएस का प्रमुख कारक माना जा रहा है और इसे एईएस में ही गिना जाता है।
इन तथ्यों को उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं कि एईएस और जेई की देश में व्यापकता को सही तौर पर मापने यानि मानीटरिंग और सर्विलांस का काम ठीक से नहीं हो रहा है। एईएस/जेई और इससे जुड़ी बीमारियों की कुछ ही जगह रिपोर्टिंग हो रही है। वह भी सरकारी अस्पतालों की। निजी अस्पतालों में एईएस/जेई के आंकड़े हमारे पास नहीं हैं। इस मायने में मुज़फ्फरपुर का केजरीवाल मातृ सदन इकौलता निजी अस्पताल है जो एईएस/जेई के केस रिपोर्ट कर रहा है।
इस तरह हमारे पास एईएस/जेई से होने वाली मौतों की जो खबरें पहुंच रही हैं वह टिप आफ आईसवर्ग की तरह हैं।
बिहार  में चमकी बुखार
बिहार के मुज़फ्फरपुर जिले में चमकी बुखार के सभी लक्षण एईएस जैसे ही हैं सिवाय इसके कि मरीजों में खून में सुगर की मात्रा एकाएक कम हो जाती है और इससे मरीज की हालत गंभीर हो जाती है। इसके अलावा कुछ बच्चों में देखा जाता है कि बच्चा ठीक-ठाक सोया लेकिन बिना बुखार आए सुबह उसकी तबियत खराब हो गई। एक शोध में पाया गया कि अधपके लीची या उसके बीच में ऐसे रसायन हैं जिसके सेवन करने से बच्चों में इस तरह की लक्षण वाली बीमारी उत्पन्न कर रहे हैं। चूँकि ये केस लीची के मौसम ( अप्रैल से जून ) में अधिक मिले और बारिश होते ही केस कम होने लगे तो इस बात को बल मिला कि लीची से इसका सम्बन्ध है। बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग के ‘ लीची पैदावार वाले जिलों में मस्तिष्क ज्वर ‘ की गाइड लाइन  में कहा गया है कि बच्चों को अधपके या कच्ची लीची खाने से बचाया जाए और रात में बच्चे भरपेट भोजन जरूर करें। हलांकि कई चिकित्सक और विशेषज्ञ इसे चुनौती भी दे रहे हैं.
वर्ष 2017 में बिहार के एईएस मरीजों के विश्लेषण में पाया गया कि इसमें 32 फीसदी जेई केस हैं जबकि 50 फीसदी अननोन एईएस है। नोन एईएस में 49 फीसदी हरपीज इंसेफेलाइटिस और 23 फीसदी हाइपोग्लाइसीमिया प्रमुख हैं।
 
गोरखपुर में बिहार के जेई/एईएस मरीज
मुज़फ्फरपुर में चमकी बुखार के केस और मौतें ही चर्चा में आती हैं लेकिन तथ्य यह है कि बिहार के कई हिस्सों -सिवान, गोपालगंज, पूर्वी चम्पारण, बरौनी, गया आदि स्थानों से एईएस/जेई केस पूरे साल रिपोर्ट हो रहे है। यूपी के गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज में हर वर्ष बिहार के सैकड़ों मरीज भर्ती हो रहे हैं। इस वर्ष 7 जून तक बीआरडी मेडिकल कालेज में भर्ती हुए 81 मरीजों में 8 बिहार के थे। ये मरीज सिवान, गोपालगंज, पश्चिम चम्पारण से इलाज के लिए गोरखपुर आए। इनमं से एक मरीज में जापानी इंसेफेलाइटिस की पुष्टि हुई है।
वर्ष 2018 में बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर में 1073 एईएस मरीज भर्ती हुए जिसमें बिहार के मरीजों की संख्या 100 से अधिक थी। बिहार से बड़ी संख्या में बीआरडी मेडिकल कालेज में एईएस जेई के मरीजों की भर्ती को देखते हुए यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने एक बार बयान दिया था कि बिहार हमारे राज्य में जेई/एईएस के आंकड़े बढ़ा रहा है।
इसलिए बिहार में चमकी बुखार के कारण और उसके निवारण के साथ-साथ पूरे बिहार में एईएस/ जेई के रोकथाम पर चिंता होनी चाहिए।
यूपी में जेई/ एईएस
यूपी में सरकारी आंकड़ों में पिछले दो वर्षो से एईएस/जेई के केस और मृत्यु में व्यापक कमी आने का दावा किया जा रहा है। एक हिंदी अखबार में 15 जून को यूपी के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह के हवाले से खबर दी गई है कि एईएस/जेई के केस में 58 फीसदी और मौत में 83 फीसदी की कमी आई है। एनवीबीडीसीपी के आंकड़ों के अनुसार 2017 मेे यूपी में एईएस के 4724 केस और 621 मृत्यु रिपोर्ट हुई। इसी तरह जेई के 693 केस और 93 मौत रिपोर्ट हुए। 2018 में एईस के 3080 केस व 230 मौत, जेई से 323 केस व 25 डेथ रिपोर्ट हुई।
यूपी में इंसेफेलाइटिस से 38 जिले प्रभावित हैं जिसमें सर्वाधिक प्रभावित जिला गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, महराजगंज, सिद्धार्थनगर, संतकबीरनगर, बस्ती, बलरामपुर, बहराइच, बलिया, आजमगढ़, मउ आदि हैं।
गोरखपुर मंडल के एडीशनल डायरेक्टर हेल्थ पुष्कार आंनद ने बताया कि पिछले दो वर्ष से केस और मौतों की संख्या में 60 फीसदी से अधिक की कमी आई है। गोरखपुर मंडल के चार जिलों-गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया और महराजगंज में इस वर्ष 12 जून तक 130 केस व 13 डेथ रिपोर्ट हुए हैं जबकि वर्ष 2017 में ये आंकड़ेे 2998 केस व 337 डेथ और 2018 में 1279 केस व 125 डेथ के थे।
इसी तरह बीआरडी मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल डॉ गणेश कुमार भी दावा कर रहे हैं कि उनके यहां जेई/ एईस के केस कम हुए हैं।
यूपी सरकार जेई/एईएस के केस कम होने का श्रेय 2018 में शुरू किए गए दस्तक अभियान को देती है। इस अभियान के तहत स्वास्थ्य कर्मियों ने घर-घर जाकर लोगों को नवकी बीमारी (एईएस/जेई ) के बारे में जानकारी दी और घर व उसके आस-पास सफाई रखने, जेई का टीका लगवाने, सुरक्षित पेयजल का प्रयोग करने और बीमार होने पर तुरन्त नजदीकी सरकारी अस्पताल जाने के लिए प्रेरित किया। आाक्सीजन कांड के बाद बीआरडी मेडिकल कालेज में पीआईसीयू की क्षमता 400 बेड की हो गई है। इसी तरह इंसेफेलाइटिस प्रभावित जिलों में जिला अस्पतालों में आईसीयू की क्षमता 10 से बढ़ाकार 15 की गई है। साथ ही गोरखपुर कमिश्नरी के चार जिलों-गोरखपुर  कुशीनगर, महराजगंज, देवरिया में आठ सीएचसी-पीएचसी में 3-3 बेड के मिनी पीआईसीयू तैयार किए हैं.
बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर
गोरखपुर और आस-पास के जिलों में जेई/एईएस के केस में पिछले दो वर्ष इसलिए भी कम रहे हैं क्योंकि इस इलाके में बारिश कम हुई. इस इलाके में जेई/एईएस का मानसून से गहरा सम्बन्ध है . जिस वर्ष बारिश ज्यादा होती है, उस वर्ष इसके केस भी बढ़ जाते हैं.
इसके अलावा बीआरडी मेडिकल कालेज व जिला अस्पताल एईएस के तमाम केस को एईएस के बजाय एक्यूट फैब्रिईल इलनेस (एएफआई) रिपोर्ट कर रहे हैं. इसलिए भी सरकारी कागजों में यह बीमारी घटी नजर आ रही है.
गोरखपुर और आस-पास के जिलों के सरकारी अस्पतालों में 30 फीसदी डॉक्टर कम हैं
डाॅक्टरों की कमी, इंसेफेलाइटिस प्रभावित क्षेत्रों में पेयजल योजनाओं की सुस्त रफतार, इस बीमारी से शारीरिक व मानसिक रूप से विकलांग हुए मरीजों का इलाज एवं पुनर्वास और एईएस के सही कारकों की शिनाख्त अभी भी बड़ी समस्या बनी हुई है। इंसेफेलाइटिस से सर्वाधिक प्रभावित गोरखपुर और आस-पास के जिलों में नियमित चिकित्सकों के 30 फीसदी से अधिक पद रिक्त हैं। खासकर बाल रोग विशेषज्ञों की भारी कमी है। बाल रोग चिकित्सकों की कमी सीएचसी-पीएचसी में इंसेफेलाइटिस रोगियों के इलाज की व्यवस्था को कमजोर कर रही है।
मानवाधिकार आयोग में इस मुद्दे पर चल रही सुनवाई में यूपी के स्वास्थ्य विभाग द्वारा दी गई रिपोर्ट से असंतुष्ट होकर चिकित्सकों की कमी और पेयजल के मुद्दे पर स्पष्टीकरण मांगा है।
स्क्रब टाइफस
हाल के रिसर्च गोरखपुर और आस-पास के जिले में एईएस के बड़े कारकों में स्क्रब टाइफस की शिनाख्त कर रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार जुलाई से सितम्बर तक (एईएस के सबसे संवदेनशील समय में )एईएस मरीजों में स्क्रब टाइफस के मामले सबसे अधिक आ रहे हैं। वर्ष 2018 में बीआरडी मेडिकल कालेज में भर्ती हुए कुल 1073 मरीजों में  से 52 फीसदी में स्क्रब टाइफस की पुष्टि हुई। इसके पहले के रिसर्च में नान पोलियो इंटेरोवायरस-काक्सिकी ए, बी, इको वायरस आदि को एईएस के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार बताया जा रहा था। बहुत से चिकित्सक इन दावों को संदेह की नजर से देखते हैं। ऐसे चिकित्सकों का कहना है कि यदि एईएस में सबसे अधिक मामले स्क्रब टाइफस के हैं तो मरीजों की मृत्यु दर में कमी आनी चाहिए जो अभी भी 20 फीसदी (बीआरडी मेडिकल कालेज) से अधिक बनी हुई है। दूसरी चिंता यह है कि यूपी-बिहार में जापानी इंसेफेलाइटिस का बड़े पैमाने पर टीकाकारण के बावजूद जेई के केस में गिरावट तो आई है लेकिन यह अब भी सात से 10 फीसदी तक बना हुआ है।
एईएस के प्रमुख कारकों में स्क्रब टाइफस के कारण मरीजों में शारीरिक विकलांगता के केस कम हुए हैं लेकिन व्यावहारिक व मानसिक समस्या के केस बढ़े हैं। ऐसे मरीजों के इलाज व पुनर्वास का अभी भी यूपी या बिहार में ठीक-ठीक इंतजाम नहीं है।
बच्चों में कुपोषण और एईएस/जेई
 

बच्चों में इंसेफेलाइटिस का सीधा रिश्ता कुपोषण से है। बिहार और यूपी में नवकी बुखार या चमकी बुखार से सबसे अधिक प्रभावित ग्रामीण क्षेत्र के गरीब घरों के बच्चे हो रहे हैं। इस बीमारी के शिकार बच्चे भूमिहीन कृषि मजदूर या शहर कमाने चले गए मजदूरों के बच्चे हैं।

दोनों प्रदेशों में बच्चों में कुपोषण के आंकड़े भयावह हैं। एनएचएफएस-4 के आंकड़ों के अनुसार यूपी में 46 फीसदी तो बिहार में 48 फीसदी पांच वर्ष से कम आयु के बच्चे छोटे कद के हैं। इसी तरह यूपी में 39.5 फीसदी और बिहार में 43.9 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं। चमकी बुखार, एईएस से प्रभावित जिलों-मुज़फ्फरपुर , सिवान, गोपालगंज, यूपी के महराजगंज, कुशीनगर, देवरिया, गोरखपुर, संतकबीरनगर, बहराइच, श्रावस्ती आदि जिलों में बच्चों में कुपोषण ज्यादा है।
कुपोषित बच्चे जेई/एईएस और दूसरे संक्रमण के जल्दी शिकार होते हैं। इन जिलों में कुपोषण के खात्मे के लिए किए जा रहे उपाय नाकाफी साबित हो रहे हैं।

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