-150वीं गांधी जयंती पर विशेष
गोरखपुर। भारतीय आजादी के अगुवा मोहन दास करमचंद गांधी की 2 अक्टूबर को 150वीं जयंती है। गाँधी जी 8 फरवरी 1921 को गोरखपुर में तशरीफ लाये। शहर के पश्चिमी छोर पर राप्ती नदी के बंधे के किनारे बसे मोहल्ला बहरामपुर बाले के मैदान में गांधी जी ने जोरदार तकरीर की। जमाना खिलाफत आंदोलन व असहयोग आंदोलन का चल रहा था। गांधी जी से जुड़ी कुछ यादें गोरखपुर में आज भी मौजूद हैं।
बिस्मिल भवन सिविल लाइन में है गांधी जी के प्रयोग में लायेगी मेज, इस मेज पर निपटाये सारे काम
17 अक्टूबर सन् 1920 को मौलवी मकसूद अहमद फैजाबादी और गौरीशंकर मिश्रा की अध्यक्षता में हुई सार्वजनिक सभा में गांधी को गोरखपुर में आमंत्रित करने का निर्णय हुआ। टेलीग्राम के जरिये उनको बुलावा भेजा गया। इस बीच बाबा राघवदास की अगुआई में एक प्रतिनिधिमंडल नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में गया और गांधी जी से गोरखपुर आने का अनुरोध किया। उन्होंने जनवरी के अंत या फरवरी के शुरू में गोरखपुर आने का आमंत्रण कबूल कर लिया। जिला कांग्रेस कमेटी उनके आगमन को सफल बनाने व उसके प्रचार-प्रसार में सक्रिय हो गई।
गांधी जी और मौलाना शौकत अली साथ-साथ 8 फरवरी 1921 को बिहार के रास्ते ट्रेन से यहां आए। उस समय देवरिया जिला भी गोरखपुर का ही हिस्सा था, इसकी सीमा भटनी तक लगती थी। भटनी से गोरखपुर के बीच ट्रेन सिर्फ नूनखार, देवरिया, चौरीचौरा और कुसम्ही जंगल स्टेशन पर रुकी थी। गोरखपुर से कांग्रेसियों का एक प्रतिनिधिमंडल अपने नेता की अगवानी के लिए भटनी गया। बाले मियां के मैदान में भारी जनसैलाब उमड़ पड़ा। खुल कर जनता ने देशहित में दान दिया।
सिविल लाइन्स स्थित बिस्मिल पुस्तकालय के संस्थापक श्यामानन्द श्रीवास्तव ने बताया कि उस समय के जाने-माने अगुआ नेता थे विंध्यवासिनी प्रसाद वर्मा जो बाद में नगरपालिका के चेयरमैन व विधायक भी हुए। गांधी जी के सभा के लिए कोई मंच नही बना था। वहां पूर्व से ही एक ऊंचा स्थान था जिसे मंच के रूप मे इस्तेमाल किया गया। वहीं गांधी जी के लिये यह मेज उस मंच पर पहुंचाया गया। गांधी जी उनके आवास ‘सूरत सदन’ पर भी गये और पत्र भी लिखा। विंध्यवासिनी प्रसाद वर्मा ने इसे गांधी जी का आशीर्वाद मानकर इसे सुरक्षित रखा। फिर जब पं. जवाहर लाल नेहरू गोरखपुर आये तो उन्हे यह मेज दिखाया गया।
गाँधी जी गोरखपुर के राष्ट्र प्रेम और आतिथ्य सत्कार से बहुत प्रभावित हुये। उन्होंने इस मेज को इस्तेमाल करते समय विंध्यवासिनी प्रसाद के पुत्र से कहा कि ये मेज आजादी की लड़ाई का गवाह है, गोरखपुर की धरोहर है। इसे सम्भाल कर रखना। वह इसे सुरक्षित रखने के लिये अपने गांव भेज दिये। जब उनके बच्चे बड़े हुए और पुनः परिवार गोरखपुर से जुड़ गया तो बच्चों के पुख्ता अश्वासन पर वह मेज पुनः गोरखपुर लाया गया।
इस बार यह मेज सिविल लाईन, बिस्मिल भवन, पार्क रोड गोरखपुर लाया गया। समय था 1970। यहां से ‘ बिस्मिल’ हिन्दी सप्ताहिक अखबार निकलता था। जो क्रांतिकारी विचारों से ओत-प्रोत था। इससे युवा बहुत अधिक जुड़ रहे। बिस्मिल समाचार पत्र के सम्पादक ने इसे बिस्मिल पुस्तकालय में संरक्षित रखने के आश्वासन पर उक्त एतिहासिक मेज बिस्मिल भवन में सुरक्षित रखवा दिया। आज भी यह इस्तेमाल होता है। यहां बैठकर विद्यार्थी पढ़ते हैं।
‘सूरत सदन’ आज भी है। ब्रीटिश पीरियड में सूरत सदन नीलाम कर दिया गया। अलहदादपुर मोहल्ले में परमेश्वरी दयाल ने उसे खरीद कर वैसे ही रखा हुआ है। उस घर में चन्द मिनट ही सही 1920 के बाद देश मे आंदोलन से जुड़ी सभी शख्सियत जो कांग्रेस से जुड़ी रहीं और गोरखपुर आईं, वह इस घर मे जरूर रूकी।
रेलवे स्टेशन पर गांधी जी की एक झलक पाने को बेताब थी भीड़
8 फरवरी सन् 1921 गोरखपुर के रेलवे स्टेशन पर सुबह सवेरे ही गांधी जी व मौलाना शौकत अली की जय की सदा गूंज रही थी। हज़ारों की भीड़ उनकी एक झलक पाने को बेचैन थी। ट्रेन के पहुंचते ही जोश और बढ़ गया। घुटनों तक धोती पहने दुबला-पतला एक व्यक्ति समर्थकों के साथ स्टेशन से बाहर निकला और एक ऊंचे स्थान पर खड़ा होकर जनता का अभिवादन स्वीकार किया।
यह दुबले पतले व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि देश की धड़कन गांधी जी थे। आज़ादी की जंग में गोरखपुर की भागीदारी सुनिश्चित करने वह यहां पहुंचे थे। उसी दिन उन्होंने बाले मियां के मैदान में जनता को संबोधित किया। वह दौर खिलाफत आंदोलन का था। लिहाजा सभा में उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया। उस समय गोरखपुर से प्रकाशित होने वाले अख़बार स्वदेश के अनुसार गांधी जी देश के लोगों में आज़ादी की लड़ाई का जोश भरने के लिए दिन रात एक कर मेहनत कर रहे थे।
गोरखपुर में जनसभा करने के बाद गाँधी जी रात में ही बनारस के लिए रवाना हो गए। मुंशी प्रेमचंद ने बाले के मैदान में गांधी जी को सुना और नौकरी छोड़ दी।
तारीख की नज़र में बाले मियां का मैदान मोहल्ला बहरामपुर
मोहल्ला बहरामपुर बहुत पुराना है। शहरनामा किताब के लेखक डा. वेद प्रकाश पांडेय लिखते हैं कि 1240 ई. में मुस्लिम शासक बहराम मसूद ने अपने नाम से मोहल्ला बहरामपुर 779 साल पहले बसाया। शहरनामा किताब में लिखा है कि कुछ इतिहासकारों का मत है कि 1030 ई. में हजरत सैयद सालार मसूद गाजी मियां अलैहिर्रहमां ने गोरखपुर पर अधिकार कर लिया था। इतिहासकार एस.गोयल के अनुसार इस मोहल्ले को बसाने का श्रेय बहराम मसुदुल मुल्क को है। गाजी मियां जनसामान्य में बाले मियां के नाम से जाने जाते है।
बहरामपुर में मौजूद प्रतीकात्मक दरगाह पर हर साल जेठ के महीने में मेला लगता हैं जहां पर आस-पास के क्षेत्रों के अलावा दूर दराज से भारी संख्या में अकीदतमंद यहां आते है। एक माह तक चलने वाले मेले के मुख्य दिन अकीदतमंदों द्वारा पलंग पीढ़ी, कनूरी आदि चढ़ा कर मन्नतें मांगी जाती है। इस मेले को पूर्वांचल की गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल माना जाता है। हर साल लग्न की रस्म पलंग पीढ़ी के रूप में मनायी जाती है।
गांधी जी के लिए कुर्बान कर दिए हाजी खादिम हुसैन ने अपने 12 गांव व नौकरी
औलिया चक ( अब तिवारीपुर ) के रहने वाले हाजी खादिम हुसैन सिद्दीकी सच्चे देशभक्त थे. इनके पूर्वज शेख सनाउल्लाह लंग पहलवान (दादा औलिया) अलैहिर्रहमां मुगल शहंशाह औरंगजेब अलैहिर्रहमां के शासन काल में गोरखपुर आये। शहंशाह औरंगजेब ने एक सनद लिख कर इनके पूर्वजों को दी थी जिसके तहत इन्हें चौदह गांव मिला था। इसके अलावा अन्य सम्पत्तियां भी मिली।
जब महात्मा गाँधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन चलाया तो खादिम हुसैन भी उसमें शामिल हुए। उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। अंग्रेज प्रशासन ने उन्हें चेतावनी दी कि यदि उन्होंने इस आंदोलन में हिस्सा लिया तो आपका सारा गांव जब्त कर लिया जायेगा। उन्होंने अंग्रेजों की चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया। असहयोग आंदोलन को सफल बनाने में जुट गये। जब गांधी जी का गोरखपुर आने का कार्यक्रम बालेे के मैदान बहरामपुर में बना तो इसकी सफलता की जिम्मेदारियां उनके कंधों पर भी आईं। अंग्रेजों ने उनके 12 गांव जब्त कर लिए। फिर भी वह मौलाना आजाद सुभानी के साथ जंग-ए-आजादी में लगे रहे।
उन्होंने अपने निवास स्थान तिवारीपुर में ‘दायरे रब्बानी’, और ’जामए रब्बानी’ का केन्द्रीय कार्यालय स्थापित किया। यहीं से मौलाना की प्रथम पत्रिका ’’रूहानियत’’ का प्रकाशन भी हुआ। दूसरी पत्रिका दावत का प्रकाशन किया। तीसरी पत्रिका रब्बानियत का प्रकाशन भी यहीं से हुआ। मजलिस रब्बानियत की पन्द्रह रोजा पत्रिका ’’दावत’’ का प्रकाशन हाजी खादिम हुसैन ’’दावत प्रेस’’ से करते रहे।
खादिम हुसैन तिवारीपुर (औलिया चक) में 1889 ई. में पैदा हुए। आपके बचपन में ही वालिद वालिदा का सायां सिर से उठ गया। घर पर रह कर ही दीनी तालिम हासिल की। आप शुरू से ही जहीन थे। आपने मिशन स्कूल (सेंट एंड्रयूज इंटर कालेज) से हाईस्कूल किया। इस बीच ऐसे हालात बने कि पट्टीदारों से विवाद स्वरूप मुकदमा हो गया। आपने इस दौरान वर्तमान एमजी इंटर कालेज में अध्यापन शुरू किया। चूंकि आप तमाम भाषाओं पर पकड़ रखते थे। वहां पर कक्षा सात के विद्यार्थियों को अंग्रेजी व अरबी पढ़ाते थे। जब 1920 में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो आपका इस पर काफी असर पड़ा। इसी समय खिलाफत आंदोलन भी चल रहा था। आप भी इन दोनों आंदोलनों में शामिल हो गए। सबसे पहले आपने नौकरी छोड़ दी। उसके बाद खिलाफत व असहयोग आंदोलन को सफल बनाने में जुट गए।
बहरामपुर जाते हुए गांधी मुस्लिम होटल पर चंद पल ठहरे थे गांधी जी
गांधी के नाम पर रोड, स्मारक, पार्क, स्टेडियम आदि सुना व देखा होगा लेकिन गांधी जी के नाम पर मुस्लिम होटल, ना देखा ना सुना होगा। शहर के वीर अब्दुल हमीद रोड बक्शीपुर एक मीनारा मस्जिद स्थित गांधी मुस्लिम होटल है। पहले इसका नाम गांधी होटल था। गांधी मुस्लिम होटल नाम तो 16 वर्ष पूर्व पड़ा। यह कोई मामूली होटल नहीं हैं। यहां जंग-ए-आजादी के दीवानों का जमघटा था। जब इस होटल की बुनियाद पड़ी तो टी स्टॉल के रुप में। बाद में इसे होटल का रूप दे दिया गया।
होटल के मालिक अहमद रजा खान ने बताया कि दादा गुलाम कादिर बताते थे कि यह होटल जंगे आजादी की याद समेटे हुए है। 8 फरवरी 1921 को महात्मा गांधी का गोरखपुर में पहला और अंतिम आगमन हुआ था। गांधी जी ने बाले मियां के मैदान बहरामपुर में जनता को संबोधित किया। वह दौर खिलाफत आंदोलन का था। हिंदू मुसलमान सब साथ थे। जब गांधी जी बहरामपुर स्थित बाले मैदान जा रहे थे कुछ देर के लिए कांग्रेसियों ने यहां उनका स्वागत किया तब से यह टी स्टॉल गांधी जी के नाम से मशहूर हो गया। यहां आजादी से पहले और बाद बड़ी-बड़ी हस्तियों का जमघटा लगता था और चाय की चुस्कियों के साथ गहन चिंतन, वाद विवाद, सियासत, देश के हालात पर विमर्श हुआ करता था।
अहमद रजा ने बताया कि वीर अब्दुल हमीद के भाई अकसर यहां आकर बैठते थे। नाम तो याद नहीं हैं। वह रिक्शा चलाते थे, बाद में उन्होंने नार्मल पर जमीन ले ली गराज खोला। फिर कहा चले गए पता नहीं। मेघालय के पूर्व राज्यपाल मधुकर दीघे यहां आ कर घंटों बैठा करते थे। इसके अलावा चौरी चौरा आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले कामरेड जामिन भी बैठते थे। बहुत सारे लोग बैठा करते थे। सबके नाम याद नहीं हैं दादा बताया करते थे।
अहमद रजा ने बताया कि दादा बताते थे कि जिस समय यह होटल खुला यह इलाका जंगल था। जगह-जगह रोशनी के लिए लैम्प पोस्ट बना था। अंग्रेज कर्मचारी उसे रोशन किया करता था। जब लोग रात के 12-1 बजे फिल्म देखकर लौटते तो यहां चाय जरूर पिया करते थे। चाय पत्ती अंग्रेज कर्मचारी मुहैया करवाता था। वह एक ठेला लेकर चलता था। उसमें लिप्टन चायपत्ती होती थी। दादा यह भी बताते थे कि जंगली जानवरों की आवाजें गूंजा करती थी।
जब मेरे वालिद मरहूम उमर बड़े हो गए तो टी स्टॉल को होटल में बदल दिया गया। वालिद आर्मी मैन थे। पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) व पाकिस्तान की लड़ाई में भारत द्वारा पूर्वी पाकिस्तान को सपोर्ट किया गया तो उस लड़ाई में हिस्सा लिया था। इसलिए उनका मन होटल में नहीं रमा। कुछ समय बाद नौकरी भी छोड़ दी। दादा ही होटल चलाते रहे। गालिबन 1988 में दादा का इंतकाल हुआ तो दादी सैयदुननिशा होटल चलाती थी। उनका इंतकाल 2002 में हो गया तो कुछ समय के लिए मेरे चचा हाकी के मशहूर प्लेयर गुलाम सरवर ने होटल चलाया। उसके बाद मैंने होटल संभाल लिया।
पहले गांधी होटल था तो सभी समुदाय के लोग चले आते थे। यहां बड़े का गोश्त भी मिलता था। इसलिए हिंदू भाईयों की सहूलियत के लिए नाम में परिवर्तन कर गांधी मुस्लिम होटल कर दिया। यहां शाकाहारी व मांसाहारी दोनों तरह के व्यंजन मिलते है। यहां भारतीय हॉकी टीम के बड़े- बड़े खिलाड़ी चाय पीने आते थे।