हितेश सिंह
संविधान के निर्देश के अनुसार भारत मे सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को चिन्हित कर उन्हें शासन प्रशासन में प्रतिनिधित्व देने हेतु समय समय पर कई कमीशन बनाये गए। सर्वाधिक महत्वपूर्ण व स्वीकृत कमीशन बी पी मंडल के नेतृत्व बनाया गया। मंडल कमीशन ने पिछड़ी जातियों की पहचान कर उनकी संख्या 52 % बतायी और इनके लिए 52% के आरक्षण का सुझाव दिया। तत्कालीन वी पी सिंह सरकार द्वारा इस सुझाव को स्वीकार कर लिया गया। इससे ओबीसी की शासन प्रशासन में भागीदारी का दरवाजा खुला।
ओबीसी वर्ग के आरक्षण पर पहला बड़ा हमला तब हुआ जब मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने के सरकार के फैसके के खिलाफ कमंडलधारी सामाजिक परजीवियों ने अपने विशेषाधिकार पर हमला माना और देशभर में इसके खिलाफ आंदोलन किया, हिंसा करवाये।
यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुचा तो कोर्ट ने अपनी तरफ से दो प्रतिबंध लगा दिए-
पहला कि ओबीसी आरक्षण 27% ही मिलेगा और आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नही हो सकती जबकि संविधान निर्माताओं ने जनसँख्या के अनुपात में एससी और एसटी को आरक्षण प्रदान किया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तरफ से क्रीमी लेयर की नई अवधारणा को ओबीसी पर लागू किया जिसमें 1 लाख रुपये प्रतिवर्ष से अधिक आय वर्ग वाले लोगो को ओबीसी आरक्षण का लाभ नही दिया जाएगा जो आज बढ़कर 8 लाख प्रति वर्ष तक किया गया है।
याद रहे भारतीय सामाजिक संरचना में ऊंच – नीच, छुआछूत, शोषण ,अन्याय, सम्मान का आधार जाति है न कि अर्थ या धन। इसीलिए मंडल कमीशन ने इसको ध्यान में रखकर सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार बनाया था। पर मंडल कमीशन व संविधान निर्माताओं की मंशा के विपरीत अर्थ या धन को बीच मे लाकर खड़ा किया गया। पिछड़े वर्ग के जो लोग खाने पीने भर का कमाते थे उन्हें आरक्षण से बाहर कर दिया गया। पिछड़े वर्ग ने इसे मजबूरन स्वीकार किया। अपने हिस्से के आधे भाग को खोकर भी शांत रहे।
आरक्षण लागू होने के 28 साल बाद आज भी ओबीसी का केंद्र की सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व 5% के आस पास ही है। देश के कुल 46 केंद्रीय विश्वविद्यालय में ओबीसी के 2017 तक एक भी प्रोफेसर नही थे। कुलपति भी शायद ही कोई। केबिनेट सचिव शून्य है। उच्च न्यायपालिका में आरक्षण लागू ही नही है। नतीजा यह है कि हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में ओबीसी का प्रतिनिधित्व न के बराबर है। बहुत से संस्थानों में जहाँ नियमानुसार तो आरक्षण लागू होने चाहिए पर लागू नही । बहुत से संस्थानों में तो नियमानुसार तो आरक्षण लागू होने चाहिए पर लागू नही -जैसे केंद्रीय विद्यालय , नवोदय विद्यालय और बीएचयू के द्वारा संचालित इंटर कॉलेज में ओबीसी का आरक्षण लागू नही है। कई बैको में, फ़ेलोशिप देने वाली संस्थाओं में जैसे ICPR,ICCR,TIFR इत्यादि में ओबीसी आरक्षण लागू नहीं है।
बड़े परिदृश्य में देखा जाय तो ओबीसी वर्ग आज भी अपने प्रतिनिधित्व के लिए तरस रहा है लेकिन संघर्ष भी नही करता दिख रहा। इस वर्ग की अपनी आंतरिक चुनौतियां भी है पर थोड़े से प्रतिनिधित्व से ही इसके आत्मविश्वास में कितनी शानदार वृद्धि हुई है, थोड़े से राजनैतिक जागरूकता से यह बड़ी ताकत बन रहा है। पर इसका महत्व आज भी यह वर्ग ठीक से महसूस नही कर रहा है ।
आरक्षण पर हो रहे निरन्तर हमले के खिलाफ इसमे कोई उल्लेखनीय प्रतिक्रिया नही देखने मिलती। इसका कारण है कि ओबीसी वर्ग के लोग जाति की लड़ाई लड़ रहे है। जाति के रूप में लड़कर आप ओबीसी आरक्षण न तो बचा सकते है और न पा सकते हैं।
आरक्षण रोज पर सुनियोजित हमले हो रहे है । सरकार को प्रभावित करने वाली वाणिज्यिक औऱ राजनीति के पीछे छुपी राजनैतिक शक्तियां बार बार आरक्षण समाप्त करने की बात कहकर ओबीसी की प्रतिक्रिया का लिटमस टेस्ट करते रहते है। वे लगातार आरक्षण को समाप्त करने की योजना पर कार्य करते रहते हैं लेकिन जब आर्थिक आधार पर गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की बात आई तो सरकार ने संविधान निर्माताओं की मंशा के खिलाफ आर्थिक आधार पर गरीब सवर्णों को 10% आरक्षण एक दिन में दिया। सुप्रीम कोर्ट भी इस पर मौन है जबकि उसी सुप्रीम कोर्ट ने 50 % से अधिक आरक्षण नही होने की सीमा बनाई थी जबकि गरीब सवर्णों को आरक्षण देने पर आरक्षण 60% हो गया। सवर्ण आरक्षण लागू से पहले यह नही बताया गया कि ऐसे गरीब सवर्ण की आबादी कितनी है? कोई कमीशन भी नही, कोई आंकड़ा नही ।
हाल ही में जब मध्य प्रदेश सरकार और छत्तीसगढ सरकार द्वारा जनसँख्या के अनुपात में आरक्षण दिया गया तो हाइकोर्ट ने इस पर यह कहकर रोक लगा दिया कि आरक्षण 50 % से अधिक हो रहा है। लेकिन ईडब्ल्यूएस मामले में यही कोर्ट मौन हैं जबकि उसको लागू करने पर आरक्षण की सीमा 60% तक हो गयी है।
एक अन्य फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरक्षण मूल अधिकार नही है। हम सरकार को इसे लागू करने को नही कह सकते । सरकार चाहे तो इसे लागू करे। तब जब मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ की सरकारों ने आरक्षण लागू किया तो हाइकोर्ट ने क्यों रोक दिया? भारत के न्यायालयों में फैसले हो रहे है न्याय बहुत कम।
ओबीसी आरक्षण पर दूसरा हमला अब किया गया है।
वर्ष 2017 में ओबीसी वर्ग के सैकड़ो चयनित आईएएस को क्रीमी लेयर के मामले में फंसाकर कार्यभार ग्रहण नही करवाया गया। मामला आगे बढ़ने पर सरकार ने ओबीसी के क्रीमी लेयर के सम्बंध में एक कमेटी बनाई । बी बी शर्मा की अध्यक्षता ने गठित इस कमेटी ने अपनी सिफारिशें दे दी है और अब इसी सिफारिश के आधार पर सरकार ओबीसी आरक्षण को लगभग समाप्त करने का प्रावधान करने जा रही है।
अब तक क्रीमीलेयर की गणना में कृषि व वेतन से प्राप्त आय की गणना शामिल नही थी। पर अब सरकार इसमे वेतन की आय को शामिल करने जा रही है। इसको इस तरह समझिये। जिसको 60,000 रुपये महीने मिलते है, उन्हें आरक्षण नही मिलेगा अर्थात जो अपने बच्चों को पढ़ने लिखने भर का कमा सकतें है उनके बच्चों को आरक्षण नही मिलेगा और जो पढा सकने भर की भी आय नही रखते उन्हें आरक्षण मिलेगा तो इसका सीधा अर्थ यह है कि आरक्षण प्रायः समाप्त।
सरकार ने पूरी योजना के तहत सरकारी शिक्षण संस्थायों को बदमान किया, शिक्षकों को गैर शैक्षणिक गतिविधियो में लगाकर प्रायः विद्यालयों में शिक्षा का स्तर गिराया। उसका बजट कम किया, नई नियुक्ति के बजाय विद्यालयों को स्वम् वित्त की व्यवस्था करने का निर्देश दिया, उनका निजीकरण किया। नतीजा की सरकारी व्यवस्था या तो दयनीय या समाप्त। आरक्षित वर्ग के गरीब विद्यार्थी सरकारी व्यवस्था के सहारे पढ़ते और उनका स्तर निम्न कर दिया गया तो इन विद्यालयों के उत्पाद आरक्षण लेकर भी कुछ नही कर पाएंगे। और जो ओबीसी के लोग थोड़े आर्थिक रूप से अक्षम उन्हें आरक्षण ही नही मिलेगा। अतः आरक्षण समाप्त हो गया ऐसा क्यों न कहा जाय।
समय देखिए. जब मंडल कमीशन लागू हो रहा था तो राम मंदिर निर्माण आंदोलन, कमंडल यात्रा के नाम पर ओबीसी को आरक्षण के प्रति जागरूकता से दूर किया गया. और अब जब कमंडल यात्रा और राममंदिर निर्माण आंदोलन सफल हुआ तो ओबीसी का ध्यान मंदिर की ओर करके आरक्षण पर दूसरा सबसे बड़ा हमला किया जा रहा है.
शानदार नतीजे देखिये. धर्म बचाने निकले ओबीसी को आरक्षण गंवाना पड़ रहा है. मंदिर ट्रस्ट में इनकी भागीदारी भी शून्य है. कुछ नेता और संगठन ओबीसी आरक्षण को लेकर समय समय पर जागरूकता अभियान और मांग करते रहते हैं. इसी बीच ओबीसी की जनगणना की मांग जोर पकड़ी है. मंडल साहब के समय इनकी आबादी 52 % बताई गई थी वह भी 1931 की जनगणना के आधार पर. समय समय अन्य जातियों को भी ओबीसी में शामिल किया जाता रहा .इसी आधार पर अब ओबीसी की आबादी 60 % से अधिक बताई जाती है और इनकी गणना की मांग की जाती रही। इस पर वर्तमान केंद्र सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में सदन में यह आश्वासन दिया था कि 2021 की जनगणना में ओबीसी की गणना कराई जाएगी पर वह इस वादे से भी मुकर गयी।
ओबीसी के साथ लगातार छल हो रहा है। 60% की आबादी को 5% प्रतिनिधित्व कहा से न्यायोचित है। अभी ओबीसी को सरकार द्वारा निर्धारित प्रतिनिधित्व भी नही मिला कि इसे कमजोर करके प्रायः समाप्त करने की ओर कार्य किया जाने लगा। न्यायालयों ने भी समय समय पर आरक्षण की भावना के विपरीत फैसले दिए। जैसे आरक्षित अभ्यर्थी अनारक्षित वर्ग में सीट नही पाएंगे चाहे वे कितना भी अंक पाप्त कर ले। और अन्य भी ऐसे ही कई फैसले लगातार दिए। इसके पीछे का कारण यही है कि न्यायालयों में आरक्षित वर्गों का प्रतिनिधित्व न के बराबर होना है।
कमंडल वालो के साथ ही ओबीसी के भी कुछ लोग तर्क देते है कि आरक्षण समाप्त हो जाये तब भी हम अपनी सीट ले लेंगे पर उन्हें पता होना चाहिए कि जब आरक्षण लागू है तो 60% आबादी होने पर सेवाओ में मात्र 5% प्रतिनिधित्व पाएं है जब आरक्षण समाप्त हो जाएगा तो क्या हश्र होगा। इसको देखना है तो उन जगहों को देख लिजिये जहाँ आरक्षण लागू नही है। आंखे खुल जाएँगी, भ्रम टूट जाएगा।
कहाँ हमे मंडल कमीशन की सभी सिफारिशें लागू करने के लिए लड़ना था, ओबीसी के लिए 60% आरक्षण लागू करने के लिए लड़ना था ,ओबीसी जनगणना के लिए लड़ना था , समस्त सरकारी खर्च होने वाली जगहों पर व प्राइवेट में आरक्षण के लिए लड़ना था,पर हालात देखिये की हमे प्राप्त आरक्षण को बचाने के लिए संघर्ष करने की नौबत आ गयी है। ओबीसी वर्ग पर आज बहुत बड़ा खतरा आन पड़ा है। तो भी यदि हम जाति के रूप मे लड़तें रहे तो अपना आरक्षण गवां देंगे।