पूर्वांचल में गेहूं की कटाई में कंबाइन हार्वेस्टर ने अब मजदूरों की भूमिका पूरी तरह खत्म कर दी है. तीन दशक पहले पंजाब से चल कर पूर्वांचल की जमीन पर आए विशालकाय कंबाइन हार्वेस्टर ने इस इलाके में गेहूं की कटाई शुरू की थी. आज हालत यह है कि हर जिले में सैकड़ों की संख्या में कंबाइन हार्वेस्टर हैं. लाकडाउन में इसी क्षेत्रीय कंबाइन हार्वेस्टरों से गेहूं की कटाई जोर-शोर से हो रही है.
लॉकडाउन से फर्क इतना ही पड़ा है कि दूसरे राज्यों से आने वाले कंबाइन हार्वेस्टर बहुत ही कम संख्या में आ पाए हैं. स्थानीय कंबाइन हार्वेस्टर पर काम करने वाले चालक व उसके सहायकों को काम पर लगाने में भी देरी हुई हैं. इस कारण इस बार गेहूं की कटाई 200 से 300 रूपए प्रति एकड़ महंगी है.
गोरखपुर के कौडीराम क्षेत्र के करजंही क्षेत्र के निवासी किसान ओम प्रकाश शुक्ल ने बताया कि उनके गांव के आस-पास दो लोगों के पास कंबाइन हार्वेस्टर है. पंजाब से आने वाले कंबाइन हार्वेस्टर इस बार नहीं दिखायी दे रहे हैं. हर वर्ष पंजाब से सात-आठ कंबाइन हार्वेस्टर इस इलाके में आते थे. इस बार यही दो स्थनीय कंबाइन हार्वेस्टर गेहूं की कटाई कर रहे हैं. इस बार गेहूं कटाई का रेट 1200 रूपया एकड़ है जबकि पिछले वर्ष 900 से 1000 रूपया था. उन्होंने कहा कि इन दो कंबाइन हार्वेस्टर पर दबाव बहुत ज्यादा है और लोग जल्दी-जल्दी गेहूं की कटाई करवा लेना चाहते हैं. इसमें से एक प्रतापगढ़ की तरफ जाने वाला है.
महराजगंज जिले में राजेश मद्देशिया ने 10 वर्ष पूर्व मां वैष्णो एग्रो उद्योग की स्थापना की थी और कंबाइन हार्वेस्टर बनाने का काम शुरू किया था. उनका दावा है कि उनकी इकाई यूपी में अकेली हार्वेस्टर निर्माण इकाई हैं. कुछ इकाइयां उत्तराखंड में हैं. अब तक उन्होंने 50 कंबाइन हार्वेस्टर बनाया और बेचा है।. एक कंबाइन हार्वेस्टर की कीमत करीब 20 लाख रूपए है. उनके द्वारा बनाए गए कंबाइन हार्वेस्टर आस-पास के जनपदों के अलावा दूसरे राज्यों में भी बिके है. कुछ कंबाइन हार्वेस्टर नेपाल भी गया है.
उनका कहना था कि महराजगंज जिले में गेहूं की कटाई एक अप्रैल से शुरू हो जाती है. महराजगंज, कुशीनगर और देवरिया जिले में नदी किनारे के गांवों में गेहूं की फसल जल्दी तैयार होती है. इसलिए अप्रैल के पहले पखवारे तक गेहूं की फसल कट जाती है. इस बार लाकडाउन के कारण थोड़ी देर हुई है. कंबाइन हार्वेस्टर पर काम करने वाले स्टाफ का पास बनावने में हुई देरी के कारण भी गेहूं की कटाई थोड़ी देर से शुरू हुई है. इसके बावजूद 50 फीसदी से अधिक गेहूं की कटाई हो चुकी है. ज्यादा से ज्यादा 25 अप्रैल तक पूरी फसल कट जाएगी.
श्री मद्देशिया के अनुसार महराजगंज जिले में 500 से अधिक कंबाइन हार्वेस्टर गेहूं की कटाई करते हैं. इसमें अधिकतर स्थानीय हैं. कंबाइन हार्वेस्टर के मामले में महराजगंज जिला अब लगभग आत्मनिर्भर है.
कंबाइन हार्वेस्टर अधिकतर बड़े किसानों ने खरीदा है जो अपनी फसल की कटाई के साथ-साथ इससे अपने इलाके में गेहूं की फसल काट अच्छी कमाई कर रहे हैं.
राजेश मद्देशिया ने बताया कि महराजगंज जिले में अब 90 फीसदी गेहूं की कटाई कंबाइन हार्वेस्टर से ही होती है. हार्वेस्टर ने गेहूं कटाई को आसान बनाया है. एक घंटे में तीन एकड़ गेहूं की कटाई हो जाती है और पूरी फसल सुरक्षित घर पहुंच जाती है. उनके अनुसार मजदूरों से गेहूं की कटाई, मड़ाई में एक एकड़ फसल पर 4500 रूपए खर्च आता है जबकि कंबाइन से यह पूरा काम 1500 रूपए में हो जाता है. गेहूं की फसल कुछ ही देर में किसान के घर पहुंच जाती है.
कंबाइन हार्वेस्टर रोज 14 से 15 घंटे तक गेहूं की कटाई करते हैं. इसमें एक ही समस्या ज्यादा आती है कि तीन-चार घंटे पर ब्रेक डाउन होता है. हार्वेस्टर के उपकरणों में कटाई के दौरान टूट-फूट खूब होती है और उसकी मरम्मत की लगातार जरूरत होती है. लाकडाउन में हार्वेस्टर के मेंटीनेंस में दिक्कत आ रही है. एक कंबाइन हार्वेस्टर पर एक चालक, एक सहायक चालक, एक फोरमैन और एक हेल्पर काम करता हैं. इसके आलवा चार अन्य मजदूर भी होते हैं जो कंबाइन हार्वेस्टर के चालक, फोरमैन व सहायक के भोजन आदि के इंतजाम में लगते हैं. चालक व फोरमैन पूरे सीजन का ठेका लेकर काम करने आते हैं जो 80 हजार से एक लाख रूपए तक होता है. इन कामगारों को अमूमन एक पखवारे तक काम करना पड़ता है.
गोरखपुर, महराजगंज, देवरिया, कुशीनगर आदि जिलों में कंबाइन हार्वेस्टर चालने वाले कामगार यूपी के दूसरे हिस्सों और यूपी के बाहर से भी आते हैं.
महराजगंज जिले के कोल्हुई क्षेत्र के लालपुर गांव के किसान ओंकार सिंह ने बताया कि उनके यहां गेहूं की फसल पूरी तरह पकी नहीं है. कुछ किसान कटाई करवा रहे हैं. हार्वेस्टर से गेहूं कटाई का रेट 1200 रूपया एकड़ चल रहा है.
महराजगंज जिले के ही सिसवा क्षेत्र के बडहरा चरगहा निवासी किसान आनंद राय लाकडाउन में गोरखपुर फंस गए थे. बड़ी मुश्किल से उन्होंने 11 से 14 अप्रैल तक के लिए पास बनवाया, तब वह अपने गांव पहुंचे. उन्होंने बताया कि गन्ने के खेत में पानी चलवाना था. यह काम तो उन्होंने कर लिया लेकिन गेहूं नहीं कटवा पाए क्योंकि फसल पकने में थोडी देर थी. अब उन्हें गेहूं कटवाने के लिए एक बार फिर पास बनवाना पड़ेगा. श्री राय ने बताया कि उनके यहां 1500 से 2000 रूपए तक कंबाइन हार्वेस्टर से कटाई का रेट चल रहा है.
देवरिया के भागलपुर ब्लाक के रेवली गांव निवासी भाकपा माले नेता श्रीराम कुशवाहा ने बताया कि उनके इलाके में कंबाइन हार्वेस्टर से ही गेहूं की फसल कट रही है हालांकि उन्होंने ढाई बीघा गेहूं की फसल घर के लोगों के साथ हाथ से काटी है क्योंकि उन्हें भूसे की जरूरत पड़ती है. शेष फसल कंबाइन हार्वेस्टर से ही कटवाया है. उन्होंने बताया कि उनके बगल के गांव पिपरा में दो हार्वेस्टर हैं. बभनौली गांव में भी हार्वेस्टर है. हमारे तरफ 9 अप्रैल से गेहूं की कटाई शुरू हो गई और लगातार चल रही है.
श्री कुशवाहा ने बताया कि 50 रूपया कट्ठा यानि 1500 रूपया एकड़ गेहूं कटाई का रेट चल रहा है. पिछले वर्ष की अपेक्षा गेहूं कटाई का रेट थोड़ा महंगा है.
श्रीराम कुशवाहा बताते हैं कि हार्वेस्टर से गेहूं की कटाई से मजदूरों की रोजी मारी गयी है. एक एकड़ गेहूं काटने में 15 मजदूरों को पूरे दिन का काम मिलता है. इसके अलावा गेहूं की दंवरी में मजदूर लगते हैं. अब एक-दो हार्वेस्टर पूरे जवार के गेहूं की कटाई कुछ दिन में कर दे रहे हैं. गांव के कई दलित बटहिया पर खेती करते हैं. उन्होंने ही अपने हाथ से गेहूं की कटाई की है. हार्वेस्टर के आने के बाद गेहूं कटाई में मजदूरों की भूमिका खत्म हो गयी है. खेतिहर मजदूरों को अब धान की रोपनी के समय ही कुछ काम मिलता है. इसके अलावा गन्ने की फसल में कुछ काम मिल जाता है. जिले के कुछ इलाकों में बड़े किसान भूसे के लिए मजदूरों से गेहूं कटवाते हैं जिससे खेतिहर मजदूरों को काम मिलता है. उन्होंने बताया कि उनके गांव के खेतिहर मजदूर अब भवन निर्माण मजदूर में बदल गए हैं.
कंबाइन हार्वेस्टर से गेहूं कटाई में सबसे बड़ी समस्या डंठल की आती है. खेत में डंठल वैसे ही रह जाते हैं जिसे किसान जला देते हैं. इससे खेती की उर्वरा शक्ति पर काफी असर पड़़ता है. इसके अलावा आग लगने की घटनाएं भी काफी होती रही हैं. पर्यावरण का नुकसान होता है वह अलग.
कंबाइन हार्वेस्टर से गेहूं कटाई के कारण भूसे की किल्लत भी काफी बढ़ गयी थी और भूसा काफी महंगा हो गया. इस कारण पशुपालकों के साथ-साथ उन किसानों को भी दिक्कत हो रही थी जो गाय, भैंस रखते हैं. इधर दो-तीन वर्षों से डंठल काटने की मशीन रिपर बहुतायत में प्रयोग आ रही है. कंबाइन हार्वेस्टर रखने वाले बड़े किसानों व भूसे के कारोबार में लगे लोगों ने बड़ी संख्या में रिपर खरीदे है. अब कंबाइन हार्वेस्टर से गेहूं की कटाई होते ही रिपर से डंठल को काट कर भूसा तैयार कर दिया जाता है और किसान खेत पर ही भूसा खरीद लेते हैं.
आजकल एक ट्राली भूसे की कीमत 2000 रूपए है. एक ट्राली में लगभग 5-6 क्विंटल भूसा आता है. रिपर के प्रयोग ने भूसे की किल्लत को काफी कम किया है. रिपर से डंठल की कटाई कर भूसा बनाते समय यह भी फायदा होता है कि हार्वेस्टर से बच गयी गेहूं की बालियां भी कट जाती हैं. अक्सर नीचे गिरी हुई बालियों को हार्वेस्टर काट नहीं पाते. रिपर डंठलों की कटाई करते हुए ठीक-ठाक गेहूं दाना भी निकल आता है. कई किसान रिपर मशीन चलाने वालों को इस शर्त पर अपने खेत के डंठलों को काटने देते हैं कि उन्हें गेहूं देना होगा. अधिकतर किसान रिपर मशीन संचालकों को डंठलों की कटाई कर भूसा तैयार करने से नहीं रोकते हैं. रिपर के बढ़ते प्रयोग से खेत में गेहूं के डंठलों को जलाने की घटनाओं में कमी आ रही है.
वे किसान जो भूसे के लिए हाथ से गेहूं कटाई को तरजीह देते थे, अब गेहूं की फसल हार्वेस्टर से कटवाने लगे हैं। इससे गेहूं कटाई में थोड़ी-बहुत मजदूरी मिलने की संभावना भी खत्म हो गयी है.
हालांकि गन्ना और केले की खेती वाले इलाके में मजदूरों को खेतों में काम मिल रहा है. कुशीनगर जिला गन्ना बहुल है. भाठ इलाके-खड्डा, छितौनी, दुदही में हाल के वर्षो में केले की खेती बढ़ी है. इस क्षेत्र में खेतिहर मजदूरों को काम मिल रहा है. खड्डा निवासी दीनानाथ जायसवाल ने बतया कि उनके इलाके में खेतिहर मजदूरों का पलायन कम है क्योंकि गन्ना, केले की खेती में मजदूरों की जरूरत पड़ती है. बड़े किसान गन्ना, केला व सब्जी की खेती के अलावा गेहूं की फसल खुद की जरूरत के लिए करते हैं. इसलिए वे गेहूं की कटाई मजदूरों से ही करवाते हैं. श्री जायसवाल के अनुसार बरसात के चार महीने को छोड़ बाकी आठ महीने खेतिहर मजदूरों के लिए कुछ न कुछ काम रहता है. दुदही क्षेत्र में भी गेहूं की कटाई हाथ से हो रही है. यहां गेहूं कटाई करने वाले मजदूरों को 120 रूपया कट्ठा मिल रहा है.
हार्वेस्टर से गेहूं की कटाई को आसान तो बना दिया लेकिन उसने गांव के मजदूरों से काम भी छीना. गांवों से मजदूरों की पलायन की एक बड़ी वजह खेती के काम में मशीनों का बढ़ता उपयोग भी है. अब गांव में पूरे वर्ष खेती के काम में चंद दिन ही मजदूरों को काम मिल पाता है. यही कारण है कि मजदूरों का पलायन बढ़ा है. गांव के ज्यादातर युवा मजदूर शहरों की तरफ रख कर रहे हैं जहां उन्हें निर्माण क्षेत्र, सेवा क्षेत्र और लघु व मध्यम उद्योगों में काम मिलता है. मनरेगा ने कुछ समय तक मजदूरों का पलायन रोकने में जरूर कामयाबी हासिल की थी लेकिन कम मजदूरी, पूरे साल 100 से भी कम दिन काम मिलना, मजदूरी का देर से भुगतान आदि कारणों से खेतिहर मजदूरों का मनरेगा से मोहभंग होता गया. आंकड़े बताते हैं कि यूपी में मनरेगा में सक्रिय मजदूरों की संख्या में कमी आयी है. कई रोजगार सेवकों ने बताया कि गांवों में मनरेगा में काम की मांग महिलाएं और 55 वर्ष से उपर के मजदूर ही करते हैं क्योंकि वही गांव में बचे हुए हैं.