राम प्रसाद ‘ बिस्मिल ’ : सरफ़रोश क्रांतिकारी और संवेदनशील कवि

शाहीन अंसारी

 

” सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे है,
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है ”

भारत की आज़ादी के आंदोलन में ये पंक्तियां क्रांतिकारियों का मशहूर नारा बनी। 1921 में बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा लिखी जोश-ओ-खरोश से लबरेज़ इन पंक्तियों ने जिस स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारी को अमर बना दिया वो थे राम प्रसाद ‘बिस्मिल’। आज उस रणबांकुरे का जन्म दिन है, जिसने फांसी के फंदे को हंसते-हंसते चूम लिया।

राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ भारत की आज़ादी के आंदोलन के क्रांतिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे जिन्हें 30 वर्ष की उम्र में ब्रिटिश सरकार ने फांसी दे दी। वे मैनपुरी षड्यंत्र व काकोरी कांड जैसी कई घटनाओं में शामिल थे, तथा ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के सदस्य भी थे।

लेकिन बहुत ही कम लोग जानते हैं कि इस सरफ़रोश क्रांतिकारी के बहुआयामी व्यक्तित्व में संवेदनशील कवि/शायर, साहित्यकार, व इतिहासकार के साथ एक बहुभाषाभाषी अनुवादक का भी निवास था। ‘बिस्मिल’ उनका उर्दू तख़ल्लुस (उपनाम) था। जिसका हिन्दी मे अर्थ होता है ‘आत्मिक रूप से आहत’ । ‘बिस्मिल’ के अतिरिक्त वे ‘राम’ और ‘अज्ञात’ के नाम से भी लेख और कविताएं (शायरी) लिखते थे।

11 जून 1897 में उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में मुरलीधर और मूलमती के घर पुत्र के रूप में क्रांतिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने जन्म लिया। किशोरावस्था से ही उन्होंने भारतीयों के प्रति ब्रिटिश सरकार के क्रूर रवैये को देखा था। इससे आहत बिस्मिल का कम उम्र से ही क्रान्तिकारियों की तरफ़ झुकाव होने लगा।

उन्होंने 1916 में 19 वर्ष की उम्र में क्रांतिकारी मार्ग में क़दम रखा। बिस्मिल ने बंगाली क्रांतिकारी सचिन्द्र नाथ सान्याल और जदूगोपाल मुखर्जी के साथ मिलकर ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (एचआरए)की स्थापना की, और भारत को अंग्रेज़ी शासन से आज़ाद करवाने की कसम खायी। उत्तर भारत के इस संगठन के लिए बिस्मिल अपनी देशभक्त माँ मूलमती से पैसे उधार लेकर किताबें लिखते व प्रकाशित करते थे। 11 किताबे उनके जीवनकाल में प्रकाशित हुयी। जिनमे से एक भी गोरी सत्ता के कोप से नही बच सकी। ‘देशवासियों के नाम’ ,’ स्वदेशी रंग’, ‘मन की लहर’और ‘स्वाधीनता की देवी’ जैसी किताबें इसका उदाहरण हैं।

इन किताबों की बिक्री से उन्हें जो पैसा मिलता था उस से वो पार्टी के लिए हथियार ख़रीदते थे। साथ ही उनकी किताबों का उद्देश्य जनमानस के मन मे क्रांति के बीज बोना था। ये वो ही समय था जब उनकी मुलाकात अन्य क्रांतिकारियों जैसे, अशफ़ाक़ुल्लाह खान, रौशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी से हुई। आगे चलकर ये सभी क़रीबी दोस्त बन गए। उन्होंने ही चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ और भगत सिंह जैसे नवयुवकों को ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से जोड़ा जो कि बाद में ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ बन गयी।

कई क्रांतिकारियों के नाम जोड़ी में लिए जाते हैं। जैसे- भगत सिंह-चंद्रशेखर आज़ाद और राजगुरु। ऐसे ही बिस्मिल की कहानी अशफ़ाक़ुल्लाह खान के ज़िक्र के बिना अधूरी है। इसका कारण सिर्फ ये नही कि काकोरी कांड में ये दोनों मुख्य आरोपी थे । बल्कि एक जैसी सोच और सिद्धांत रखने वाले इन दोनों दोस्तों के दिल मे देशभक्ति का जज़्बा कूट-कूट कर भरा था। दोनों साथ रहते थे, साथ-साथ काम करते थे और हमेशा एक दूसरे का सहारा बनते। दोनों एक दूसरे को जान से भी ज़्यादा चाहते थे। दोनों ने एक साथ जान दे दी पर एक दूसरे का साथ नही छोड़ा। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में एक पूरा अध्याय अपने परम मित्र अशफ़ाक़ुल्लाह को समर्पित किया है। इनकी दोस्ती की मिसाल आज भी दी जाती है।

बिस्मिल हिन्दू-मुस्लिम एकता पर यकीन करते थे।

रामप्रसाद बिस्मिल के नाम के आगे ‘पंडित’ जुड़ा था। जबकि अशफ़ाक़ मुस्लिम थे। वो भी पंजवक्ता नमाज़ी। लेकिन इस बात का दोनों पर कोई फ़र्क़ नही पड़ता था। , क्योंकि दोनों का मक़सद एक ही था – ‘आज़ाद मुल्क’ वो भी धर्म या किसी और आधार पर हिस्सों में बंटा हुआ नही।

बिस्मिल कहते थे कि ब्रिटिश सरकार ने अशफ़ाक़ को राम प्रसाद का दाहिना हाथ क़रार दिया.  अशफ़ाक़ कट्टर मुसलमान हो कर पक्के आर्य समाजी राम प्रसाद बिस्मिल का क्रांतिकारी दाल का हाथ बन सकते हैं, तब क्या भारत की आज़ादी के नाम पर हिन्दू-मुसलमान अपने निजी छोटे-छोटे फायदों के ख़्याल न करके आपस मे एक नही हो सकते। ये पंक्ति आज भी लोगों में बहुत मशहूर है।

राम प्रसाद बिस्मिल ने कांग्रेस के 1920 में कलकत्ता और 1921 में अहमदाबाद में हुए अधिवेशनों में हिस्सा लिया। बताते है कि अहमदाबाद के अधिवेशन में मौलाना हसरत मोहानी के साथ मिलकर कांग्रेस की साधरण सभा मे ‘पूर्ण स्वराज’ का प्रस्ताव पारित करवाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। और शाहजहांपुर लौटकर ‘असहयोग आंदोलन ‘ को सफल बनाने में लग गए।

लेकिन साल 1922 में चौरा-चौरी कांड के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला किया तो कई युवाओं को उनके इस कदम से निराशा हुई। उनमे राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ भी थे। गांधी जी से मोहभंग होने के बाद ये सभी युवा क्रांतिकारी पार्टी में शामिल हो गए। इनका मानना था कि मांगने से आज़ादी मिलने वाली नही है। इसके लिए हमे लड़ना होगा।

बिस्मिल और अशफ़ाक़ दोनों ने साथ मिलकर 1925 को काकोरी कांड अंजाम दिया था। उन्हें महसूस हो गया था कि ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ एक संगठित विद्रोह करने के लिए हथियारों की ज़रूरत है, जिसके लिए पैसों के साथ-साथ प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता भी होगी। ऐसे में इस संगठन ने अंग्रेज़ सरकार की संपत्ति लूटने का निर्णय लिया। इसके जवाब में उन्होंने 9 अगस्त 1925 की रात को अपने साथियों के साथ एक ऑपरेशन में काकोरी ट्रेन में ले जाया जा रहा सरकारी खज़ाना लूटा तो थोडे ही दिन बाद 26 सितंबर 1925 को उन्हें और अशफ़ाक़ समेत उनके सभी साथियों को गिरफ़्तार कर लिया गया।

उनपर मुक़द्दमा चलाया गया जो कि 18 महीने चला, और चार क्रांतिकारी – राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ुल्लाह खान, रौशन सिंह और राजेंद्र लाहड़ी को फांसी की सज़ा सुनाई गई। इन चारों को अलग-अलग जेलों में बंद कर दिया गया। बाक़ी सभी क्रांतिकारियों को लंबे समय के लिए कारावास की सज़ा मिली।

लखनऊ सेंट्रल जेल के बैरक नंबर 11 में जेल की सज़ा काटते हुए बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा लिखी। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा के अंत मे देशवासियों से एक अंतिम विनय किया था , ‘जो कुछ करें सब करें, सब मिलकर करें और सब देश की भलाई के लिए करें। इसी से देश का भला होगा।’ इस आत्मकथा को पत्रकार गणेश शंकर विद्याथी ने ‘काकोरी के शहीद’ के नाम से उनके शहीद होने के बाद1928 में छापी थी। अपनी सज़ा के दौरान ही बिस्मिल ने -“मेरा रंग दे बसन्ती चोला…माय रंग दे बसंती चोला…
गीत की रचना की। ये गीत भी आज़ादी के आंदोलन के मशहूर गीतों में से एक है।

ज़िन्दगी भर दोस्ती निभाने वाले अशफ़ाक़ और बिस्मिल दोनों को 19 दिसम्बर 1927 को अलग-अलग जगह फांसी दी गयी। अशफ़ाक़ को फैज़ाबाद में और बिस्मिल को गोरखपुर में। फांसी पर चढ़ने से पहले बिस्मिल ने आख़री ख़त अपनी माँ को लिखा। होठों पर जयहिंद का नारा लिए मौत को गले लगाने वाले इन क्रांतिकारियों को पूरे देश ने नम आंखों से विदाई दी। भारत मां के इन वीर बेटों को श्रद्धांजलि देने के लिए सैंकड़ों भारतीयों की भीड़ उमड़ी। बिस्मिल और अशफ़ाक़ दोनों ने साथ-साथ दुनिया को अलविदा कहा और साथ ही अपनी दोस्ती भी ले गए।

” ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है “।

( लेखिका सेन्टर फ़ॉर हार्मोनी एंड पीस, वाराणसी की निदेशक हैं )