हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार संजीव के उम्र के 75वें वर्ष में प्रवेश करने के अवसर पर ‘संजीव अमृत महोत्सव समिति’ के बैनर से पूरे देश में आयोजन किये जा रहे हैं, जिसकी शुरुआत आसनसोल, पश्चिम बंगाल से हो चुकी है। इसी कड़ी में 13 नवंबर को संजीव के गाँव बाँगर कला (सुल्तानपुर, उ. प्र.) में एक आयोजन हुआ। 14 नवंबर को सुल्तानपुर के जिला पंचायत भवन में संजीव अमृत महोत्सव समिति और साहित्यिक संस्था सृजनपीठ के द्वारा भी एक आयोजन किया जाएगा।
रामलीला समिति मंच, बाँगर कलाँ का आयोजन तीन सत्रों में संपन्न हुआ। आरंभ में आयोजन के महत्त्व पर बोलते हुए कथाकार शिवमूर्ति ने कहा कि हिन्दी क्षेत्र में दिमागी उसर ज्यादा है। संजीव पर होने वाला आयोजन इस उसर क्षेत्र में एक नयी साहित्यिक शुरुआत है। उन्होंने कहा कि संजीव यहाँ पैदा हुए , पर खिले बंगाल के एक छोटे कस्बे कुल्टी में। हिन्दी पट्टी में साहित्य से संबंध रखने वाला हर कोई संजीव को जानता है। प्रेमचंद की परंपरा को उन्होंने काफी वैविध्य के साथ आगे बढ़ाया है।
इस आयोजन में मुख्य भूमिका निभाने वाले कथाकार शिव कुमार यादव ने कहा कि बाँगर कलाँ को अपने इस रत्न की कीमत समझनी चाहिए। संजीव की रचनाओं पर शोध करने वाले युवा आलोचक सुधीर सुमन का मानना था कि संजीव की यात्रा न्याय और बराबरी के लिए संघर्षरत एक रचनाकार की यात्रा है। अपने कथासाहित्य के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज को जनतांत्रिक बनाने की कोशिश की है। जाति और लिंग के स्तर पर मौजूद अन्याय, उत्पीड़न, अपमान आदि का उन्होंने सतत प्रतिरोध किया है।
पहले सत्र में कथाकार संजीव का ग्रामीणों की ओर से अभिनंदन किया गया तथा उनके कथानायकों का भी सम्मान किया गया। संजीव की कथा पात्र जस्सी बहू बीमार होने के कारण नहीं आ पायी थीं, तो उन्हें उनके घर जाकर सम्मानित करने का निर्णय हुआ। इस मौके पर संजीव की पत्नी प्रभावती जी, उनके बचपन के मित्र रामशिरोमणि पांडेय, उनके भाई के सहकर्मी और रचनाओं के पाठक चर्चित शिक्षक उदयभानु सिंह के साथ-साथ आयोजन में शामिल वक्ताओं को भी सम्मानित किया गया।
संजीव के मित्र रामशिरोमणि पांडेय ने ‘दोस्ती’ फिल्म के गीत को गाकर सबको भाव-विह्वल कर दिया। संजीव के परिवार के लगभग सारे सदस्य इस अवसर पर मौजूद थे। इस मौके पर अवधी के लोकगायक बृजेश यादव ने लोकगीत सुनाया।
दूसरे सत्र में ‘हिन्दी कथा साहित्य में गाँव और संजीव’ विषयक परिचर्चा में बोलते हुए आलोचक रविभूषण ने जोर देकर कहा कि बाँगर कलाँ का नाम गाँव के बाहर संजीव के कारण ही जाना जाएगा। समस्या यह है कि हम राजनीति को ज्यादा महत्त्व देते हैं, परंतु शासन-प्रशासन के पद पर रहे लोग जब वहाँ से हट जाते हैं, तो प्रायः लोग उन्हें भूल जाते हैं। राजनीति कुछ देर के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकती है, पर संस्कृति हमेशा महत्त्वपूर्ण होती है। एक लेखक का नाम सैकड़ों-हजारों वर्षों तक जीवित रहता है। संजीव हमारे बेशकीमती कथाकार हैं। वे बाँगर कलाँ और अवध क्षेत्र के गौरव हैं। भारत के गाँवों की जितनी भी समस्याएँ हैं, संजीव ने अपनी कहानियों में उन समस्याओं को चित्रित किया है और संकटों का समाधान तलाशने की कोशिश की है। जातिगत भेदभाव, बेरोजगारी, किसान आत्महत्याओं तथा बच्चों और महिलाओं से जुड़े किसी भी सवाल को संजीव ने नहीं छोड़ा है। उनके कथा-साहित्य में भारतीय समाज का जीवन संपूर्णता में चित्रित हुआ है। संजीव समाज की बेहतरी के कथाकार हैं, वे समाज के सुंदर भविष्य का सपना देते हैं। वे जनता के लेखक हैं और उनकी कैसे हिफाजत हो, यह जनता को सोचना होगा। उनके ग्रामीणों को भी यह भूमिका निभानी होगी।
बृजेश यादव ने कहा कि संजीव अपनी विचारधारा को छिपाते नहीं है। भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज जिस कदर विचारशून्य और विचारहीन हो चुका है, उससे उसकी मुक्ति जरूरी है। हिन्दी आलोचना को भी विचारधारा पर पर्दा नहीं डालना चाहिए, बल्कि संजीव जिस तरह अपनी रचनाओं में खुलकर भारतीय समाज के संकटों के निदान के लिए अपने जो स्पष्ट विचार व्यक्त करते हैं, उस पर गौर करना चाहिए।
रामप्रकाश कुशवाहा ने कहा कि जैसे कोई मरीज डॉक्टर के पास जाता है, उसी तरह हिन्दी भाषी समाज को संजीव की कहानियों और उपन्यासों के पास जाना चाहिए। नेहरू युग में साहित्य के भीतर नेतृत्व पर सवाल प्रायः नहीं उठाये जाते थे, लेकिन संजीव और उनके समकालीन कहानीकारों ने व्यवस्था के जनविरोधी स्वरूप को उजागर करने और उसे बदलने को अपना लक्ष्य बनाया। उनकी कहानी ‘अपराध’ हिन्दी कहानी में एक महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप थी।
कौशलेंद्र ने आल्हा और झांसी की रानी के प्रसंगों की चर्चा करते हुए कहा कि जो लोग छूट गये हैं या जिन्हें जानबूझकर छोड़ दिया गया है, उनकी कथा लिखने की हिम्मत होनी चाहिए, जैसी हिम्मत संजीव ने दिखाई है। बजरंगबली कहार ने कहा कि संजीव मेहनतकश वर्ग और स्त्रियों के प्रति संवेदनशील कथाकार हैं। उदयभानु सिंह का मानना था कि उनकी कहानियों में आम ग्रामीणों की सच्चाई नजर आती है। सुरेशचंद्र शर्मा ने कहा कि गावों को उपेक्षित करके साहित्य जयी नहीं हो सकता। रामप्यारे प्रजापति ने कहा कि संजीव ने अपने पात्रों के अनुभवों को जिया है, उसे गहराई से महसूस किया है, उसके बाद उनके जीवन को चित्रित किया है। परिचर्चा का संचालन युवा आलोचक सुधीर सुमन ने किया।
अंतिम सत्र में आजमगढ़ की नाट्य संस्था ‘सूत्रधार’ ने संजीव की कहानी ‘झूठी है तेतरी दादी’ की नाट्य प्रस्तुति की। एक स्त्री जिसे गलती से किसी और पुरुष का दुल्हन बना दिया जाता है, उसके जीवन की सच्चाइयों के जरिये इस कहानी में संजीव ने संकेत किया है कि जाति की अवधारणा ही स्त्री विरोधी है। तेतरी दादी के बेटे तो ब्राह्मण बन जाते हैं, पर वे अंत्यंज ही बनी रह जाती हैं। नाटक का निर्देशन अभिषेक पंडित ने किया तथा ममता पंडित, डॉ. अलका सिंह, रणजीत सिंह, रीतेश रंजन, सूरज यादव ने मुख्य भूमिकाएँ निभायीं। नेपथ्य से संजीत भी शामिल रहे। संचालन रोहित प्रसाद पथिक ने किया।
इस आयोजन में चार राज्यों- झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश से साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी शामिल हुए। वक्ताओं के अतिरिक्त चर्चित कवि अष्टभुजा शुक्ल, कवि निशांत, रघुवंश मणि त्रिपाठी भी मौजूद थे।