लखनऊ। अंबेडकर जयंती के मौके पर 16 अप्रैल को जन संस्कृति मंच की ओर से ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और सामाजिक न्याय आंदोलन’ विषय पर यूपी प्रेस क्लब, हजरतगंज में सेमिनार का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति ने की। उन्होंने कहा कि गांधी जी और अम्बेडकर दोनों मेरे प्रिय हैं। लेकिन इन दिनों में चयन करना हो तो मैं अम्बेडकर को चुनूंगा। वे और उनके विचार आज बहुत जरूरी हैं। उनसे आगे बढ़ने की रोशनी मिलती है। सोचता हूं कि यदि अंबेडकर नहीं होते तो क्या होता। यह विचार का विषय है। इससे हम अंबेडकर के महत्व और उनके योगदान को समझ सकते हैं।
मुख्य वक्ता के रूप में सेमिनार को संबोधित करते हुए प्रोफेसर रविकांत ने कहा कि बीसवीं सदी गांधी-नेहरू की रही है तो इक्कीसवीं सदी डा अम्बेडकर की है। स्वाधीनता आंदोलन में एक तरफ राजनीतिक आंदोलन था तो उसी के साथ सामाजिक न्याय का भी आंदोलन चल रहा था। एक तीसरा भी आंदोलन था जिसका आधार सांप्रदायिक था। उसी का विस्तार हम मौजूदा सत्ता में देखते हैं।
प्रो रविकांत का कहना था कि अंबेडकर का जीवन सामाजिक न्याय के लिए समर्पित था। इसमें श्रमिकों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों सहित वंचित तबके के सवाल निहित थे। बाबा साहब ने अपने सामाजिक न्याय विचार को संविधान के माध्यम से अमली जामा पहनाया। बाद में नक्सलबाड़ी, अर्जक संघ, दलित पैंथर, बामसेफ आदि के द्वारा यह आगे बढ़ा है। वर्तमान में यह सांस्कृतिक लड़ाई बन चुका है। यह 22 प्रतिज्ञाओं को दोहराये जाने का वक्त है।
प्रो रविकांत का यह भी कहना था कि गांधी और अम्बेडकर के रास्ते भले अलग हों लेकिन उनकी चिन्ता में समानता है। यह आम धारणा है कि पूना पैक्ट में डॉ अम्बेडकर की पराजय हुई जबकि इसका विश्लेषण किया जाय तो इसमें गांधी की ही हार दिखेगी। इससे दलितों को शिक्षा, रोजगार आदि क्षेत्रों में आरक्षण मिला।
विशिष्ट वक्ता के रूप मे बोलते हुए डॉ रामायन राम का कहना था कि हिंदू संस्कृति जाति और वर्ण व्यवस्था पर आधारित है। यह भारतीय फासीवाद के मूल में है। भाजपा-संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का यही आधार है। इसका मूल उद्देश्य पुराने वर्ण संस्कारों को स्थापित करना तथा अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध जातियों को एकजुट करना है। यह इतिहास को विकृत करता है। दलित जातियों के साथ स्त्रियों को कैद करना जाति व्यवस्था का हिस्सा है। हिंदू समाज की बुराइयां इसी से निकली हैं। डॉक्टर अंबेडकर का सारा जोर इसके विरुद्ध है। अंतर्जातीय विवाह की बात इसी व्यवस्था को तोड़ने के लिए उन्होंने की थी।
डॉ रामायन राम ने अम्बेडकर की भारत विभाजन पर लिखी तथा ‘बुद्ध और मार्क्स’ किताबों का संदर्भ देते हुए अपनी बात रखी। उनका कहना था कि आंबेडकर की शुरू से यह मान्यता रही है कि जाति उन्मूलन के बिना आधुनिक राज्य नहीं बन सकता है। उनके पास लोकतांत्रिक समाज का एक विस्तृत प्रोजेक्ट था। पिछले 75 वर्षों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर किया गया जबकि उसे मजबूत करना था तथा उसका विस्तार करना था। लोकतंत्र के सिद्धांत ‘समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व’ को अंबेडकर ने फ्रांस की राज्यक्रांति से ही नहीं ग्रहण किया बल्कि बौद्ध दर्शन के जरिए भी उन्हें मिला। बौद्ध मत के उदय को वे पहली क्रांति मानते हैं तथा उसके विरुद्ध किए गए हमले को प्रतिक्रांति के रूप में देखते हैं। जहां तक सामाजिक न्याय का प्रश्न है इसे नौकरियों के आरक्षण तक सीमित करके नहीं देखा जाना चाहिए।
सेमिनार का आरंभ कवि, साहित्यकार व सामाजिक चिंतक भगवान स्वरूप कटियार ने की। उनका कहना था
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आर एस एस का वह एजेंडा है जिसके तहत वह हमारी विविधतापूर्ण साझी विरासत और साझे संघर्ष से उपजी गंगा जमुनी संस्कृति का ब्राह्मणीकरण करना चाहता है। कट्टर ब्राह्मणवाद ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। तानाशाही के जरिए नियंत्रित बाजार के द्वारा क्रोनी पूंजीवादी को पोषित करना भी उसका मकसद है।
डॉ महेश प्रजापति (संस्थापक सन्तराम बी ए फाउंडेशन, शाहजहाँपुर) ने कहा कि समता, बंधुत्व और न्याय पर आधारित समाज में ही एकता और राष्ट्रवाद की भावना पैदा हो सकती है। आजादी के बाद हमने भौतिक प्रगति अवश्य की लेकिन समाज को आदर्श रूप नहीं दे सके। अस्पृश्यता की बात कुछ हद तक छोड़ दें तो जाति- उन्मूलन और साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित करने में हम पूरी तरह विफल रहे हैं। बिना साम्प्रदायिक सद्भाव का राष्ट्रवाद छद्म राष्ट्रवाद साबित होगा।
कार्यक्रम का संचालन जसम लखनऊ के सचिव फ़रज़ाना महदी ने किया तथा सह सचिव राकेश कुमार सैनी ने सभी को धन्यवाद ज्ञापित किया। इस मौके पर रामजी राय, चन्द्रेश्वर, अवधेश कुमार सिंह (कानपुर), कौशल किशोर, सुभाष राय, प्रतुल जोशी, आलोक कुमार, धर्मेन्द्र कुमार, ऋत्विक दास, आदियोग, राजीव प्रकाश गर्ग, आर के सिन्हा, विमल किशोर, नगीना निशा, कल्पना पांडे, तस्वीर नक़वी, अवन्तिका सिंह, अलका पाण्डेय, के के वत्स, अशोक चन्द्र, अशोक वर्मा, के के शुक्ला, वीरेंद्र त्रिपाठी, ज्योति राय, अरविन्द शर्मा, आयुष श्रीवास्तव, शुभम सफीर आदि की मौजूदगी थी।