लखनऊ। शिवमूर्ति में कुछ प्रेमचंद भी हैं और कुछ रेणु भी। उनका उपन्यास ‘अगम बहै दरियाव’ कृषक जीवन, ग्रामीण समाज और इसके जरिये पूरे भारतीय समाज को समझने के लिए ‘ गोदान ’ और ‘ मैला आंचल ’ की अगली कड़ी है।
यह बात प्रख्यात आलोचक प्रो. रविभूषण ने ‘अगम बहै दरियाव’पर जन संस्कृति मंच द्वारा सात जुलाई को लखनऊ के कैफी आजमी एकेडमी सभागार में आयोजित परिचर्चा-संगोष्ठी में अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कही। उन्होंने कहा कि ‘अगम बहै दरियाव ’ इतना कुछ समेटे हुए है कि आलोचकों और सजग पाठकों से भी बहुत कुछ छूट जाए। 22 अध्याय और 585 पन्नों वाला यह उपन्यास कमजोर के पक्ष में और जाति, धर्म, वर्ण व्यवस्था, अन्याय के विरुद्ध है। यह साहित्य के पाठकों के लिए जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही समाजशास्त्रियों, राजनीतिविदों और न्यायपालिका से जुड़े लोगों के लिए भी। इस उपन्यास को दलित विमर्श, स्त्री विमर्श जैसे किसी विमर्श में नहीं बांधा जा सकता। यह समय के विमर्श के दायरे में जाता है। उन्होंने कहा कि शिवमूर्ति ने जिस गहराई से जाति व धर्म को देखा है, वह अद्भुत है। उन्होंने दिखाया है कि जाति-धर्म का जाल कैसे मानवता विरोधी है, संविधान विरोधी है। इस उपन्यास को समझने के लिए हमें बार-बार इससे बाहर निकलना पड़ता है, जिसके लिए यह कई कपाट खोलता है। उन्होंने कहा, ‘अगम बहै दरियाव ’ स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के पक्ष में लिखा गया है। यह ‘तंत्र’ को हटाकर ‘लोक’ को प्रतिष्ठित करता है।
प्रो रविभूषण ने कहा कि उपन्यास की विशेषता यह भी है कि इसमें 200 से अधिक पात्र हैं जिनमें 15 से अधिक पात्र याद रखने वाले हैं। उन्होंने उपन्यास में नौटंकी, लोक गीतों, सांस्कृतिक रस्मों के समावेश पर भी विस्तार से चर्चा की।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे गोरखपुर विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर युवा आलोचक डॉ राम नरेश राम ने उपन्यास का परिचय कराते हुए कहा कि यह वंचित तबके के न्याय बोध और न्याय के लिए उसके संघर्ष की गाथा है। उन्होंने कहा कि ‘साहित्य में उपेक्षित वर्ग की भाषा’ बनाम ‘स्थापित वर्ग की भाषा’ के सम्बंध में उपन्यास भाषा का नया क्रिटिक पेश करता है। चार दशक की कथा भूमि में मज़दूर, किसान, उपेक्षित स्त्री के जीवन की पहचान की अनेक धाराओं को पेश करते हुए वह सब बयान हुआ है जो स्पष्ट रूप से आज हमको राजनीति, सामाजिकी, न्यायनीति इत्यादि में दिखायी दे रहा है। किसानों की आत्महत्या, लिंचिंग, आनर किलिंग, कोर्ट-कचहरी, पुलिसिया छल, सामन्तवाद के उभार और उसके क्षरण, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और संस्थाओं का ‘ग़रीब का दुश्मन’ होने की प्रक्रिया पर यह उपन्यास एक सार्थक हस्तक्षेप है।
पहले वक्ता के रूप में अधिवक्ता हरिंद्र प्रसाद ने कहा कि कानून और न्यायिक प्रक्रियाओं को लेकर शिवमूर्ति की गहरी समझ चौंकाती है। इस मामले में वह वकीलों को भी मात देते लगते हैं। उन्होंने कहा कि लेखक ने किसान से जुड़े कानूनों को बहुत बारीकी से देखा है। चकबंदी और दीवानी मुकदमों में किसानों के पिसने का जीवंत चित्रण किया है।
स्त्रीवादी लेखिका रूपम मिश्र ने कहा कि यह उपन्यास श्रमशील स्त्रियों के कठिन जीवन, नैसर्गिक सौंदर्य का आख्यान है। वे अपने पिता और पति से लड़ लेती हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें संभाल भी लेती हैं। स्त्रियों की प्रतिरोध क्षमता को दर्ज करने के साथ-साथ, यह उपन्यास आजादी के बाद के सभी बड़े प्रसंगों इमरजेंसी, मंडल, मंदिर आंदोलन, अस्मिता के संघर्षों इत्यादि को दर्ज करता है। उन्होंने कहा कि ‘अगम बहै दरियाव’एक ऐसे समाज का चित्रण है जहां जीवन बरसों से ठहरा हुआ है। जिन सपनों को लेकर आजादी की लड़ाई लड़ी गयी थी, उनके सपना ही रह जाने की कहानी है यह।
उन्होंने कहा कि चार दशकों की सामूहिकता और अकेलेपन को समेटे इस नॉवल में सियासी गतिशीलता का बयान इस तरह है कि उपन्यास सामयिक भारतीय राजनीति के क्षरण पर एक दस्तावेज़ भी बन जाता है। सोना और बबलू के प्रेम प्रसंग के संदर्भ में रुपम मिश्र ने बहुत ही सारगर्भित चर्चा पेश की कि कैसे सोना का पति को उसके भविष्य और वर्तमान की चिंता नहीं बल्कि अतीत के अन्वेषण में डूबा रहता है। स्त्री अस्मिता और उसकी गरिमा के उज्जवल आदर्श सोना सहित अनेक पात्र हैं जो श्रमशील समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो न्याय-अन्याय का अंतर समझती हैं और सामंती मूल्यों का विरोध और उनका संघर्ष उनके कथित अपनों के खिलाफ़ कर देता है। वह समाज से ही नहीं बल्कि सत्ता से भी प्रतिरोध करती है।
लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर सूरज बहादुर थापा ने कहा कि गोदान (1936), मैला आंचल (1954), राग दरबारी (1967) के बाद शिवमूर्ति का लेखन, खासकर ‘अगम बहै दरियाव’, भारतीय समाज और व्यवस्था का संपूर्ण चित्र प्रस्तुत करता है। शिवमूर्ति जैसा लेखक ही ‘अमृत काल’ में ‘गरल काल’ की कथा लिख सकता है। उन्होंने साहित्य के माध्यम से आजादी से लेकर अब तक का भारतीय सामाजिक इतिहास लिख डाला है। ‘अगम बहै दरियाव’ उन्हें सबाल्टर्न उपन्यासकार का दर्जा दिलाता है। ‘अगम बहै दरियाव’ दलित चेतना के उभार और दलित जीवन में बदलाव का दस्तावेज है। स्त्री जीवन के प्रति संवेदना भी अद्भुत है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए नेपथ्य में शहनाई पर लगातार एक मातमी धुन बजती हुई महसूस होती है।
समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने कहा कि उपन्यास का केंद्र बिंदु आजादी के बाद का जीवन है। इसका शीर्षक समय की धारा, जीवन की धारा को निरूपित करता है। उपन्यास कानून के जाल और उसके जरिये इंसाफ मिलने के भ्रमजाल को बखूबी सामने लाता है। यह दिखाता है कि कानून गरीबों को डराये रखने और अमीरों को चैन की नींद सुलाने के लिए है। उपन्यास में किसी पात्र विशेष को आदर्श नहीं बनाया गया है, बल्कि सामान्य पात्रों में जीवन मूल्य की उच्चता केंद्र में है। उन्होंने कहा कि यह दलित और अतिपिछड़े समाज की चेतना ही है जिसने बीते लोकसभा चुनाव में लोकतंत्र को अपने ढंग से दिशा देने की कोशिश की।
प्रोफेसर रमेश दीक्षित ने कहा कि ‘अगम बहै दरियाव’ आंचलिक उपन्यास के रूप में लिखा गया है, लेकिन बनकट गांव पूरे भारतवर्ष की तस्वीर पेश करता है। ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि पर अब तक जितने उपन्यास लिखे गये हैं, यह उन सबसे कहीं आगे का है। उन्होंने कहा, इस उपन्यास में हम देखते हैं कि सारा शोषण-दमन कानून के दायरे में हो रहा है। यह उपन्यास पुलिस और न्याय व्यवस्था का पर्दाफाश करता है। दिखाता है कि किसानों के लिए कर्ज का जाल अब भी वही है, बस महाजनों की जगह बैंक आ गये हैं। उन्होंने उपन्यास से उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि अल्पसंख्यकों द्वारा बहुसंख्यकों के शोषण का सबसे पुख्ता इंतजाम है वर्ण व्यवस्था। प्रो दीक्षित ने उपन्यास की ‘खिलंदड़ी’ भाषा को खास तौर पर सराहा और कहा कि हमारे जीवन से गुम हुए अवध अंचल के तमाम ग्रामीण शब्दों की इसने फिर से याद दिलायी है।
कार्यक्रम के समापन से पूर्व, लोक गायक ब्रजेश यादव ने ‘अगम बहै दरियाव’ में शामिल गीतों पर आधारित अपनी रचनाएं प्रस्तुत कीं, जिनके केंद्र में स्त्री जीवन और भारत की विसंगतियां थीं।
कार्यक्रम की बाक़ायदा शुरुआत जन संस्कृति मंच, लखनऊ इकाई के सचिव फ़रज़ाना महदी ने कार्यक्रम की रूपरेखा बयान करते हुए वक्ताओं और श्रोताओं का स्वागत करते हुए की।
परिचर्चा-संगोष्ठी में बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी, बुद्धिजीवी, लखनऊ के सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद थे।