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प्राइवेट स्कूल बढ़े, जेब कटी, शिक्षा गिरी

सरकारें आती हैंजाती हैं। शिक्षा नीति के दस्तावेज बनते हैंबिगड़ते हैं। लेकिन इस देश की अलिखित शिक्षा नीति कभी नहीं बदली। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के नाम पर अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने के मुखौटे के भीतर शिक्षा नीति का सच है   ‘ सरकारी से ही प्राइवेट की ओर’, ‘मिशन से धन्धे की ओर’ तथा ‘पढ़ाई से पैसे की ओर ’। ज्यों-ज्यों देश आगे बढ़ रहा हैत्यों-त्यों सरकार शिक्षा की बुनियादी जिम्मेदारी से अपना हाथ खींच रही है। ज्यों-ज्यों ग्रामीण और गरीब मां-बाप को शिक्षा का महत्व समझ आ रहा हैत्यों-त्यों शिक्षा के अवसर उनकी पहुंच से दूर जा रहे हैं। विडम्बना यह है कि मां-बाप अपना पेट काटकर बच्चों को जिस प्राइवेट अंग्रेजी मीडियम स्कूल में भेजने की होड़ में लगे हैंवहां बच्चे को न शिक्षा मिलती है और न ही अंग्रेजी।

इस सच की पुष्टि पिछले सप्ताह भारत सरकार के राष्ट्रीय सैंपल सर्वे द्वारा प्रकाशित ‘व्यापक वार्षिक मॉड्यूलर सर्वेक्षण’ 2022-23 के माध्यम से हुई है। इस व्यापक और विश्वसनीय सर्वेक्षण के अनुसारदेश में से 10 साल के बीच के दो-तिहाई (यानी 66.7 प्रतिशत) बच्चे प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में जाते हैंशेष एक तिहाई अब प्राइवेट स्कूलों में जा रहे हैं। मतलब यह है कि कोरोना महामारी के चलते बच्चों को वापस सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाने का जो सिलसिला चला थावह फिर पलट गया है।

शहरी और ग्रामीण इलाकों में बहुत बड़ी खाई दिखाई देती है। शहरों में एक-तिहाई से थोड़े ही ज्यादा (37 प्रतिशत) बच्चे प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी स्कूल में जा रहे हैंतो ग्रामीण भारत में तीन-चौथाई  (77 प्रतिशत) बच्चे सरकारी स्कूल में जा रहे हैं। गौरतलब है कि अब गांवों के भी एक-चौथाई (23 प्रतिशत) बच्चे प्राइवेट प्राथमिक स्कूलों में दाखिला ले रहे हैं। यह राष्ट्रीय औसत भ्रामक हैक्योंकि पूर्वी भारत के गरीब राज्यों यानी असमत्रिपुराबंगालओडिशाबिहार और छत्तीसगढ़ में अब भी 80 प्रतिशत से अधिक बच्चे सरकारी प्राथमिक स्कूलों में जा रहे हैं। जिन राज्यों में थोड़ी-बहुत सम्पन्नता आई हैवहां के सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों का अनुपात तेजी से गिर रहा है।

इस सर्वेक्षण के अनुसार हरियाणाकेरलतमिलनाडुतेलंगानामणिपुर और मेघालय जैसे राज्यों में कुल मिलाकर सरकारी स्कूलों से अधिक बच्चे प्राइवेट प्राथमिक स्कूलों में पढ़ रहे हैं। प्राइवेट स्कूल की तरफ इस दौड़ का असली कारण यह नहीं है कि अचानक लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा आ गया है। बात सिर्फ इतनी है कि ये अब झुग्गी-झोंपड़ी और गांव में रहने वाले गरीब परिवार को भी आभास हो गया है कि अगली पीढ़ी की जिंदगी बनाने का एक यही तरीका है कि उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाई जाएजिससे वे बढि़य़ा पैकेज प्राप्त कर सकें। इसके लिए वे अपने और बाकी खर्चों में कटौती कर शिक्षा पर खर्च करने के लिए तैयार हैं। इसके चलते शिक्षा के नाम पर दुकानें खुल गई हैंखुली लूट मच रही है।

इस पक्ष पर सरकारी आंकड़े कमजोर हैं लेकिन 2017-18 के राष्ट्रीय सैंपल सर्वे ने अनुमान लगाया था कि प्राथमिक शिक्षा में हर बच्चे को प्राइवेट स्कूल में भेजने पर कुल मासिक खर्च 1,200 रुपए प्रति महीना थाजबकि सरकारी स्कूल के बच्चों पर परिवार का कुल खर्च सिर्फ 100 रुपए प्रति महीना था। हायर सैकेंडरी स्कूल तक आते-आते प्राइवेट स्कूल का खर्चा प्रति विद्यार्थी प्रतिमाह 2,000 रुपया थाजबकि सरकारी स्कूल में सिर्फ 500 रुपए।

इस अनुमान के बाद पिछले साल में यह खर्च कम से कम डेढ़ गुना बढ़ गया है। ग्रामीणों इलाकों के सस्ते प्राइवेट स्कूलों में सिर्फ मासिक फीस ही 1000-1500 रुपए हैजबकि थोड़े बेहतर ग्रामीण स्कूलों में यह 2,000-2,500 रुपए प्रति माह है। बाकी खर्च अलग हैं। छोटे शहर के बड़े स्कूलों में 5000-10,000 रुपया प्रति माह का खर्च सामान्य बात हो गई है। दो बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजने वाला ग्रामीण परिवार अपनी मासिक आय का 10वां हिस्सा सिर्फ शिक्षा पर खर्च करने के लिए मजबूर है।

खर्च के बोझ को भूल कर चलिए सिर्फ शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान दें। ‘प्रथम’ नामक संगठन पिछले 20 साल से ग्रामीण भारत के बच्चों की शिक्षा की गुणवत्ता का वाॢषक सर्वेक्षण ‘असर’ प्रकाशित कर रहा है।

वर्ष 2022 में किए अंतिम सर्वेक्षण के अनुसार कक्षा में पढऩे वाले बच्चों को जब उनकी ही कक्षा की पाठ्य पुस्तक का उनकी ही मातृभाषा में एक सरल सा पैरा पढऩे को कहा गया तो ग्रामीण प्राइवेट स्कूलों के दो-तिहाई बच्चे उसे पढ़ नहीं सके।  उन्हीं स्कूलों के 5वीं कक्षा के बच्चों को कक्षा की पाठ्य पुस्तक का वही पैरा पढऩे को कहा गयातब भी 43 प्रतिशत उसे नहीं पढ़ पाए। यहां तक कि 8वीं कक्षा के भी 20 प्रतिशत बच्चे इस टैस्ट में फेल हो गए।

यही बात गणित पर लागू होती है। कक्षा के बच्चों को जोड़-घटाव आना चाहिएलेकिन ग्रामीण प्राइवेट स्कूलों के बहुसंख्य बच्चे (57 प्रतिशत) दो अंकों का सामान्य सा हासिल वाला घटाव (जैसे ‘41 में से 13 घटाइए’) नहीं कर पाए। उन्हीं स्कूलों की 5वीं कक्षा के आधे से ज्यादा (60 प्रतिशत) और 8वीं कक्षा के लगभग आधे (45 प्रतिशत) विद्यार्थी सामान्य सा भाग (जैसे ‘928 को से भाग दीजिए’) हल नहीं कर पाए।

बेशक इन सब पैमानों पर सरकारी स्कूलों के बच्चों की हालत और भी खराब हैलेकिन प्राइवेट स्कूलों में भी बच्चों को गुजारे लायक तक शिक्षा नहीं मिल रही है। अगर हम उस अंग्रेजी की बात करेंजिसके लालच में सब अभिभावक अपने बच्चों को इन महंगे प्राइवेट स्कूलों में भेज रहे हैंतो उसमें भी बच्चों का हाथ तंग है।

ग्रामीण प्राइवेट स्कूलों (अधिकांश अंग्रेजी मीडियम) में 5वीं कक्षा में पढऩे वाले आधे से कम बच्चे (47 प्रतिशत) अंग्रेजी का एक साधारण-सा वाक्य पढ़ सकते थे और केवल 29 प्रतिशत उसका अर्थ बता सकते थी। 8वीं  कक्षा में भी एक-तिहाई बच्चे वही साधारण सा अंग्रेजी का वाक्य नहीं पढ़ सकते थे और आधे से ज्यादा उसका अर्थ नहीं जानते थे। यह है हमारी तथाकथित अंग्रेजी मीडियम शिक्षा की हकीकतजिसमें न तो बच्चे को अंग्रेजी आती हैन मां-बाप को और न ही अध्यापक को।

यह है देश की असली ‘नई शिक्षा नीति’ – शिक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण। इसके सहारे राजनीति में शिक्षा माफिया खड़ा हो रहा हैजो सरकारी स्कूलों को चौपट करने पर आमादा है। संविधान में दिया शिक्षा का अधिकार बस एक क्रूर व्यंग्य बन कर रह गया है।

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