राहुल यादुका
13 मार्च को होलिका दहन है और 14 मार्च को लोग रंग और अबीर वाली होली खेलेंगे। 7 मार्च 2025 को बिहार के अपर पुलिस महानिदेशक (अपराध अनुसंधान विभाग और कमजोर वर्ग प्रभाग) ने एक पत्र जारी किया जिसका विषय निम्नलिखित है।
“सस्ते दोहरे अर्थ वाले/ अश्लील भोजपुरी गानों (द्वि-अर्थी गानों) के प्रसारण का मानव-समाज पर हो रहे दुष्प्रभाव व उनके निराकरण के संबंध में।”
इस पत्र में ये भी लिखा गया है कि ऐसे गानों के कारण महिलाओं का अपमान होता है और उनके साथ-साथ बच्चों को असुरक्षित महसूस होता है। इसको एक “ज्वलंत सामाजिक समस्या” कहा गया है। साथ ही उपरोक्त गानों के प्रसारण को रोकना इस ज्वलंत सामाजिक समस्या का “निदान” बताया गया है। इस आलोक में भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 296/79 और “अन्य सुसंगत धाराओं” के सहारे पुलिस को कार्रवाई करने की जिम्मेदारी दी गई है।
ऐतिहासिक संदर्भ और सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई
कुछ अर्थों में ये पुलिसिया फरमान एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। कोई भी लोकविमर्श में रहने वाला व्यक्ति इस बात से अवगत होना चाहिए कि भोजपुरी गीतों के बारे में एक धारणा है कि वो अश्लीलता परोस रहे हैं। ‘धारणा’ शब्द का प्रयोग इसलिए ताकि इसकी पड़ताल की जा सके। इसमे कोई शक नहीं कि विगत कुछ वर्षों में भोजपुरी गीतों में सामाजिक रूप से वर्जित यौनसंबंधों के इर्दगिर्द गीत लिखे गए हैं। ये भी स्वीकार्य है कि महिलाओं का वस्तुकरण भी किया गया है। इसलिए ये लेख इसका प्रयास नहीं करता कि भोजपुरी गीतों में अश्लीलता बढ़ी नहीं है। हालांकि उसपर भी थोड़ी रोशनी डाली जानी चाहिए।
बिहार की बात करें तो गुजरे 20-25 वर्षों में भोजपुरी संगीत और सिनेमा काफी बदला है। यहाँ एक बात स्पष्ट कह देना उचित होगा कि हम शुरुवात से नैतिक आग्रहों से बहस को सीमित नहीं करेंगे। इसका ये मतलब भी नहीं कि नैतिक बहस को खारिज किया जा रहा है। बहरहाल, मेरे ध्यान में पवन सिंह के गीत “लॉलीपॉप लागे लू” ने भोजपूरी गीतों को राज्य और देश की सीमाओं के बाहर ले जाकर उसका भूमंडलीकरण किया। जाहिर है कि अगर भिखारी ठाकुर को “पूरब का शेक्सपेयर” कहा जाता है तो उनकी पहुँच देश के बाहर रही होगी। इसलिए ऐसा नहीं कि ये भोजपुरी संगीत के विस्तार का पहला दौर है। इस गीत के बाद और यूट्यूब के प्रसार ने भोजपुरी गीतों के उत्पादन को एक संरचनात्मक आधार दिया जिससे ये एक उद्योग के रूप में विकसित हुआ। बीतते समय के साथ इन गीतों के बोल और विषयवस्तु में कामुकता का जिक्र बढ़ा है इसमें कोई शक नहीं। इसको लेकर गैर-भोजपुरी भाषाभाषी लोगों का एक दोहरा चरित्र नजर आता है। एक तरफ इसका उपभोग भी लोग कर रहे हैं और दूसरी तरफ इसकी निंदा भी। हिन्दी, मैथिली या अन्य भाषाओं की अश्लील गीतों को लोकसंस्कृति के नाम पर स्वीकार किया जाता है लेकिन ये सुविधा भोजपुरी के पास नहीं है। साथ ही भोजपुरी में कुछ खास तरह के गानों को रेखांकित करके पूरे भोजपुरी साहित्य को खारिज करने के प्रयास दिखते हैं। ये सांस्कृतिक वर्चस्व का मामला है। इसके लिए कोई भी ग्रामशी को पढ़कर समझ सकता है। लेकिन अभी हम विषयांतर के खतरे से बचने के लिए इस दोहरे व्यवहार में निहित सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई में नहीं जाएंगे। यहाँ हमारा ध्यान एक अलग पक्ष पर है। पहले उसको स्पष्ट तरीके से रखना जरूरी है।
कानून और नैतिकता के अंतरसंबंध
मेरी चिंता इस होली के अवसर पर जारी किये गए पुलिसिया पत्र में है। ये पत्र जितने सवालों का जवाब नहीं देता, उससे अधिक सवाल खुद पर खड़े करता है। इस आदेश में बहुत से ऐसे शब्दों का प्रयोग है जो बिल्कुल वस्तुनिष्ठ नहीँ हैं जैसे ‘ सस्ते, द्विअर्थी, अश्लील’ आदि। साथ ही ‘ ज्वलंत सामाजिक समस्या’ और ‘निदान’ भी ऐसे शब्द नहीं जिनकी वस्तुनिष्ट व्याख्या संभव है। ये शब्द एक तरह का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। ये गौरतलब है कि इन निष्कर्ष प्रस्तुत करने वाले शब्दों को ऐसे प्रयोग किया गया है मानो वो स्वयंसिद्ध हों। इस संदर्भ में उत्तरआधुनिक दर्शन बेहद महत्वपूर्ण हो उठता है जो ‘टेक्स्ट’ में छुपे ‘कांटेक्स्ट’ को खोजने का प्रयत्न करता है, इसके पीछे शक्ति-समीकरण को टटोलता है और फिर भीतर से इस कृत्रिम निष्कर्ष को चुनौती देता है। फुको और देरीदा जैसे चिंतक हमारे मार्गदर्शक हो सकते हैं जो हमें किसी भी विमर्श को ‘डीकंस्ट्रक्ट’ करना सिखा गए हैं।
एक तरफ सांस्कृतिक वर्चस्व के संदर्भ में उपरोक्त वस्तुनिष्टता का अभाव है और दूसरी तरफ ये महावाक्य कि “लॉज आर मॉरल मिनमम” यानी कानून दरअसल सामाजिक नैतिकता को राज्य के दंड देने की क्षमता से जोड़ते हैं। क्योंकि कानून बन जाने से कोई भी नैतिक मूल्य राज्य का समर्थन पा लेता है इसलिए ये बेहद जरूरी है कि इसमे किसी तरह की धारणा या मान्यता न हो या कम से कम हो। कानून का आधार तथ्यों पर होना चाहिए जिसकी स्वीकार्यता समाज में व्यापक रूप से हो। इससे ये भी समझ आता है कि किसी एक खास वर्ग के आग्रह कानून का आधार नहीं हो सकते।
दूसरी समस्या ये है कि वस्तुनिष्टता के अभाव में अश्लील, द्विअर्थी आदि शब्दों की व्याख्या कौन करेगा। या तो राज्य ये मान के चल रहा है कि इसमे कोई बहस ही नहीं है। जिस तरह से पत्र के सब्जेक्ट लाइन में “ सस्ते दोहरे अर्थ वाले/ अश्लील भोजपुरी गानों” को एक युग्म के रूप में प्रस्तुत किया गया है उससे ये संदेश जाता है कि भोजपुरी गानों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। संविधान कहता है कि भेदभाव का आधार ‘रीज़्नबल डिफरेन्शिया” होना चाहिए यानी किसी पुष्ट आधार पर ही भेदभाव जायज है। इससे ये भी अर्थ निकलता है कि राज्य मनमुताबिक व्यक्तिनिष्ट आग्रहों से संचालित होकर कानून नहीं बना सकता। इसके कानूनी पक्ष तो हैं ही, साथ ही इससे भोजपुरी भाषाभाषी समाज की सामाजिक स्थिति को धक्का लगता है।
तीसरा बड़ा खतरा ये है कि इससे जमीनी स्तर पर इस कानून को लागू करने वाले अधिकारियों के पास अत्यधिक शक्ति आ जाएगी क्यूंकी पत्र में भारतीय न्याय संहिता की जिन धाराओं का उल्लेख है, उसमे बिना वारंट के गिरफ़्तारी संभव है। लिहाजा इस शक्ति के दुरुपयोग की संभावना अधिक है। जिस तरह का नैतिक बल ये पत्र पुलिस को देता है, उससे शक होना लाजिम है कि क्या हम सच में एक उदारवादी लोकतंत्र में रहते हैं!
निष्कर्ष
होली एक मस्ती से जुड़ा त्योहार रहा है। बचपन से सुनते आ रहे हैं कि होली के मौके पर लोग आपसी मनमुटाव को भूलकर एक नई शुरुवात करते हैं। एक और वाक्य होली से जुड़ी भावना को प्रकट करता है – “बुरा न मानो, होली है”। इसका एक अर्थ ये भी है कि होली में लोग परंपरागत सामाजिक व्यवहार के परे जाकर एक प्रकार की सहूलियत ले सकते हैं। कहाँ कितनी सहूलियत ली जा सकती है, ये एक संदर्भ-केंद्रित बात है जो समय के साथ बदलती भी रहती है। एक तरफ ये व्यवहार लोगों को झिझक की दीवार गिराकर करीब आने का मौका देता है, वहीं दूसरी तरफ इसके बहाने कुछ लोग अमर्यादित आचरण भी करते हैं। ये दोनों बातें देश, काल और पात्र पर निर्भर करती हैं।
इसलिए ये जरूरी है कि समाज मायोपिया का शिकार न हो और अपनी सुविधा के लिए किसी भाषा के साहित्य के एक अंश लेकर उसको पूरे साहित्य पर प्रक्षेपित न करे। राज्य को चाहिए कि वो शक्तिशाली वर्ग के पूर्वाग्रहों से स्वतंत्र होकर कानून बनाए। विपक्षी दलों पर ये जिम्मेदारी है कि सरकार को तानाशाह होने से रोके न कि सरकार के विधायकों की गलती को आधार बनाकर राजनीति करे (गोपाल मण्डल प्रकरण) और दूसरी तरह से ऐसे फरमानों को मजबूती दे।
अगर सरकार अश्लीलता और महिलाओं और बच्चों के लिए गंभीर है तो उसको अश्लील गीतों के उत्पादन और वितरण पर लगाम लगानी चाहिए। और इसके लिए वस्तुनिष्ट मापदंड बनाने चाहिए। उपभोक्ताओं को निशाना बनाना सरकार का रवैया बन गया है। शराब के मामले में भी बिहार सरकार यही करती दिखती है। ये सर्वविदित है कि शराबबंदी के बाद शराब उत्पादन गलत तरह से हो रहा है, अनेक राज्यों से आ रहा है, नकली माल बिक रहा है। लेकिन सरकार उसको नियंत्रित करने में या तो विफल है या उसकी नीयत ही नहीं है।
नागरिकों के अधिकार सीमित करना किसी भी संवैधानिक सरकार का आखिरी कदम होना चाहिए। याद रखने की जरूरत है कि राज्य अगर इस तरह कानून बनाने का आदि हो गया तो सबकी स्वच्छंदता खतरे में है।
(राहुल यादुका ने आईआईटी बॉम्बे से बीटेक करने के बाद अंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली से ‘ कोसी रिवर फ्लड पॉलिसी ‘ पर शोध किया है। वे कोसी पीपुल्स कमीशन से भी जुड़े हैं )