गोरखपुर। ‘ स्वामी विवेकानंद समाजिक स्वाधीनता के संघर्ष किया। उनका कहना था कि धर्म उपासना की स्वाधीनता तो देता है लेकिन इसमें सामाजिक स्वाधीनता नहीं है। जाति भेद ने इसको बुरी तरह से जकड़ लिया है। इसको तोड़ना होगा। धर्म को सामाजिक स्वाधीनता के लिए आगे आना होगा। उन्होंने धर्म की नई भाषा दी और उसे नया बनाया। नए-पुराने को मिलना सिखाया। ‘
यह बातें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व आचार्य अवधेश प्रधान ने 20 अप्रैल को दोपहर ‘आयाम ‘ द्वारा गोरखपुर जर्नलिस्ट्स प्रेस क्लब में आयोजित ‘ सनातन का विवेक और विवेकानंद ‘ विषय पर आयोजित विमर्श कार्यक्रम में बतौर मुख्य वक्ता कही।
प्रो अवधेश प्रधान ने कहा कि स्वामी विवेकानंद ने धर्म के अविरोधी स्वभाव को प्रस्तुत करते हुए कहा कि जो व्यक्ति धर्म को दूसरे धर्म के विरोध के रूप में देखता है वह धर्म के मूल को नहीं समझता। धर्म केवल सत्य का वरण करता है। स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म सभा में कहा कि वह किसी धर्म की ओर से बोलने नहीं आए हैं बल्कि चार हजार पुरानी परम्परा की ओर से बोलने आए हैं। हमारा धर्म मानवीय और सहिष्णु है और हम सभी धर्मों को सत्य मानते हैं। यदि एक धर्म सत्य है तो सभी धर्म सत्य है। सभी धर्मों का प्रवर्तन मनुष्य के आध्यात्मिक, मानसिक और चारित्रिक उन्नति के लिए हुआ है।
उन्होंने कहा कि स्वामी विवेकानंद के भारत में दिए गए व्याख्यान और उनके द्वारा लिखे गए पत्रों को गहराई से पढ़ा जाना चाहिए। भारत में एक वर्ष में विभिन्न स्थानों में दिए गए व्याख्यानों में स्वामी विवेकानंद अपने देश की गिरी हुई स्थिति, जाति व्यवस्था, स्त्रियों की स्थिति को लेकर गहरे क्रोध से भरे हुए हैं। वे कहते हैं कि वेद-वेदांत में बहुत उंचा आदर्श व्यक्त किया गया है लेकिन उसे अनुरूप आचरण नहीं हैं। चींटी से लेकर ब्रह्म तक में एक आत्मा का आदर्श है तो करोड़ो लोगों से छुआछूत और भेदभाव क्यों बरता जा रहा है ? स्त्रियों के विवाह और शिक्षा के मसले पर समाज अपना निर्णय क्यों थोप रहा है ? इसी दोहरेपन पर उन्होंने कहा कि हिंदू धर्म में आदर्श तो उंचा है लेकिन आचरण ओछा है। हमें अपने चिंतन के अनुरूप आचरण करना चाहिए।
प्रो प्रधान ने कहा कि अपने पत्रों में स्वामी विवेकानंद वेद और शास्त्रों में कही कई कई बातों को प्रश्नांकित करते हैं। वे उपनिषदों की जमीन पर खड़े होकर निर्भीकता पूर्वक प्रश्न करते हैं।
उन्होंने कहा कि स्वामी विवेकानंद ने आधुनकि भारत के नेताओं को आधुनिक बनाया। उन्होंने राज्य को जनता के आधार पर खड़ा किया और कहा कि हर हालत में राज व्यवस्था का आधार जनता ही होनी चाहिए। वह जनता से जितना दूर होता जाता है, उतना ही कमजोर होता जाता है। अपनी इसी सोच के कारण उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में कांग्रेस नेताओं की इसलिए आलोचना की कि वे केवल लम्बे-लम्बे भाषण देते हैं, बड़े -बड़े प्रस्ताव तैयार करते हैं लेकिन जनता से जुड़ने का प्रयत्न नहीं करते। देश के लिए कुछ करने की बात नहीं करते।
स्वामी विवेकानंद ने सबसे बड़ा धर्म मानव की सेवा बताया। उन्होंने सन्यासियों को गृहस्थों से विशिष्ट न मानते हुए उन्हें मानवता की सेवा से जोड़ा। इस तरह उन्होंने बुद्ध के बाद एक बार धर्म को मनुष्यता से जोड़ा। उन्होंने कहा कि सबमें ईश्वर है लेकिन मनुष्य में उसकी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुर्ह है। इसलिए मनुष्य के रूप में ईश्वर की पूजा करो। उन्होंने कहा कि भारत ने अंतरजगत की साधना की है तो यूरोप ने सामाजिक संगठन की साधना की है। यूरोप के सामाजिक संगठन और भारत के आध्यात्मिक संदेश के समन्वय से एक नई मानवता जन्म लेगी।
विषय प्रवर्तन करते हुए प्रो.राजेश मल्ल ने राहुल सांकृत्यायन और नेहरू जी की टिप्पणियों की चर्चा के बहाने कहा कि भारतीय ज्ञान परम्परा संवाद के माध्यम से अद्यतन की यात्रा है।
इसके पूर्व अतिथियों का सम्मान करते हुए आयोजन की प्रासंगिकता पर आयाम के संयोजक देवेन्द्र आर्य ने कहा कि सनातन और भारतीयता से दूरी बनाए रखने के कारण प्रगतिशील वामपंथी विचारधारा ने काफी नुकसान उठाया है। हमें नये सिरे से सनातन और उसके विवेक को समझना होगा।
विशिष्ट वक्ता, गाजीपुर से प्रकाशित श्रीगंगा ज्योति पत्रिका के सम्पादक डा.माधव कृष्ण ने कहा कि सनातन के सत्य, शिव, सुन्दर के सिद्धान्त को विवेकानन्द ने समूचे विश्व में विस्तारित किया और धर्म के वास्तविक मर्म को समझाया। वह भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के जनक थे। उन्होंने भारतीयों में सनातन के प्रति गौरव का भाव भरा और उन्हें आत्महीनता से उबारा। माधव कृष्ण ने सनातन के व्यावहारिक और सैद्धांतिक, दोनों प्रकार के विवेक की विस्तार से चर्चा की।
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो.चित्तरंजन मिश्र ने डा. विद्यानिवास मिश्र की परिभाषा दोहराई कि जो हमें परम्परा से मिला है और जो हम अपनी अगली पीढ़ियों को सौंपते हैं, वही सनातन है। प्रदान करने और प्राप्त करने में विवेक की आवश्यकता होती है। उन्होंने धर्म के नाम पर हो रही सत्ता पोषित अनर्गल गतिविधियों को सनातन धर्म के विरुद्ध बताया। उन्होंने कहा कि आज संवाद पर ही सबसे अधिक हमला है। सत्ता में बैठे लोग चाहते हैं कि सभी लोग उनकी हां में हां मिलाएं। धर्म और समाज की बहुलवादी रूप की उल्टी व्याख्या की जा रही है।
कार्यक्रम का सुगठित संचालन अजय कुमार सिंह ने किया।
इस अवसर पर प्रो.हर्ष सिन्हा, प्रो. गौर हरि बेहरा, डा.फूलचन्द प्रसाद गुप्त, वेद प्रकाश श्रीवास्तव, रवीन्द्रमोहन त्रिपाठी, धर्मेन्द्र त्रिपाठी, जगदीश लाल श्रीवास्तव, महादेव मानव, मनोहर लाल खट्टर, प्रदीप सुविज्ञ , मनोज सिंह, अशोक चौधरी, संतोष कुमार त्रिपाठी, प्रदीप कुमार विश्वकर्मा, उषा सिंह, विनोद प्रधान, विजय कुमार सिंह, संतोष कुमार श्रीवास्तव उपस्थित रहे।