सैयद फरहान अहमद
गोरखपुर, 1 अक्तूबर। मुस्लिम समुदाय द्वारा मुहर्रम माह में तमाम अनाजों को मिलाकर “खिचड़ा” पकाया जाता है। “खिचड़ा” बहुत ही अनोखा पकवान है जो सिर्फ इस्लामी नए साल के मुहर्रम माह में ही बनता है । मिस्र में इसे तबीखुल हुबूब के नाम से जाना जाता है।
खिचड़ा पकाने का सिलसिला हजारों साल पहले हुए पैगम्बर हजरत नूह अलैहिस्सलाम ने शुरु किया था। जो आज भी बदस्तूर जारी है। यह दुनिया के तमाम मुल्कों में पकाया जाता है, लेकिन भारत और खासकर गोरखपुर में बनाया जाने वाला खिचड़ा कुछ हट कर है। गोरखपुर में जिस तरीके से विभिन्न मसालों का उपयोग इसे बनाने के लिए किया जाता है वह खिचड़े के जायके में चार चांद लगा देता है।
गोरखपुर में मुहर्रम के दस दिनों में और खासतौर पर दसवीं मुहर्रम को इसे पकाने का रिवाज है। ‘खिचड़ा’ पका कर इस पर ‘फातिहा-नियाज’ की जाती है। मुहर्रम की दसवीं तारीख को जगह-जगह स्टाल लगाकर मुस्लिम समुदाय द्वारा खिचड़ा बाटने की परम्परा सैकड़ों साल पुरानी है। इसका धार्मिक महत्व भी है। इस सभी प्रकार के अनाज से मिलाकर बनाया जाता हैं। सभी अनाजों को इकट्ठा करके एक बड़े बर्तन में पकाया जाता हैे। मुहर्रम पर इसी ‘खिचड़ा’ पर फातिहा होती हैं। लोगों का अकीदा है कि ‘खिचड़ा’ (तमाम अनाजों को मिलाकर) पाकर फातिहा करने से साल भर तमाम अनाजों व गल्लो में बरकत होती है। खिचड़ा पका कर लोग एक दूसरे को दावत भी देते हैं और एक दूसरे के घर भी भेजते हैं। गेहूं, जौ, तमाम तरह दालें, चावल, गोश्त, दर्जनों किस्म के मसाले को एक साथ मिलाकर पकाया जाता हैं। इस पकवान में बहुत मेहनत लगती है वहीं यह महंगा भी है लेकिन इसे गरीब-अमीर हर तबका बड़े चाव से पकाता व खाता हैं।
खिचड़ा पकाने में चार से पांच घंटे का समय लगता हैं। 30 आदमियों के लिए खिचड़ा तैयार करने में करीब चार हजार रुपया तक का खर्च आता हैं। बहुत सारी जगहों पर इसे लकड़ी के चूल्हे पर बनाया जाता है।

रहमतनगर की रहने वाली अध्यापिका सल्तनत खातून बतातीं हैं कि खिचड़ा पारम्परिक डिश है। जो हजारों सालों बन रही है। इस डिश को पकाने के लिए माश की दाल, गेहूं, कटा जौ, मूंग की दाल, मसूर की दाल, चना की दाल, मटर की दाल, चावल, प्याज, हरी मिर्च, अदरक, लहसून, नमक, तेजपत्ता, हल्दी, मिर्चा, गरम मसाला, धनिया, धनिया की पत्ती, गोश्त, सरसों का तेल आदि की आवश्यकता होती हैं। 20-22 आदमियों के लिए गैस पर खिचड़ा पकाने में 2 घंटा का समय लगता हैं वहीं लकड़ी के चूल्हे पर पांच से छह घंटा लग जाता हैं। तमाम दालों, गेहूं, चावल की साफ सफाई में खासा वक्त लगता हैं। उन्होंने बताया कि रात में या दो से तीन घंटे पहले सभी दालों को अच्छी तरह चुन कर साफ करना पड़ता हैं। फिर सबको अलग-अलग बर्तनों में भिगो कर रखा जाता है। पकाते समय दालों को निचौड़कर कूकर में डाला जाता है। दालों को गला लिया जाता है।
दाल गलाने के दौरान दो गिलास पानी, हल्दी पाउडर, कटी हुई प्याज, कटी मिर्च, 3-4 तेजपत्ता, 2अदद अदरख और नमक हस्बे जायका (स्वादानुसार) व अन्य मसाला डाला जाता हैं। जब सारी दाले गल जाती है तो 5 किलो के भगौने में सभी दालों को डाल जाता हैं और पहले से भुना पकाया गोश्त भी डाल दिया जाता है। सभी को अच्छी तरह मिक्स कर दिया जाता है। खिचड़ा पक जाने के बाद उसमें तड़का लगाने के लिए देसी घी गर्म करेंगे और उसमें तेज पत्ता, लौंग, दाल चीनी को डालेंगे और खिचड़े में तड़का लगा देंगे। खिचड़ा तैयार। पूरी प्रकिया में दो घंटे का समय लगता है।
इलाहीबाग की आलिया बानो मुहर्रम में खास तरीके से खिचड़ा बनाती है। वह लकड़ी के चूल्हे पर 60-70 आदमियों के लिए खिचड़ा पकाती है। यह खिचड़ा बनाकर तमाम घरों में भी भेजवाती हैं।
बक्शीपुर के उमर आलम उर्फ वीरु भी खिचड़ा बनाने के एक्सपर्ट हैं। उन्होंने बताया कि खिचड़ा बनाने में छह घंटे का समय लगता है। 20-25 चीजों की जरुरत पड़ती हैं। एक खास किस्म का गेहूं जो सिर्फ मुहर्रम में मिलता हैं इसमें पड़ता है। मुहर्रम में खिचड़ा खूब झूमकर बनता है। महंगा व मेहनत ज्यादा लगने के बावजूद इसे खूब शौक से पकाते व खाते हैं।
मुफ्ती मोहम्मद अजहर शम्सी ने ‘खिचड़ा’ के मुताल्लिक बताया कि रिवायत मे आता है कि खास मुहर्रम के दिन खिचड़ा पकाना पैगम्बर हजरत नूह अलैहिस्सलाम की सुन्नत है। चुनांचे मंकूल है कि हजरत नूह अलैहिस्सलाम की कश्ती तूफान से नजात पाकर जूदी पहाड़ पर ठहरी हो वह दिन आशूरह यानी 10वीं मुहर्रम का था। हजरत नूह ने कश्ती के तमाम अनाजों को बाहर निकाला तो फोल (बड़ी मटर), गेहूं, जौ, मसूर,चना, चावल, प्याज यह सात किस्म के गल्ले मौजूद थे। आप ने उन सातों को एक हांडी में लाकर पकाया। चुनांचे अल्लामा शहाबुद्दीन कल्यूबी ने फरमाया कि मिस्र में जो खाना आशूरह के दिन तबीखुल हुबूब (खिचड़ा) के नाम से मशहूर है उसकी असल व दलील यही हजरत नूह अलैहिस्सलाम का अमल है। खिचड़ा वगैरह बांटने में सवाबे खैर है।