प्रो. सदानन्द शाही
शरद की नवरात्रि स्त्री शक्ति की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। इन दिनों दुर्गा अपनी विशेष शक्तियों के साथ जाग्रत होती हैं. नवरात्रि में कन्याओं की पूजा करने का चलन है क्योंकि वे दुर्गा के जीवित विग्रह के रूप में जानी और मानी जाती हैं। नवरात्रि के पहले दिन जब दुर्गा का शैलपुत्री रूप देश भर में फैले दुर्गा पूजा के पंडालों में अवतरित हो रहा था, ठीक उसी दिन शाम को ‘सर्व विद्या की राजधानी’ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पवित्र परिसर में शोहदे सिक्योरिटी के ऐन सामने हॉस्टल को लौटती एक छात्रा से छेड़खानी कर रहे थे। घटना के विरोध में पहले शैलपुत्री, फिर ब्रहम्चारिणी, फिर चंद्रघंटा फिर कूष्मांडा, फिर स्कंदमाता, फिर कात्यायनी, फिर कालरात्रि, फिर महागौरी, फिर सिद्धिदात्री, और इस तरह हजारों दुर्गाएं जुटती चलीं गईं।
छात्राओं का उत्साह चरम पर था। वे अपने भीतर उतर आई दुर्गाशक्ति को महसूस कर रही थीं। वे रोज-रोज के उत्पीड़न से तंग आ गयी थीं। वे आर-पार की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार थीं। उनकी बस इतनी सी मांग थी कि परिसर को सुरक्षित बनाया जाय। सुरक्षा के पक्के इंतजाम किए जाएँ। सी.सी.टी.वी. कैमरा लगे, परिसर में पर्याप्त प्रकाश व्यवस्था हो और शोहदों पर कारवाई हो। वे अपने कुल के मुखिया से मिल कर अपनी इतनी सी बात रखना चाहती थीं।
कुल के मुखिया इस पूरे घटना क्रम को तवज्जो नहीं दे रहे थे। क्योंकि ऐन उसी दिन बनारस के सांसद और ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा बुलंद करने वाले भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी शहर में मौजूद थे। विश्वविद्यालय प्रशासन, जिला प्रशासन, प्रदेश प्रशासन और देश की सरकार सब प्रधानमंत्री के दौरे को सफल बनाने में मशगूल थे। सब यही सोच रहे थे कि वजीरे आला की यात्रा सही सलामत हो जाय फिर लड़कियों को देख लिया जाएगा। अगर ऐसा नहीं होता तो जिला प्रशासन ने 22 सितम्बर को दुर्गा मंदिर जा रहे प्रधानमंत्री का आनन-फानन में रास्ता नहीं बदलवाया होता। उससे कम मेहनत में प्रधानमंत्री को यह बात बताई जा सकती थी कि हजार लड़कियां धरने पर बैठी हैं और एक सुरक्षित परिसर की मांग कर रही हैं। प्रधानमंत्री जरूर मौके की नजाकत को समझते और वे छात्राओं के बीच चले जाते। प्रधानमंत्री जितने वाकपटु हैं वे इस अवसर को ऐतिहासिक अवसर में बदल देते। उन्हें अपना ‘बेटी प्रेम’ साबित करने के लिए उसी शाम तुलसी मानस मंदिर में दो बच्चियों से प्रायोजित भेट पर निर्भर नहीं होना पड़ता। इसकी तुलना में देश की बेटियों से सीधे मिलना उन्हें ज्यादे अच्छा लगता। देश भर की लड़कियों के बीच उनकी छवि महानायक जैसी निखर आती। लेकिन यह तो प्रधानमंत्री की बनारस यात्रा की व्यवस्था देख रहे लोगों और रणनीतिकारों की चूक थी, जिन्होंने अपने प्रधानमंत्री को इतने बड़े अवसर से वंचित कर दिया और लगे हाथ अदृष्य से विपक्ष को खड़ा होने का अवसर भी दे दिया।
बाद में यह साबित करने की झूठी कोशिश की गई कि यह धरना प्रधानमंत्री के दौरे में बाधा डालने के लिए प्रायोजित था। दिमागी तौर पर दिवालिया हुए बिना यह बात नहीं सोची जा सकती कि 21 सितंबर की शाम हुई छेड़खानी की घटना प्रायोजित थी। धरने पर बैठी लड़कियों के नारे बता रहे थे कि वे न तो प्रधानमंत्री के खिलाफ थीं और न ही मुख्यमंत्री के। वे सिर्फ सुरक्षित परिसर की मांग कर रही थीं। उनका सारा ध्यान इस पर केन्द्रित था कि ‘बेटियाँ बचेंगी तब पढ़ेंगी’। वे सिर्फ यह चाहती थीं कि प्रशासन उनकी बात सुन ले। वे निचले स्तर पर अपनी बात कहते-कहते थक गयी थीं। इसलिए विश्वविद्यालय के मुखिया से ही मिलना चाहती थीं। उन्हें उम्मीद थी कि मुखिया उनकी बात सुन लेंगे तो समाधान निकल आएगा। लेकिन रणनीतिकारों ने ऐसा नहीं होने दिया।
असल में ‘रणनीति’ और ‘नीति’ से मिलकर ‘राजनीति’ बनती है। दुर्भाग्य से हमारी राजनीति में रणनीति का पलड़ा भारी हो गया है। नीति के लिए जगह लगभग समाप्त हो गई है। यही वजह है कि हमारे कर्णधारों का जनता पर भरोसा नहीं रह गया है और उसी अनुपात में जनता का भी कर्णधारों पर से भरोसा उठ गया है।
प्रशासन यह मान कर चल रहा था कि छात्राओं का धरना वास्तविक समस्या नहीं, विपक्ष की करामात है। अगर यह न मान लिय गया होता तो प्रधानमंत्री के अलावा शहर में मुख्यमंत्री, कपड़ा मंत्री, और कुलपति सब मौजूद थे। किसी का वहाँ चले जाना और उनकी बात सुन लेना काफी था। जब 23 सितंबर की शाम छात्राओं को यह बताय गया कि कुलपति तभी मिलेंगे जब छात्राएँ परिसर के भीतर जाएंगी। देखते-देखते छात्राएँ सिंहद्वार से महिला महाविद्यालय के गेट पर आ गईं और कुलपति के आने का इंतजार करने लगीं। यदि समय पर लड़कियों से बात की गयी होती तो उन्हें बिना लाठी-डंडे के भी समझाया जा सकता था। इसे रणनीति का ही कमाल कहेंगे कि महज दो सौ मीटर की दूरी तय करने में कुलपति को तीन से ज्यादा घंटे लग गए, फिर भी वे नहीं पहुंच सके। यह रणनीति ही थी कि इस शांतिपूर्ण आंदोलन में अराजक तत्त्वों को शामिल होने का अवसर दिया गया और प्रशासन को लाठीचार्ज करने का।
असल समस्या यह है की हमारे आदर्श और यथार्थ जीवन में प्रायः फांक रहती है। हम जब जो सुविधाजनक होता है उसे सामने कर देते हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय का कुलगीत हमारा आदर्श है, लेकिन उससे परिसर की जो रूमानी छवि बनती है वह यथार्थ से बहुत दूर है। गिनिये तो पिछले दिनों दर्जन भर ऐसी घटनाएँ हुई हैं जिसमें शिक्षक पीटे गए हैं, अपमानित किये गए हैं, जब चाहें तब कक्षाओं में निर्दोष छात्रों को शोहदे पिट दे रहे हैं, ना कोई शिक्षक आवाज उठा सकता और न ही छात्र। ‘मधुर मनोहर अतीव सुन्दर’ पर अराजक तत्वों ने ग्रहण कर लिया है। छेड़खानी की यह अकेली घटना नहीं है। यह ऊंट की पीठ पर आखिरी तिनका था। छात्रावासों में रहने वाली और शहर से आने वाली लड़कियां आये दिन इसका शिकार होती रही हैं। पिछले कुलपति के कार्यकाल में भी लडकियों को कुलपति आवास के सामने धरना देना पड़ा था। तब भी मामले को हल्के में लिया गया।
दर असल समस्या की जड़ें बहुत गहरी हैं। हमारे समाज की तरह हमारे शिक्षण संस्थान भी पितृसत्ता के गिरफ्त में हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय इसका अपवाद नहीं है। हम स्त्रियों का सम्मान ‘बेटी’, ‘बहन’ और ‘माँ’ के रूप में ही कर पाते हैं। नागरिक के रूप में उनका सम्मान करने की इजाजत पितृसत्ता नहीं देती। इसीलिए तथाकथित शिक्षित समुदाय भी लैंगिक समानता का हिमायती नहीं, बल्कि विरोधी है। छात्राओं को यह समझाते हुए शिक्षक मिल जायेंगे की आदर्श लड़की वह है जो अपने भाई के फीस के लिए अपनी पढ़ाई और कैरियर खुशी-खुशी छोड़ दे। जातिवाद इस पितृसत्ता का सगोतिया है। वही जातिवाद जिसको जड़ से उखाड़ फेंकने की बात हमारे प्रधानमंत्री ‘मन की बात’ में करते हैं। यह हमें समस्या की तह में जाने नहीं देता। गंभीर से गंभीर सवाल जाति के दायरे में फंस जाते हैं। ऐसे में अराजक तत्त्व सिर्फ अराजक तत्त्व नहीं रह जाते हैं। यदि वह जातीय समीकरण में फिट बैठ जाते हैं तो उन्हें संकट मोचक का दर्जा मिल जाता है। यदि वे संकट मोचक हैं तो उन्हें कुछ सुविधाएँ भी दी जाएंगी। थोड़ी बहुत छेड़छाड़ की सुविधा भी। दुर्भाग्य यह है की हमारी शिक्षिकाएं भी पितृसत्ता के घेरे में कैद हैं। खबर मिली हैं की विश्वविद्यालय प्रशासन से जुडी कुछ शिक्षिकाओं ने पीड़ित छात्राओं को यह समझाने की कोशिश की, कि बस छू ही तो लिया था, और कुछ तो नहीं किया ? इससे क्या फर्क पड़ता है ?
लेकिन फर्क पड़ता है। नवरात्रि में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के सिंहद्वार पर जुटी छात्राओं को यह बात अपने शिक्षकों के बावजूद समझ में आ गयी है। यह सिर्फ आये दिन होने वाली छेड़खानी के विरोध में ही नहीं बल्कि पितृसत्तात्मक मूल्यों के खिलाफ बज उठी घंटध्वनि है। चंद्रघंटा (दुर्गा का एक रूप) की यह घंटाध्वनि हो रही है। क्या आप सुन रहे हैं ?
( सदानन्द शाही बीएचयू में हिंदी के प्रोफेसर हैं )