पटना, 1 नवम्बर. जन संस्कृति मंच की इकाई कोरस ने 28-29 अक्टूबर को पटना के बीआइए सभागार में ‘अजदिया भावेले’ कार्यक्रम के तहत कहानी और कविता पाठ तथा ‘साहित्य में समकालीन महिला दृष्टि ’ पर सेमिनार का आयोजन किया. अब इस कड़ी में 5 नवम्बर को प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति की कहानी ‘ कुच्ची का कानून ‘ का नाट्य मंचन होगा.
कार्यक्रम के पहले दिन चर्चित कहानीकार व रंगकर्मी नूर जहीर ने अपनी कहानी ‘ जन्नत नसीब ‘ और ‘ सड़क चलने लगी ” पढ़ी। ‘ सड़क चलने लगी ‘ कहानी कोटा में पढ़ रहे एक युवा की कहानी है , जिस पर माता-पिता अपनी अपेक्षा थोप रहे हैं , जबकि वही माता-पिता अपने युवावस्था में अपने निर्णय से अपने पेशा व जीवनसाथी का चुनाव करते हैं। वो युवा वर्तमान में गरीब-दलित और दैनिक मजदूर को संगठित करने में लगा हुआ है।
दूसरी कहानी ‘जन्नत नसीब ‘ में हज करने गई एक मुस्लिम महिला की सहज प्रश्नाकुलता को उकेरा गया है।
कहानीकार मीनल गुप्ता की कहानी ‘लाल पश्मीना ‘ का पाठ समता राय ने किया। बीमार होने कारण मीनल गुप्ता कार्यक्रम में नहीं आ पायीं थीं. ‘ लाल पश्मीना ‘ कहानी में कश्मीर से आकर गर्म कपड़े बेचने वाले फेरीवाले के माध्यम से कश्मीर की अवाम की बात की गई है।
कहानी-पाठ के बाद कहानियों पर अपने विचार व्यक्त करते हुए समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने कहा कि नूर जहीर की कहानियां अपने समय के जलते हुए प्रश्न को उठाती है। आज जब देश में युवा संकट झेल रहा है और नफरत फैलाई जा रही है, ऐसे समय में नूर जहीर और मीनल की कहानियां आशा बंधाती हैं।
उर्दू की वरिष्ठ कथाकार जकिया मसहदी ने कहा कि पढी गई कहानियों का सौंदर्यबोध ऊंचा है और वे सोचने को मजबूर करती हैं। यही इन कहानियों की सफलता है।
हिंदी के चर्चित कथाकार अवधेश प्रीत ने कहा कि नूर जहीर की ‘ जन्नत नसीब ‘ जैसी कहानियां हिंदी में दुर्लभ है।
कहानियों पर कासिम खुर्शीद , योगेश प्रताप शेखर , संजय कुमार कुंदन , नूरी साहेब और जावेद हयात ने भी अपनी बातें रखीं।
श्रोताओं में वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा , लेखक व्यासजी मिश्रा , नवल किशोर चौधरी , तैय्यब हुसैन पीड़ित , महिला आन्दोलन की नेता सरोज चौबे , माले नेता राजाराम व पवन शर्मा , कवियत्री ऋचा , प्रतिभा कवि राजेश कमल , सत्यम भी उपस्थित थे।
कार्यक्रम का संचालन ‘ कोरस ‘ की सचिव समता राय ने किया। अध्यक्षता उर्दू कहानीकार जकिया मसहदी ने किया। मंचासीन इतिहास की अध्यापिका डेजी नारायण ने इतिहास लेखन में साहित्य की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहानियों को एक इतिहासकार की नजर से देखा और कहानीकारों को समय की कहानी लिखने पर धन्यवाद दिया. धन्यवाद ज्ञापन कोरस की मात्सी ने किया.
दुसरे दिन ‘ साहित्य में समकालीन महिला दृष्टि ’ विषय पर आयोजित सेमिनार में बोलते हुए वरिष्ठ कवयित्री एवं इग्नू में स्कूल ऑफ़ जेंडर एंड डेवलपमेंट में प्रोफ़ेसर सविता सिंह ने कहा कि स्त्रीवाद का झगड़ा मार्क्सवाद से नही है. स्त्री का घरेलू श्रम भी उत्पादक श्रम होता है. स्त्री- स्वर ने ही इसकी पहचान की. साहित्य में समकालीन महिला दृष्टि दुनिया भर में चल रहे महिला-आन्दोलनों का हिस्सा है.
रामजी राय ने कहा कि समकालीनता अस्मिता विमर्शों को ले कर आई है. वैसे तो प्रेमचंद के ‘गोदान’ की मालती का प्रश्न भी महिला- प्रश्न है. महिला-दृष्टि, दलित-दृष्टि की जरुरत समाज को सबसे ज्यादा है और सापेक्षिक तौर पर यह स्वायत्त-दृष्टि है । अगर कोई सामाजिक परिवर्तन या सांस्कृतिक परिवर्तन चाहता है तो महिला दृष्टि व दलित दृष्टि के बगैर परिवर्तन संभव नहीं. इसलिए सामाजिक ढांचे को बदलने के लिए भी समाज और साहित्य को समकालीन महिला दृष्टि की बहुत ज़रूरत है .
नूर ज़हीर ने कहा कि उर्दू साहित्य में समकालीन महिला दृष्टि प्रखर है लेकिन बराज पर सांस्थानिक कब्ज़े ने उनकी आवाज़ दबा कर रखी है। बुजुर्ग पुरुष तो साहित्य में इश्क की बात कर सकते हैं लेकिन महिला बुजुर्ग साहित्यकार का इश्क पर बात करना साहित्य में अच्छा नहीं मानते लोग ?
डॉ. विनय ने कहा कि स्त्री- पुरुष में जैविक अंतर है और जैविक अंतर से उपजा अंतर एक दृष्टि का अंतर पैदा करता है जो साहित्य में भी रिफ्लेक्ट करता है । यह जैविक अंतर का रिफ्लेक्ट करना साहित्य के लिए अच्छा है ।
वरिष्ठ कवि अरूण कमल ने भी अपनी बात रखी । उन्होंने कहा कि बिना आर्थिक आजादी और ‘ अपना कमरा ‘ के बगैर आज भी स्त्री का लेखन असंभव जैसा है।
सेमिनार के बाद सविता सिंह ने ‘ प्रेम करती बेटियां ’ ‘ मैं किसकी औरत हूँ ’ , ‘ शाम में एक कामना ’ , ‘ गति ’ और ‘ डर ’ शीर्षक कविता पढ़ी.
‘ प्रेम करती बेटियां ’
आज भी बेटियां कितना प्रेम करतीं हैं पिताओं से
वही जो बीच जीवन के उन्हें बेघर करते हैं
धकेलते हैं जो उन्हें निर्धनता के अगम अन्धकार में
कितनी अजीब बात है
जिनके सामने झुकी रहती है सबसे ज़्यादा गर्दन
वही उतार लेते हैं सिर
‘ मैं किसकी औरत हूँ ’
मैं किसकी औरत हूँ
कौन है मेरा परमेश्वर
किसके पांव दबाती हूँ
किसका दिया खाती हूँ
किसकी मार सहती हूँ
ऐसे ही थे सवाल उसके
बैठी थी जो मेरे सामने वाली सीट पर रेलगाड़ी में
मेरे साथ सफ़र करती
‘ गति ’
हूँ ऐसी गति में
उद्धिग्न इतनी कि
तोड़ती हर उस डोर को जिससे हूँ बँधी
जगी कई रातों से
थकी
शताब्दियों से कई
जगी वैसे भी हूँ नींद में ही चलती फिर भी
रात की मुँडेर पर बैठी बड़ी चिड़िया को पकड़ने की चेष्टा करती