सूटबूटधारी उपेंद्र मिश्र की छवि मेरी कल्पना से परे है।सुन रहा हूँ कि गुड सहारा में भी थे। मैंने तो उन्हें ज्यादातर कुर्ता, पायजामा और जाड़े में हाफ स्वेटर या जैकेट में ही देखा। यदा-कदा साधारण हाफ शर्ट और झोलेदार पैंट में भी। हममें से किसी की भी उंगलियों से जलती सिगरेट ले लेते। बंधी मुट्ठी की तर्जनी और माध्यिका में खड़ी सिगरेट का उनका दमदार कश और फिर बगूले की तरह नाक मुंह से निकलता हुआ धुंआ। याद आ रही है बाँये हाथ की गदोरी की कटोरी में दाहिने हाथ के अंगूठे से खैनी मलती उनकी चिकोटीमार छवि। अक्सर मुझे उनींदा पाकर मेरी नाक के पास खैनी के गर्दे का फटका मार देते। मैं छींकने लगता, खोपड़ी झनझना जाती। भाई लोग ठठाकर हंसते। उपेंद्र भाई अपनी इस कारगुजारी पर आह्लादित हो जाते,
” देखला , ई चैतन्य चूर्ण हs , तनिके भर में दिमाग टनटना गईल ? चुटकी भर मुंहें में धर लs त तिन्नो तिरलोक लऊके लगी।”
सन 1978-79 से 1981 के अगस्त महीने तक उपेंद्र भाई का निकट सनिध्य रहा। खबर की इंट्रो बनाना, हेडिंग लगाना, फोटो कैप्शन -ये सब उपेंद्र भाई से सीखा। कुछ तो मेरी लगन और कुछ उत्साह देख कर वे भी हरदम कुछ न कुछ मुझे बताते ही रहते। हेडिंग की तो ऐसी टेक्नीक थमा दी उन्होंने कि आजतक काम आ रही है। खबर लिखने से पहले कभी भी हेडिंग के बारे में न सोचो।पहले पूरी खबर लिखो , नोंक पलक दुरुस्त कर लो।जब फाइनल हो जाए तब एक बार ध्यान से पूरी खबर पढ़ो।अंत में आंख बंद कर के एक बार ध्यान लगाओ ।जो फ्लैश आ जाए ,वही इस खबर की हेडिंग है। छत्तीस प्वाइंट फॉन्ट में डीसी के लिए बारह अक्षर एक लाइन में। के, का , थी,था , है, में आदि हेडिंग का इम्पैक्ट कमजोर कर देते हैं। हेडिंग गज्झिन न हो, शब्द खुले दिखें, साधारण ,सामान्य शब्द हों, हेडिंग में खबर की आत्मा झलके, आदि । खबर का पहला पैरा या इंट्रो पूरी खबर को समेटनेवाला और प्रभावशाली होना चाहिए।
अक्सर किसी बनी हुई खबर की कॉपी देकर अलग कागज़ पर सबसे हेडिंग लगाने को कहते।ऐसी ही एक स्टोरी पीटीआई के टीपी पर आई थी। डूबते समुद्री जहाज से कूदकर एक आदमी सिर्फ कश्ती के सहारे 24 दिन तक सुरक्षित रहा। पता नहीं क्या खाया क्या पिया, ऊंची ऊंची समुद्री लहरों, विशालकाय भयानक समुद्री जीवों से कैसे बचा ? बाद में उस आदमी को हेलीकॉप्टर से रेस्क्यू किया गया। उपेंद्र भाई ने खुद स्टोरी ट्रांसलेट किया और कॉपी मुझे देकर हेडिंग लगाने के लिए कहा। मैंने लिखा , ज़िंदगी और मौत के बीच 24 दिन ! उपेंद्र भाई देर तक इस पंक्ति को किसी शेर की तरह दोहराते रहे, गीत की तरह गुनगुनाते रहे। इसी हेडिंग के साथ अगले दिन वह स्टोरी छपी ।
तड़ित दादा की टीम में उपेंद्र मिश्र, रामेश्वर पांडेय, विनय श्रीकर फ्रंट लाइनर थे। अखबार की मेन लीड, सेकेंड लीड, बैनर या बॉटम लीड यही लोग तय करते थे।रात 12 से एक बजे पेज फाइनल होने के बाद सभी एक साथ साइकिलों पर बतकुच्चन करते रेलवे स्टेशन पर मालकिन होटल की चाय पीने के बाद विदा होते।एक बार दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंडक में रात एक बजे सायकिल से स्टेशन की ओर जा रहे हम छह-सात चहेडियों को कचहरी चौराहे पर पुलिस ने रोक लिया। नया-नया एसपी सिटी , नवनीत सिकेरा।गोरखपुर में शायद पहली पोस्टिंग थी। गोरा चिट्टा छह फुटा स्मार्ट हरियाणवी आईपीएस।जिप्सी से कूदकर आ गया । कौन हो ,कहां से आ रहे हो, इतनी रात में कहां जा रहे हो, तलाशी लो सबकी। धड़धड़ाते हुए एक मुंह से कई बात। हम सब सन्न ! उपेंद्र भाई बड़े इत्मीनान से बोले, बड़ी खुशी है गोरखपुर पुलिस की एलर्टनेस देखकर। हम लोग दैनिक जागरण के स्टाफ हैं , ड्यूटी खत्म करके घर जा रहे हैं। कसी हुई वर्दी, तनी हुई भंगिमाएं थोड़ी ढीली पड़ीं। इतनी देर रात में ? आई कार्ड है आप लोगों का ? आई कार्ड तो प्रेस ने आजतक दिया ही नहीं। तबतक उन्हीं में से किसी सिपाही ने पहचान लिया। सॉरी सॉरी करते हुए पूरा पुलिसिया अमला वापस हो गया।वह पूरी रात मलकिनिया होटल में इसी घटना को लेकर गप्प-सड़ाके में गुजरी।
प्रेस में थे एकाउंटेंट अनिल वैश्य। तब रीफिल वाली कलम का ज़माना था। लिखते लिखते जब कलम रुक जाती , अनिल जी के पास रीफिल लेने जाते थे।पुरानी रीफिल निकाल कर नई डालते।उसमें एक स्प्रिंग भी होती थी जो अक्सर गिर जाती और ढूंढे न मिलती। तब कलम की नोंक लिखने में लपलपाती थी।यह बहुत उलझन वाला रोग था । कई लोग तो सिर्फ रीफिल पर कागज़ रोल करके उसे धागे से बांध कर कलम बना लेते।ऊपरी सिरे पर रोल को मोड़ कर बांधते ताकि लिखने में पीछे से बाहर न निकल आए। एयर प्रेशर के लिए उसीमें आलपिन से छेद भी करना पड़ता था। रीफिल खत्म हो जाने पर बड़ी कीमियागिरी होती। ऊपर का फोल्ड खोल कर बड़े एहतियात से नई रीफिल की नोंक कागज़ के उसी रोल में पीछे से घुसेड़ कर पुरानी को बाहर कर देते।नई कलम तैयार।
एक दिन सड़क किनारे एक झोंपड़ीनुमा ढाबे में चाय की चुस्कियों के बीच उपेंद्र भाई ने एक पब्लिक डिमांस्ट्रेशन दिया। यह देखो उपयोग का सिद्धांत। यह है लिख रही रीफिल ।आठ पन्ने का अखबार इसी की नोंक से निकलता है। साला , दो कौड़ी का कागज़ का रोल इसे चांपे हुए है। इस रोल का लिखने में कोई रोल नहीं फिर भी पकड़ना इसे ही पड़ता है।
स्याही खत्म रीफिल खत्म। अब नई रीफिल पिछवाड़े में कोंच कर बहरिया देगी। स्याही खत्म, गेट आऊट ! जस्ट यूज़, यूटिलाइज ऐंड थ्रो ! यही हम सभी की यूटिलिटी है। हा…हा…हा…!
गोरखपुर जागरण में 42 दिन तक हड़ताल चली। दैनिक जागरण का प्रेस तब बेतियाहाता चौराहा के पास महेंद्र तिवारी के मकान में था। ग्राउंड फ्लोर पर आधे भाग में प्रेस और आधे में सूचना कार्यालय था। ऊपरी हिस्से में तिवारी जी का परिवार रहता था। गेट के ठीक सामने सड़क पार जिला संख्याधिकारी का दफ्तर था।लाल रंग का पुराना खंडहर जैसा मकान।इसी के अहाते में जागरण के हड़ताली साथियों की सभा होती थी।दिन भर जिले भर के तमाम पार्टियों के नेतागण हड़ताल के समर्थन में भाषण देते। पहली बार तड़ित दादा, जगदीश दुबे, उपेंद्र मिश्र, रामेश्वर पांडेय , प्रमोद झा, विनय श्रीकर को बोलते हुए सुना, आंदोलन के गीत गाते सुना।हम होंगे कामयाब एक दिन , मन में है विश्वास पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन। उपेंद्र भाई ने बताया कि यह गीत एक अश्वेत अमेरिकी कम्पोज़र चार्ल्स अल्बर्ट टिंडले की देन है जिसे मानवाधिकार आंदोलनों में प्रमुखता से अपनाया गया। गिरिजा कुमार माथुर ने इसका हिंदी अनुवाद किया।
बयालिस दिन तक अखबार न छपा न बंटा। 43 वें दिन जागरण ने अचानक अपनी बनारस व कानपुर यूनिट्स से कई पत्रकारों और कम्पोजिंग, प्रोसेसिंग, प्रिंटिंग आदि के अन्य कर्मियों को बुलाकर पुलिस की सुरक्षा में अखबार छापना शुरू कर दिया। हड़ताल टूट गई, हड़ताल के फ्रंटलाइनर नौकरी से निकाल दिए गए।रीफिल बदल गई और नई कलम से काम शुरू हो गया। तरुण श्रीवास्तव और मैंने भी कुछ ही दिनों बाद जागरण की नौकरी से इस्तीफा देकर अलग राह पकड़ ली।
उपेंद्र जी कुछ दिन स्थानीय साप्ताहिक अखबारों में होते हुए ‘आज’ में आ गए।’आज’ का प्रेस तब तक लहरी बिल्डिंग , बैंक रोड में आ चुका था।विजय चौराहे पर अक्सर दीना वाली पान की दूकान पर अनिल पांडेय, हरीश आदि के साथ उपेंद्र जी मिल जाते। वही बेतकल्लुफ अंदाज़, आवा हो , चाय पीयल जाय। कभी मैनें पैसे देने के लिए अपनी जेब में हाथ डाला तो डाँट खा गया।सिगरेट और चाय के बीच बतकही में उनकी वही उत्फुल्ल हंसी और आत्मीय प्रवचन।हमेशा कुछ न कुछ नया मिलता था। बैंक की नौकरी थाम चुका था। बस्ती, नौगढ़, कठकुइयाँ, कौड़ीराम तबादले होते रहे।शहर छूटा, साथी छूटे, राहें छूटीं पर ये यादें। ये कैसे छूट सकेंगी उपेंद्र भाई। आप लखनऊ-दिल्ली निकल गए । वक्त बीत गया।
उपेंद्र जी, गोरखपुर शहर के बारे में याद होगा आपको जागरण का सम्पादकीय जिसका शीर्षक था ‘” गोरखपुर-एक संवेदनहीन शहर ” बेतियाहाता चौराहे के पास रीड्स धर्मशाला के गेट पर चाय की दूकान में एक लड़का था। पुलिस उसे उठा ले गई और दूसरे दिन लाश लौटा गई। पूरा शहर खामोशी की चादर ओढ़े मुर्दघट्टा बना रहा। इसी पर जागरण ने सम्पादकीय छापा था ।
आज चालीस साल बाद भी यह शहर मुर्दघट्टा ही है।इसी शहर में विद्याधर द्विवेदी विज्ञ , जिन्हें दूसरा निराला कहते थे, सड़क किनारे पड़े मिले। गुमनाम मृत्यु हुई।
तीन दिन पहले परिवार आपको लेकर मेडिकल कालेज से लगायत शहर के कई अस्पतालों में दौड़ता ही रह गया और आपको किसी ने भर्ती तक नहीं किया। जीवन डोर हाथ से छूट गई।
जस्ट यूटीलाइज़्ड !
हम चलेंगे साथ साथ/डाले हाथों में हाथ/हम चलेंगे साथ साथ एक दिन/
हो हो मन में है विश्वास/पूरा है विश्वास/हम चलेंगे साथ साथ एक दिन !
श्रद्धांजलि !