अभिव्यक्ति की आज़ादी पर संघ- भाजपा तत्वों के हमले के खिलाफ जन संस्कृति मंच का बयान
जहां पिछले दो सालों में कार्पोरेट मीडिया का एक अच्छा ख़ासा हिस्सा केंद्र की मोदी सरकार की हिमायत में सारी हदें पार कर जा रहा है, वहीं प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने के तमाम प्रयासों को धता बताते हुए अनेक साहसी पत्रकारों और पत्र-पत्रिकाओं ने जोखिम उठाते हुए इसी दौर में साम्प्रदायिक तांडव को बेनकाब करने के अनुकरणीय उदाहरण भी पेश किए हैं. ‘गुजरात फाइल्स’ की लेखिका राना अय्यूब और आउटलुक से जुडी नेहा दीक्षित ऐसी ही पत्रकार हैं.
अंग्रेज़ी की पत्रिका आउटलुक के 8 अगस्त, 2016 के अंक में छपी आवरण कथा ”ऑपरेशन बेबी लिफ्ट” (हिंदी में प्रचलित/अनूदित ”बेटी उठाओ अभियान”) के सामने आने के बाद इस पत्रिका के प्रकाशक, संपादक समेत रिपोर्टर नेहा दीक्षित के खिलाफ़ भाजपा प्रवक्ता और गुआहाटी उच्च न्यायालय के वकील बिजन महाजन, भाजपा अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के मोमीनुल अव्वाल और सहायक सोलीसीटर जनरल सुभाष चन्द्र कायल की शिकायत पर ‘साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने के आरोप में’ प्राथमिकी दर्ज कर दी गयी है. एक के बाद एक भाजपा और संघ प्रवक्ताओं ने इस आवरण कथा को लिखनेवाली पत्रकार और छापनेवाली पत्रिका के खिलाफ हमला बोला, लेकिन वे अबतक इस रिपोर्ट में प्रस्तुत एक भी तथ्य को काट नहीं सके हैं. ऐसे में प्राथमिकी दर्ज कराने से लेकर ‘मानहानि’ का दावा करते हुए संघ से जुड़े संगठनों और व्यक्तियों ने सोशल मीडिया में नेहा दीक्षित और आउटलुक पर हमला बोल दिया है। जन संस्कृति मंच इस हमले की कठोर भर्त्सना करता है.
तीन राज्यों (असम, गुजरात और पंजाब) से तथ्य संग्रह कर तीन महीने लगाकर ११००० शब्दों में लिखी गयी की यह रिपोर्ट विस्तार से बताती है कि कैसे संघ से जुडी संस्थाओं के तत्वावधान में 31 नाबालिग आदिवासी बच्चियों को गुजरात और पंजाब ले जाया गया। बाल-अधिकार सुरक्षा कमीशन, [असम] बाल कल्याण कमेटी [कोकराझार] और राज्य बाल सुरक्षा सोसाईटी और चाइल्डलाइन [दिल्ली और पटियाला] जैसी संस्थाओं ने निर्देश दिया था कि इन बच्चियों को वापस भेजा जाये पर गुजरात और पंजाब की राज्य सरकारों से वरदहस्त पायी हुई संघ से जुडी इन संस्थाओं ने खुले-आम न केवल इन निर्देशों को हवा में उड़ा दिया, बल्कि उनके इस कृत्य में सर्वोच्च न्यायालय के १ सितम्बर, २०१० के उस आदेश का भी उल्लंघन किया गया जिसके अनुसार मणिपुर और असम की सरकारों को यह निर्देश दिया गया था कि वे सुनिश्चित करें कि १२ साल से कम उम्र के बच्चों को पढाई के नाम पर राज्य के बाहर न ले जाया जाए. रिपोर्ट विस्तार से दिखाती है कि इन संस्थाओं के इस कृत्य में ‘जुवेनाइल जस्टिस एक्ट, २००० ’ से लेकर बच्चों के अधिकार के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा पारित और भारत द्वारा अनुमोदित संकल्पों का भी उल्लंघन निहित है. नेहा दीक्षित की रिपोर्ट के अनुसार, “ सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद, असम सी.आई.डी. की रिपोर्ट के अनुसार २०१२ से २०१५ के बीच लगभग ५००० बच्चे लापता हैं. कार्यकर्ताओं को यकीन है कि यह संख्या लगभग उतनी ही है जितने बच्चे पढ़ाई या रोज़गार के बहाने अवैध सौदागरी (ट्रैफिकिंग) की भेंट चढ़े. इनमें से ८०० बच्चे २०१५ में गायब हुए.” नेहा दीक्षित की यह रिपोर्ट इन तथ्यों के अलावा पूर्वोत्तर के आदिवासियों के बीच संघ की कारगुजारियों, उससे जुड़ी ख़ास तौर पर राष्ट्र सेविका समिति, सेवा भारती, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आदि संस्थाओं के क्रिया-कलाप को व्यापक सर्वेक्षण, अनेक साक्षात्कारों और तीक्षण विश्लेषण के ज़रिए उजागर करती है.
आश्चर्य नहीं कि इस मामले की जांच करने की बजाय पुलिस ने मामला उठाने वालों के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया है. जब जब भी कोई खोजी पत्रकार, बौद्धिक या कलाकार सांप्रदायिक रणनीतियों, अल्पसंख्यकों पर हमलों, आदिवासियों के हिन्दूकरण जैसे मुद्दों में संघ से जुड़े तत्वों की भूमिका को प्रामाणिक ढंग से बेनकाब करने का साहस करता है, उसे कानूनी और गैर-कानूनी तरीकों से प्रताड़ित करने का अभियान चल पड़ता है. नेहा दीक्षित की रिपोर्ट पर ‘साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने का आरोप’ यह कहने के बराबर है कि अपराध करनेवालों से ज़्यादा दोषी अपराध को जनहित में उजागर करने वाले लोग हैं. ज्ञातव्य है इससे पहले भी 2013 में नेहा दक्षित को मुजफ्फरनगर पर लिखी अपनी स्टोरी के लिए उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है। हम संघ-सम्प्रदाय से सम्बद्ध तत्वों द्वारा कानून के साथ इस खिलवाड़ की भर्त्सना करते हैं और अपने न्याय-विधान से कानून के ऐसे दुरुपयोगों के खिलाफ सावधान होने का आग्रह करते हैं।
हम मांग करते हैं कि नेहा दीक्षित और आउटलुक के खिलाफ सारे मुकदमों को जनहित में तत्काल वापस लिया जाये।
( जन संस्कृति मंच की ओर से सुधीर सुमन, राष्ट्रीय सह-सचिव, जसम द्वारा जारी)