प्रो चौथीराम यादव नहीं रहे। उस दिन शैलेंद्र ने फ़ोन पर सूचना दी तो सन्न रह गया। सहसा कानों पर यक़ीन नहीं हुआ। थोड़ी ही देर पहले हमने सुरजीत पातर की मृत्यु पर उनकी पोस्ट देखी थी। कुछ दिन पहले वे पारिवारिक विवाह समारोह से लम्बी यात्रा करके देर रात में लौटे थे। अगले दिन ही मऊ में अंबेडकर जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में शिरकत करने निकल गये। लौटते समय वे हिन्दी विभाग की कनिष्ठतम आचार्या प्रियंका सोनकर के घर से होते हुए लौटे थे। ऐसी सक्रियता वाले चौरासी वर्षीय युवा को देख सुनकर लगता नहीं था कि वे इतनी जल्दी चले जायेंगे। हम आश्वस्त थे कि वे कम से कम दस बारह वर्षों तक हमें रास्ता दिखाते रहेंगे। उनका अचानक इस तरह जाना उनके चाहने और मानने वालों को स्तब्ध कर गया। साथ ही सचेत भी कि काल करे सो आज कर।
वे सोशल मीडिया पर भी बेहद सक्रिय थे। इतने कि कई बार कुछ लोग चिढ़ में कहा करते बताओ इस उम्र में दिनरात यही करते रहते हैं। पर वहीं पर उनके चाहने वालों की भी बड़ी संख्या मौजूद थी। एक वाक़या याद आ रहा है । गोपेश्वर सिंह ने एक पोस्ट लिखी जिसमें फ़ेसबुक पर अति सक्रिय लेखकों को यह याद दिलाया कि वे या तो समय का अपव्यय कर रहें हैं या कि अपनी रचनात्मक क्षमता के साथ। विनोद स्वरूप उन्होंने चौथीराम जी का नाम ले लिया। इसके बाद तो तूफ़ान आ गया। गोपेश्वर बनाम चौथीराम चल पड़ा। अन्ततः चौथीराम जी को कहना पड़ा कि गोपेश्वर पुराने यार हैं। इस मामले को बकौल गालिब ‘ यार से छेड चली आती है असद/न सही इश्क अदावत ही सही ‘ के रूप में ही देखना चाहिए। यहाँ भी चौथीराम जी ने अपने दोस्ताना संबंधों को तरजीह दी और बताया कि यारों के बीच छेड़ का रिश्ता बना रहना चाहिए ।
दर असल चौथीराम जी ने सोशल मीडिया को एक लोकतांत्रिक जगह के रूप में देखा और उसी रूप में उसका उपयोग करते रहे।उनकी मृत्यु जिस दिन हुई उस दिन अन्तर्राष्ट्रीय मदर्स डे था। उनकी आख़िरी पोस्ट अन्तर्राष्ट्रीय मदर्स डे पर थी। अपने आख़िरी पोस्ट में चौथीराम जी ने कुछ भावुक भावुक बातें या कुछ उदात्त विचार लिखने के बजाय एक पेंटिंग डाली है। एक बोलती हुई पेंटिंग, जिसमें एक युवती पीठ पर ईंट ढोते दिखाई दे रही हैं। ईंट पीठ के ऊपरी हिस्से पर है। उसके ठीक नीचे औरत का बच्चा झूलता सा दिख रहा है। चित्र में तीन और युवतियाँ दिख रहीं हैं। युवतियों के हाथ में साइकिल है। वे भी साइकिल से कुछ ढो रही हैं। उन सबकी निगाह बच्चे को पीठ पर लादे ईंट ढो रही औरत पर है। चौथीराम जी ने मदर्स डे पर कुछ नहीं लिखा है सिर्फ़ यह चित्र पोस्ट कर दिया है और शीर्षक दिया है ‘मदर = मदर्स- डे’।
बिना कुछ लिखें चौथी राम जी ने बहुत कुछ लिख दिया है। चित्र में जो श्रमिक युवती दिखाई दे रही है न उसे मदर्स डे के बारे में कुछ पता है और न ही चित्र की अन्य युवतियों को। पीठ पर टंगा अबोध बच्चा तो बिलकुल अनजान है इस बात से। लेकिन उसकी आँखें खुली हुई है। चित्र श्रमजीवी युवतियों की एक ऐसी दुनिया से साक्षात्कार कराता है जिसके मदर्स डे और ऐसे ही अनेक चमकते डेज़ का कोई अर्थ नहीं। वे बस माँ हैं और बच्चे के पालन पोषण के लिए हाड़ तोड़ मिहनत कर रही हैं। यह पोस्ट माँ के नाम पर बहुत सारी भावुकता या भावुकता प्रदर्शन की भंगिमाओं से अलग है। बहुत से लोग मिलेंगे जो माँ के साथ फ़ोटो मीडिया और सोशल मीडिया में सिर्फ़ दिखावे के लिए डाल रहे होते हैं। यहाँ सिर्फ़ माँ है और उसका श्रमजीवी जीवन है।
चौथीराम जी ने जिस तरह वर्चस्व की संस्कृति के ख़िलाफ़ अभियान जैसा छेड़ दिया था, लिखकर, बोल कर और प्रत्यक्ष रूप से प्रदर्शनों में शामिल होकर यह पोस्ट भी उनके इसी संकल्प की एक अलग अभिव्यक्ति है।।हम लोगों को यह भी शिकायत रहती आई है कि चौथीराम जी ज़्यादा बोलते हैं पर यह पोस्ट उनके बारे में हमारी समझ को दुरुस्त कर रही है कि वे बिना बोले या कि चुप रहकर भी बहुत कुछ कह सकते थे। जानने वाले जानते हैं कि लम्बे समय तक चौथीराम जी के लिए चुप्पी जीवन अस्त्र की तरह रही है। वर्चस्व की संस्कृति और वर्चस्व के परिवेश में हाशिए की पृष्ठभूमि से आए हुए आदमी की चुप्पी भी कवच की तरह काम करती है।उनके चुप की अर्थ ध्वनियाँ मीर के इस शेर की व्यंजना से टकराती हैं -‘ हमें इश्क़ में मीर चुप लग गई है/ न शकुरो शिकायत न हरफे हिकायत। ’
चौथीराम जी हाशिये के समाज के हक़ और हकूक के लिए संघर्षरत लेखक आलोचक थे। उन्होंने हर उस फार्म का उपयोग किया जो उनकी संघर्ष यात्रा में सहायक हो सकती थी। सोशल मीडिया का भी। हम अगर केवल मई (2024) महीने के बारह दिनों के उनके फ़ेसबुक पोस्ट पर निगाह डालें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है। इन बारह दिनों में उन्होंने सीपीआई के नेता अतुल कुमार अनजान, बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे ब्रज कुमार पांडेय और पंजाबी के विद्रोही कवि सुरजीत पातर के निधन पर श्रद्धांजलि, कार्ल मार्क्स , स्वामी अछूतानन्द और रवींद्र नाथ टैगोर की जयंती पर उनकी याद, कुछ अपनी, कुछ हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की किताब से कोटेशन पोस्ट किए हैं। कविता और संगीत की युगलबंदी पर अपने ही किसी व्याख्यान की फ़ोटो भी। कुछ पारिवारिक चित्र उन्होंने पोस्ट किए हैं। चित्रों में गाँव की एक पुरानी यात्रा की तस्वीर एकाधिक बार पोस्ट की है। ऐसा लगता है कि इन दिनों वे न केवल गाँव आ जा रहे थे बल्कि मन ही मन गाँव को याद करते रह रहे थे।
एक टिप्पणी में उन्होंने कवि रमाशंकर विद्रोही का संक्षिप्त मूल्यांकन भी किया है। वे लिखते हैं-‘ रमाशंकर विद्रोही का संघर्ष इस गुलामी के विरुद्ध वंचित समाज की मुक्ति का संघर्ष है, जो हजारों साल से वर्चस्ववादी शक्तियों के शोषण का शिकार रहा है। वंचित समाज के विद्रोही उसी व्यवस्था के पीड़ित थे जिसके उत्तराधिकारी आज खुलेआम हक छोड़ने की बात कर रहे हैं। वर्तमान शिक्षण संस्थाएं अपना हक मांगने वाले छात्रों को कुचल देने पर आमादा हैं। विद्रोही अपना हक छोड़ देने से साफ इनकार करते हैं। तुम चाहे हमारी कमर तोड़ दो,चाहे सिर फोड़ दो पर हम अपना हक नहीं छोड़ेंगे, हरगिज नहीं छोड़ेंगे। हम लड़ेंगे और अपना हक लेकर रहेंगे। जुल्मों सितम के रहते, विद्रोही ने जिद ठान ली है कि हम गुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे। विद्रोही जी सत्ता परिवर्तन नहीं व्यवस्था परिवर्तन के रचनाकार हैं ’।
ये बातें जितनी रमाशंकर विद्रोही पर लागू होती हैं उतनी ही स्वयं चौथीराम यादव पर। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का जो कोटेशन उन्होंने उद्धृत किया है वह समकालीन सामाजिक परिवेश के लिए कितना मुफ़ीद है-” समूची मानवता जिससे लाभान्वित हो, एक जाति दूसरी जाति से घृणा न करके प्रेम करे, एक समूह दूसरे समूह को दूर रखने की इच्छा न करके पास लाने का प्रयत्न करे, कोई किसी का आश्रित न हो, कोई किसी से वंचित न हो, इस महान् उद्देश्य से ही हमारा साहित्य प्राणोदित होना चाहिए.”(ह.प्र.द्विवेदी)।
चौथीराम जी के विस्तृत लेखन और व्याख्यानों में साहित्य का यही सरोकार प्रकट होता रहा है। साहित्य इसी महीने में चौथीराम जी ने एक एक वाक्य की पोस्ट हँसी के बारे में डाली है। दोनों पोस्ट आठ मई की हैं। पहली में उन्होंने लिखा कि लगता है, हँसी का कोचिंग सेंटर खोलने का समय आ गया है। दूसरी पोस्ट है- ‘ घर परिवार से हँसी का ग़ायब होते जाना,आज की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है’।
पहली पोस्ट पर उसी समय मेरी निगाह पड़ी थी और मैंने यों ही मौज में लिख दिया था- लेकिन हँसी की कोचिंग किसी बाबा टाइप न खुले। पिछले दिनों मैं स्वयं सामाजिक जीवन से हँसी और आवाज़ के ग़ायब होने के बारे में सोच रहा था। दूसरी पोस्ट से पता चला कि चौथीराम जी भी पारिवारिक और सामाजिक परिवेश से हँसी के ग़ायब होने को लेकर चिंतित हैं। हँसी का इस तरह ग़ायब होना वास्तव में समाज के भीतरी तहों में मौजूद गहरी अशांति का सूचक है। वे उस गहरी अशांति को भी भाप रहे हैं। यहाँ गोपेश्वर सिंह वाले जिस वाक़ये की चर्चा की गयी उससे हँसी के ग़ायब होने को जोड़ें तो बात पूरी होती है। हास्य बोध( Sense of humour ) के ग़ायब होने से शुरू होकर हँसी का ग़ायब होना मानवता के इतिहास में घटित होने वाली बड़ी त्रासदी है। शायद चौथीराम जी इसी ओर संकेत कर रहे थे।
ऐसे समय में जब सामाजिक ही नहीं निजी जीवन से भी हँसी ग़ायब हो रही है, चौथीराम जी का अचानक जाना केदारनाथ सिंह के शब्दों में कहें तो ‘सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है’।
( लेखक ‘ साखी ‘ पत्रिका के सम्पादक हैं, वे बीएचयू के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष और शंकराचार्य विश्वविद्यालय छत्तीसगढ़ के कुलपति रह चुके हैं )