गोरखपुर, 7 अक्तूबर। जिस्म से लहू टपक रहा था पर किसे फिक्र थी…। जुबां पर एक ही लफ्ज या हुसैन या हुसैन या हुसैन। सदा जैसे-जैसे बुलंद हो रही थी। जंजीर और कमा (छोटा चाकू) उतनी ही तेजी से जिस्म पर गिर रहे थें। नौजवान तो थे ही छोटे भी बच्चे जुनूनी हो गए थें। यह मंजर था चौथी मुहर्रम के मातमी जुलूस का।
कर्बला के मैदान में 72 जानिसार साथियों के साथ हजरत इमाम हुसैन की शहादत के गम में गुरुवार को बसंतपुर से हाजी मो. मेंहदी एडवोकेट के आवास से अलम का मातमी जुलूस निकला। जुलूस में अंजुमन हुसैनिया के सदस्यों ने नौहाख्वानी और सीनाजनी की । यह जुलूस बसंतपुर, हैदर बाजार, हाल्सीगंज, उर्दू बाजार, घंटाघर, रेती चैक होते हुए इमामबाड़ा आगा साहेबान गीता प्रेस पहुंचा। इस मौके पर वक्ताओं ने कहा कि आज से चौदह साल पहल हर जब्र नाइंसाफी व आतंकवाद के खिलाफ हुसैन ने यजीद के खिलाफ आवाज उठायी थी, और यजीद की लाखों फौजों के सामने अपने चंद साथियों के साथ कर्बला के मैदान में जंग लड़ी और बलिदान देकर इंसानियत को जिंदा रखा। हर दौर में इमाम हुसैन की कुर्बानी का महत्व रहा है। और ता कयामत तक रहेगा। इस्लाम धर्म ही इंसाफ का नाम है। इमाम हुसैन की कुर्बानी ने इंसानियत का पैगाम दिया।