साहित्य - संस्कृति

मुक्तिबोध सतत परोक्ष प्रतिरोध के कवि हैं : मंगलेश डबराल

मुक्तिबोध एवं त्रिलोचन आजादी के बाद की सामाजिक-राजनीतिक विडम्बनाओं के कवि हैं : प्रो राजेन्द्र कुमार

इलाहाबाद में जन संस्कृति मंच का ‘ स्मरणः कवि मुक्तिबोध एवं त्रिलोचन ‘ आयोजन

मुक्तिबोध एवं त्रिलोचन की जन्मशताब्दी वर्ष पर जन संस्कृति मंच एक वर्ष तक हिन्दी-उर्दू पट्टी के शहरों में कर रहा है कार्यक्रम

 16 अक्टूबर को बनारस में हुआ था पहला आयोजन

 

                          दुर्गा सिंह 

हिन्दी भाषा के दो बड़े कवियों के जन्मशताब्दी वर्ष पर जनसंस्कृति मंच द्वारा ‘ स्मरणः कवि मुक्तिबोध एवं त्रिलोचन ‘ नाम से शुरू की ज्ञी आयोजन की कड़ी में दूसरा आयोजन मुक्तिबोध के जन्मदिन पर  13 नवम्बर 2016 को इलाहाबाद के सेण्ट जोसेफ कालेज के होगन हाल में आयोजित किया गया। इस कड़ी में 16 अक्टूबर 2016 को बनारस में पहला आयोजन हुआ था। एक साल तक हिन्दी-उर्दू पट्टी के विभिन्न शहरों में ये कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे।

प्रणय कृष्ण
प्रणय कृष्ण

कार्यक्रम दो सत्रों में विभाजित था। पहला सत्र मुक्तिबोध और त्रिलोचन से जुड़ी स्मृति एवं साहित्य पर केन्द्रित था। इसमें शिक्षक व अध्येता अवधेश प्रधान, कवि नरेश सक्सेना, मंगलेश डबराल, सौन्दर्यशास्त्री नीलकान्त तथा समकालीन जनमत के प्रधान सम्पादक रामजी राय ने शिरकत की। अवधेश प्रधान ने अपनी बात से इसकी शुरुआत की। उन्होंने मुक्तिबोध और त्रिलोचन के साहित्य को सामाजिक करुणा और मानवीय प्रेम से उत्पन्न बताया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दोनों कवियों की कविता का मूल स्वर बदल जाता है तथा निरन्तर आगे बढ़ता है। ये दोनों कवि व्यक्तिगत प्रेम और सामाजिक करुणा के द्वन्द्व को हल कर लेते हैं। त्रिलोचन का संग्रह ‘ धरती ‘ 1947 में आता है। इस संग्रह की कविताएं कवि के अकेलेपन को सामाजिक विस्तार देती हैं। अवधेश प्रधान ने त्रिलोचन की ऐसी कई कविताओं को सुनाया, जो पूरी तरह से राजनीतिक हैं। उन्होंने कहा कि त्रिलोचन की कविताओं का एक चयन केदार नाथ सिंह ने किया,  जिसमें उनकी राजनीतिक कविताओं को शामिल नहीं किया। इसी को सम्भवतः आधार बना कर कुछ लोगों ने कहा कि प्रगतिवादी त्रयी में त्रिलोचन ऐसे कवि हैं जो राजनीतिक कविता नहीं लिखे हैं। त्रिलोचन के यहां नागार्जुन और केदार नाथ अग्रवाल से कम राजनीतिक कविता नहीं है।

अवधेश प्रधान
अवधेश प्रधान

कवि नरेश सक्सेना ने अपनी बात को मुक्तिबोध से जुड़े संस्मरण के साथ शुरू किया। उन्होंने बताया कि मुक्तिबोध अपनी कविता ‘ अंधेरे में ‘ का पहली बार पाठ हरिशंकर परसाई के घर पर कर रहे थे और मैं पहली बार उन्हें काव्य पाठ करते हुए सुन रहा था। ‘ अंधेरे में ‘ कविता उस समय मेरे सर के ऊपर से गुजर गयी। मुक्तिबोध तनाव से भरे चेहरे के साथ इस लम्बी कविता का पाठ कर रहे थे। मुझे लगा कि वे क्यों यह कविता पढ़ रहे हैं जब कोई दाद नहीं दे रहा। लेकिन बाद में मेरी खुद की कविताओं में इस कविता के प्रभाव थे। उसके कई बिम्ब मेरी कविता में थे। उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध ने अपने समय के कवियों पर जो प्रभाव डाला उसने कविता के पहले के ढांचे को ध्वस्त कर दिया। मुक्तिबोध के प्रभाव में कविता की पूरी एक पीढ़ी तैयार हुई। मुक्तिबोध जिस भूगोल के कवि हैं, उसमें बाद के कई बड़े कवि हुए। उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध अपने समय की विज्ञान की आधुनिकतम बहसों से परिचित थे। उनकी कविताओं के कई बिम्ब इससे जुड़े हैं। मुक्तिबोध की कविता में ताल और संगीत भी खूब है। उन्होंने अंधेरे में कविता के अंश ‘ ओ मेरे आदर्शवादी मन ‘ को गा कर और हाथ की थाप से संगीतबद्ध कर सुनाया।

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नरेश सक्सेना

मुक्तिबोध की परम्परा में आज के चर्चित कवि मंगलेश डबराल ने मुक्तिबोध की कविता में प्रतिरोधी स्वर की शिनाख्त करते हुए अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध को यातना का सबसे बड़ा कवि कहा जाता है और शमशेर को प्रेम का। प्रेम के सबसे बड़े कवि ने यातना के सबसे बड़े कवि के संग्रह ‘ चांद का मुंह टेढ़ा है ‘  की भूमिका लिखी। उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध ने महाकाव्य नहीं लिखा लेकिन वे महाकाव्यात्मक कवि हैं और महाकाव्यों के बड़े आलोचक भी। उन्होंने अपनी बात को अंधेरे में कविता पर केन्द्रित करते हुए कहा कि कुछ बड़ी रचनाएं अतीत की ओर जाती हैं, कुछ भविष्य की ओर। अंधेरे में कविता भविष्य की ओर जाती कविता है। सत्तर के दशक के ऊथल-पुथल में हमारी पीढ़ी ने इस कविता का पुनर्विष्कार किया। विजय सोनी ने अंधेरे में कविता के कई मंचन किये। इस कविता में अधूरी आजादी का अंधेरा घनीभूत रूप में है। उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि अच्छी कविता या तो प्रेम करती है या प्रतिरोध करती है और कई बार वह प्रेम और प्रतिरोध एक साथ करती है। कुछ प्रतिरोध प्रत्यक्ष होते हैं कविता में, कुछ परोक्ष। मुक्तिबोध सतत परोक्ष प्रतिरोध के कवि हैं।

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मंगलेश डबराल

मुक्तिबोध के यहां आत्म-प्रतिरोध भी है। अंधेरे में कविता में यह है। मुक्तिबोध के यहां ग्लानि भी है लेकिन यह यह ग्लानि नकारात्मक न हो कर क्रान्तिकारी विचार के प्रेरक के रूप में है। मुक्तिबोध के यहां ग्लानि की प्रकृति परिवर्तनकारी है। मंगलेश डबराल ने अंधेरे में कविता के यातनाबोध को पिकासो की गुएर्निका के यातनाबोध के समतुल्य बताया। उन्होंने कहा कि आज साम्प्रदायिक फासिस्ट सरकार द्वारा लोगों को एक उन्माद और निराधार सुखभ्रान्ति की ओर ले जा रहा है। इसे अंधेरे में कविता के जुलूस में देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि जुलूस का दृश्य एक स्वतंत्र कविता की तरह है। उसमें आशंका और भय है एक अघोषित आपातकाल को ले कर आज यह और ज्यादा है। उन्होंने अपने वक्तव्य के आखिर में कहा कि मुक्तिबोध गहरे दायित्वबोध के कवि हैं।

रामजी राय
रामजी राय

नीलकान्त ने कहा कि मुक्तिबोध के यहां असीम-ससीम का द्वन्द्व है। उनके यहां जो मुक्ति की कल्पना है वह सुरलिस्टिक है। उनकी कविता अन्धेरे में कहीं कोई मजदूर आता है। फिर यह मुक्ति की कल्पना की कविता कैसे! उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध के यहां काला रंग बहुत है। अंधेरे में कविता में भी यह काला रंग प्रमुख है।यह सब कुछ उनके मन में घटित होता है, बाहर नहीं। मुक्तिबोध की कविता में जो इतिहास है उसका कोई भूगोल नहीं।यह कैसे सम्भव है ! उन्होंने अंत में कहा कि मुक्तिबोध अपनी कविता को खुद हिडिम्बा कहते हैं। विकृतकृतविम्बा कहते हैं। ऐसी कविता में जनमुक्ति का चित्र नहीं हो सकता जो सम्प्रेषणीय न हो।

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प्रो राजेन्द्र कुमार

रामजी राय ने अपने वक्तव्य में कहा कि अंधेरे में कविता का रात में चलता जुलूस आज हुजूम के रूप में दिन में चलता है। मुक्तिबोध की कविता में जो फैन्टेसी है वह वास्तव को विस्फारित करती है। रामजी राय ने कहा कि मुक्तिबोध के यहां अंधेरे और उजाले के बीच का द्वंद है। मुक्तिबोध की कविता चम्बल की घाटी यह देश है। आज का देश और ज्यादा चम्बल की घाटी है। यही मुक्तिबोध की कविता का भूगोल है। मुक्तिबोध चांदनी के भीतर जो अंधकार जन्म ले रहा था, उसे पकड़ते हैं।
उन्होंने कहा कि एलियनेशन को समाज में सबसे अधिक मुक्तिबोध ने पकड़ा। समाज,सत्ता,विचार की आलोचना वे इसी में करते हैं।रामजी राय ने यह भी कहा कि मुक्तिबोध का संघर्ष मार्क्सवाद के विकास का संघर्ष है। मुक्तिबोध कविता के वैज्ञानिक थे। विज्ञान के सहारे ज्ञान के क्षितिज को तोड़ते हुए वे नये ज्ञान की खोज करते हैं। उन्होंने कहा कि कवि को अपने अनुभवों पर कोई आशंका नहीं थी। अंधेरे में कविता समाज की विकृति को व्यक्त करने में ही हिडिम्बा और विकृताकृतबिम्बा होती है। आज यह विकृति और भी बढ़ी है। रामजी राय ने त्रिलोचन से जुड़े संस्मरण भी साझा किये।

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अध्यक्षता कर रहे राजेन्द्र कुमार ने कहा कि मुक्तिबोध एवं त्रिलोचन आजादी के बाद की सामाजिक-राजनीतिक विडम्बनाओं के कवि हैं। इन दोनों कवियों का गोत्र एक है।
दूसरा सत्र कविता पाठ का था। इसमें नरेश सक्सेना, मंगलेश डबराल, हरीश्चन्द पाण्डे, राजेन्द्र कुमार जैसे वरिष्ठ कवियों के साथ अंशु मालवीय, अमित परिहार, प्रज्ञा सिंह, संध्या नवोदिता,  ओमप्रकाश मिश्र,  प्रदीप गोण्डवी, हीरालाल ने अपनी कविताएं पढ़ी। इस सत्र की अध्यक्षता नरेश सक्सेना ने व संचालन संतोष चतुर्वेदी ने किया। प्रथम सत्र का संचालन रामायन राम ने तथा स्वागत भाषण प्रणय कृष्ण ने किया। आभार गीतेश सिंह ने व्यक्त किया।

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