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गीता प्रेस में कर्मचारियों के श्रम की लूट

हमारे प्रधानमंत्री जब अमेरिका गए थे तो राष्ट्रपति बराक ओबामा को भेंट करने के लिए गीता भी ले गए थे। कुछ दिन बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने एक कार्यक्रम में भगवद् गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की वकालत की। उसी दौरान गीता की 1142 लाख प्रतियां छाप चुके गोरखपुर के विश्व प्रसिद्ध गीता प्रेस के कर्मचारी अपने वाजिब वेतन, एरियर के भुगतान और कैजुअल कर्मचारियों को नियमित किए जाने और उन्हें न्यूनतम वेतन मान दिए जाने की लड़ाई लड़ रहे थे। लड़ाई धरना-प्रदर्शन से लेकर डीएम कार्यालय के घेराव तक पहुंची। प्रबन्धन ने कर्मचारियों पर धौंस जमाने के लिए गीता प्रेस पर एक दिन की तालाबंदी भी कर दी लेकिन गीता प्रेस कर्मचारियों के पक्ष में गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की मांग करने वाले खामोश रहे। लव जेहाद, घर वापसी पर खूब बोलने वाले गोरखपुर के चर्चित सांसद योगी आदित्यनाथ के मुंह से भी इस मुद्दे पर बोल नहीं फूटे जबकि उन्हीं के शहर में कर्मचारी अपने खिलाफ होने वाले अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे।

विश्व प्रसिद्ध गीता प्रेस के कर्मचारियों के आंदोलन ने यहां कर्मचारियों के शोषण और उनके हक पर डाका डालने की जो कहानी सामने आयी है, उस पर एकबारगी विश्वास करना कठिन है लेकिन सच यही है कि पूरी दुनिया को सस्ते धार्मिक साहित्य देने का दावा करने वाला गीता प्रेस प्रबन्धन यह सब कुछ कर्मचारियों के श्रम की लूट पर कर रहा है।

गीता प्रेस में करीब 600 कर्मचारी काम करते हैं। इनमें 200 स्थायी है और 400 कैजुअल। गीता प्रेस प्रबन्धन ने कैजुअल कर्मचारियों के बारे में कभी भी श्रम विभाग और पीएफ विभाग को सही सूचना नहीं दी। यह पोल तब खुल गई जब कर्मचारियों के आंदोलन और उनकी मांग पर श्रम विभाग के अधिकारी ने गीता प्रेस का अचानक निरीक्षण किया। प्रबन्धन ने कैजुअल कर्मचारियों को को छुपाने का पूरा इंतजाम किया लेकिन कर्मचारियों के प्रतिरोध के कारण सभी कर्मचारियों को श्रम विभाग के अधिकारी के सामने लाना पड़ा। श्रम विभाग ने उस दिन उपस्थित कैजुअल कर्मचारियों की गणना की तो उनकी संख्या 337 मिली। उस दिन 50 से अधिक कर्मचारी छुट्टी पर थे। ये कैजुअल कर्मचारी 20 वर्ष से अधिक समय से काम कर रहे हैं लेकिन इनको प्रदेश सराकर द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतनमान भी नहीं दिया जा रहा है।

गीता प्रेस को गोविन्द भवन कार्यालय कोलकाता द्वारा संचालित किया जाता है जिसकी स्थापना 1923 में हुई थी। इसकी स्थापना को ‘ दैवीय प्रेरणा से गीता के प्रचार-प्रसार के लिए ’ किया गया बताया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य ‘ सनातन धर्म के सिद्धान्तों को प्रोत्साहित-प्रसारित करना है और यह कार्य गीता, रामायण, उपनिषद, पुराण, संतो के चरित्र निर्माण की पुस्तकों का बहुत कम दाम में प्रकाशन कर ’ किया जाता है। गाोविन्द भवन कार्यालय सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1960 के तहत पंजीकृत है। गीता प्रेस अब तक गीता, श्रीराम चरित मानस, तुलसीदास की रचनाएं, भक्त गाथा, भजन, पुराण, उपनिषद आदि की 58 करोड़ से अधिक प्रतियां छाप चुका है। ये पुस्तकें हिन्दी के अलावा संस्कृत, गुजराती, तेलगू, उड़िया, अंगे्रजी, मराठी, तमिल, कन्नड़ , नेपाली आदि भाषाओं में प्रकाशित हुई हैं।

गीता प्रेस के अलावा गीता भवन त्रषिकेश भी इसकी एक यूनिट है। यहां पर आयुर्वेदिक दवाओं का उत्पादन होता है। इसके अलावा यहां श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए सैकड़ों कमरे व संत्सग की व्यवस्था की गई है जिससे काफी आय भी होती है। यहां पर लगभग 100 कर्मचारी कार्यरत हैं जिसमें 80 स्थायी हैं। गीता प्रेस की पूरे देश गोरखपुर, नई दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, कानपुर, पटना, रांची, सूरत, इंदौरा, जलगांव, हैदराबाद, नागपुर, कटक, रायपुर, वाराणसी, हरिद्वार, बंगलुरू आदि में 20 दुकानें हैं और रेलवे स्टेशनों पर 35 स्टाल हैं। यहां पर भी कर्मचारी कार्यरत हैं। गीता प्रेस को 11 सदस्यीय बोर्ड आफ ट्रस्टी संचालित करता हैं। इन ट्रस्टियों में पांच गोरखपुर के हैं। बैजनाथ अग्रवाल मैनेजट ट्रस्टी हैं जबकि वाराणसी के राधेश्याम खेमका अध्यक्ष हैं। अन्य ट्रस्टियों में देवीदयाल अग्रवाल ( बैजनाथ अग्रवाल के पुत्र ), ईश्वर प्रसाद पटवारी, केशवराम अग्रवाल, विष्णु प्रसाद चांदगोठिया, नारायण अजित सरिया आदि है। नारायण अजित सरिया का गोरखपुर में एक कारखाना है जहां के श्रमिकों ने वाजिब मजदूरी नहीं मिलने पर कई बार आंदोलन किया था। सभी बड़े व्यवसायी हैं।

गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित सभी धार्मिक साहित्य की छपाई यहीं होती है। धार्मिक साहित्य के अलावा डायरियां, पत्रिका कल्याण, कल्याण कल्पतरू का भी प्रकाशन होता है। कज्याण 220 रूपए वार्षिक की पत्रिका है और इसकी ग्राहक संख्या 2.15 लाख है। कल्याण कल्पतरू की ग्राहक संख्या 4 से पांच हजार है। गीता प्रेस का वार्षिक टर्नओवर लगभग 60 करोड़ का बताया जाता है। हालांकि यह लाभदायक संस्था नहीं है और घाटे को गीता वस्त्र विभाग द्वारा पूर्ति करना बताया जाता है। इसके अलावा करोड़ों रुपए दान भी मिलते हैं। टैक्स में भी भारी छूट मिलती है। कर्मचारियों के अनुसार गीता प्रेस की वित्तीय व्यवस्था पारदर्शी नहीं है जिससे यह कहना मुश्किल है कि यह घाटे की संस्था है। यह वस्त्र विभाग एक विशाल दुकान है जहां पर कपड़ों की बिक्री होती है।

गीता प्रेस में कर्मचारियों को कम वेतन मिलने सहित अन्य श्रम अधिकारों की कटौती के विराध में 1982 में आन्दोलन हुआ था। कई दिन हड़ताल भी हुई। मुख्य मांग सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन दिए जाने की थी। उस समय गीता प्रेस कर्मचारियों की यूनियन भी थी जो किन्हीं कारणों से 1998 में खत्म हो गई।

वर्ष 1992 में प्रदेश सरकार ने निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए न्यूनतम वेतन निर्धारण किया। इसमें चपरासी का न्यूनतम मूल वेतन 750 और क्लर्क का 1229 था। इसमें यह भी व्यवस्था थी कि न्यूनतम पुनरीक्षित वेतन से अधिक पाने वाले कर्मचारियों के महंगाई भत्ते का निर्धारण उनके द्वारा प्राप्त वेतन पर ही किया जाएगा। गीता प्रेस प्रबन्धन ने महंगाई भत्ता को कर्मचारियों के वर्तमान मूल वेतन के आधार पर देने से इंकार कर दिया। कर्मचारियों ने जब विरोध किया तो प्रबन्धन अदालत में चला गया। श्रम न्यायालय में प्रबन्धन की हार हुई तो वह हाईकोर्ट इलाहाबाद में गया। हाईकोर्ट ने भी प्रबन्धन की दलील को खारिज कर दिया और उसे मूल वेतन पर महंगाई भत्ता देने को कहा। यह फैसला 1998 में आया।

हाईकोर्ट में मुकदमा हारने के बाद प्रबन्धन ने यूनियन से समझौता किया और कहा कि वह हाईकोर्ट के सिंगल बेंच के इस फैसले केा डबल बेंच में चुनौती देगा। जब वहां से फैसला आएगा तभी वह 1992 से 1997 का एरियर देगा। अभी वह वर्ष 1998 से न्यूनतम मूल वेतन पर महंगाई भत्ता देगा। यहां पर प्रबन्धन ने एक और धूर्तता की। उसने यह कहा कि जिन कर्मचारियों का मूल वेतन 1229 से अधिक था उस पर हम महंगाई भत्ता नहीं देंगे। उस वक्त कर्मचारी इसको मान गए।
उधर 23 दिसम्बर 2010 को हाईकोर्ट की डबल बेंच ने गीता प्रेस प्रबन्धन की दलील को खारिज कर दिया और कहा कि वर्ष 1992 में प्रदेश सरकार द्वारा निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए जारी राजज्ञा के अनुसार मूल वेतन और महंगाई भत्ता दे। इस आदेश के बाद प्रबन्धन को मजबूरन 92 से 97 तक एरियर का भुगतान किया लेकिन यहाँ फिर बदमाशी की कि न्यूनतम मूल वेतन को ही सीलिंग मानते हुए, इस पर महंगाई भत्ता दिया। उसने कर्मचारियों के वेतन को दो भागों में बांट दिया। सरकार द्वारा पुनरीक्षित न्यूनतम वेतन और इससे अधिक दिए जाने वाले वेतन को उसने एडहाक कहा। उसने महंगाई भत्ते का निर्धारण न्यूनतम वेतन पर किया। इसकी शिकायत कर्मचारियों ने श्रम आयुक्त कार्यालय में की।

कर्मचारियों की शिकायत पर सितम्बर 2011 में श्रम अधिकारी हेमंत श्रीवास्तव ने स्थलीय निरीक्षण किया। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा कि गीता प्रेस प्रबन्धन प्रदेश सरकार के आदेश का पालन न कर कर्मचारियों को कम वेतन दे रहा है। उन्होंने एक कर्मचारी के वेतनमान और उस पर निर्धारित किए गए मंहगाई भत्ते का विस्तार से जिक्र करते हुए कहा कि इस कर्मचारी को हर महीने 3600 रूपए कम मिल रहे हैं। यही हाल सभी कर्मचारियों का है। प्रबन्धन ने इस आदेश को भी नहीं माना और वेतन निर्धारण में मनमानी का विरोध कर रहे लिपिक चन्द्रशेखर ओझा को बर्खास्त कर दिया जबकि वह मेडिकल अवकाश पर थे।

इसी बीच 28 जनवरी 2014 को प्रदेश सरकार ने प्राइवेट सेक्टर के लिए वेतनमान संशोधन किया। इसके अनुसार कर्मचािरयों को तीन श्रेणियों -कुशल, अर्धकुशल और अकुशल रखते हुए इनके लिए न्यूनतम मूल वेतनमान क्रमशः 7085, 6350 और 5750 निर्धारित किया। इस राजज्ञा में यह भी कहा गया था कि यदि कोई कर्मचारी सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मूल वेतन से अधिक पा रहा है तो उसका वेतन कम नहीं किया जाएगा और उसके द्वारा प्राप्त किए जा रहे वेतन पर ही महंगाई भत्ते का निर्धारण होगा। लेकिन गीता प्रेस प्रबन्धन ने इस राजज्ञा का भी उल्लंघन किया और महंगाई भत्ते का निर्धारण न्यूनतम मूल वेतन पर किया जबकि उसे कर्मचारी द्वारा वर्तमान में प्राप्त किए जा रहे वेतन पर इसका निर्धारण करना चाहिए थे। इस तरह से उसने कर्मचारियों का दो दशक से अधिक समय से एरियर का करोड़ों रुपया दबा लिया। यहीं नहीं उसने कर्मचारियों की श्रेणी निर्धारित करने में भी मनमानी की।

गीता प्रेस में कार्य करने वाले कैजुअल कर्मचारियों की स्थिति तो और भी बुरी है। इन कर्मचारियों को तीन से चार हजार रुपये मासिक वेतन दिया जाता है जबकि सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतनमान के अनुसार किसी भी कर्मचारी को छह हजार से कम नहीं मिलना चाहिए। प्रबन्धन इन कर्मचारियों से न्यूनतम वेतनमान वाले प्रपत्र पर दस्तखत तो कराता है लेकिन इनको तीन से चार हजार रूपया ही देता है। यहीं नहीं इन कर्मचारियों को सेवा के नाम पर एक घंटे अधिक काम लिया जाता है जिसकी कोई मजदूरी इन्हें नहीं मिलती है। 20 वर्ष से अधिक समय से काम करने के बावजूद इन्हें स्थायी  नहीं किया गया और प्रबन्धन इनका पीएफ, ईएसआई आदि सुविधाएं भी नहीं देता जबकि ये छपाई करने वाली आधुनिक आटोमेटिक मशीनों, किताबों की सिलाई करने वाली मशीनों पर काम करते हैं और इनका काम कुशल श्रमिक की श्रेणी में आता है।

कर्मचारियों की हाजिरी फार्म 12 पर नहीं करायी जाती है और उन्हें आज तक पदनाम नहीं दिया गया है। करीब 600 कर्मचारियों वाले गीता प्रेस में कोई कैन्टीन तक नहीं है। कर्मचारियों की यह भी मांग है कि उनकी सेवनिवृत्ति की आयु 60 वर्ष की जाए और पूरे वर्ष मिलने वाली सवेतन अवकाश में की गई कटौती खत्म कर उसे सबके लिए 30 दिन का किया जाए। अभी किसी को 21 तो किसी को 27 दिन का सवेतन अवकाश दिया जा रहा है।

श्रमिकों के आंदोलन पर जब प्रबन्धन ने 16 दिसम्बर गीता प्रेस में तालाबंदी कर दी तब डीएम ने सख्त रूख अपनाया और उनसे कहा कि तालाबंदी गैरकानूनी है। इसके बाद डीएम के निर्देश पर उप श्रमायुक्त कार्यालय में श्रमिक प्रतिनिधियों, प्रबन्धन और प्रशासनिक अधिकारियों के बीच दो बार वार्ता हो चुकी है जिसमें प्रबन्धन अभी भी अड़ियल रूख अपनाए हुए है। उसने अभी कुछ छोटी मांगे जैसे-कैंटीन खोलने, फार्म 12 पर हाजिरी लेने, ओवर टाइम कराने पर दूना मजदूरी देने, कर्मचारियों के वेतन स्लिप पर पदनाम लिखने की सहमति दी है। कैजुअल कर्मचारियों को नियमित करने, उन्हें न्यूनतम वेतनमान देने और स्थायी कर्मचारियों के करोड़ो रूपए के एरियर के भुगतान पर वह गोलमटोल जवाब दे रहा है। प्रशासन ने भी इस मुद्दे पर प्रदेश सरकार से सुझाव मांगने का निर्णय लिया है। अगली वार्ता 12 फरवरी 2015 को होनी है।

कर्मचाारी इस बार किसी कीमत पर झुकने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने गीता प्रेस में एक बार फिर से यूनियन बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है और सभी कैजुअल कर्मचारियों का नाम पीएफ आफिस में दे दिया है ताकि उनके प्रबन्धन से पीएफ अंश जमा कराया जा सके।

(समकालीन जनमत के जनवरी 2015 अंक में प्रकाशित)

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