गोरखपुर। वेतन वृद्धि, एरियर, अस्थायी मजदूरों को न्यूनतम पुनरीक्षित वेतनमान दिए जाने की मांग को लेकर एक महीने से अधिक समय से गीता प्रेस में चल रही हड़ताल 15 सितंबर को कर्मचारियों की एकता में दरार पड़ने के नाते टूट गयी। स्थायी कर्मचारी 15 सितम्बर को और अस्थायी कर्मचारी 16 सितम्बर को काम पर लौट आए। प्रबन्धन ने उन पांच स्थायी कर्मचारियों को काम पर नहीं लिया जिसे वह बर्खास्त कर चुके थे। इस तरह 37 दिन तक चली हड़ताल का अंत कर्मचारियों की कोई मांग माने बिना खत्म हुई। यही नहीं पांच अस्थायी कर्मचारी नौकरी से निकाले भी गए लेकिन इस हड़ताल ने सस्ते धार्मिक साहित्य प्रकाशित करने के कारण विश्वप्रसिद्ध हुई इस संस्था में कर्मचारियों के शोषण, श्रम कानूनों की घोर अवहेलना और भारी भ्रष्टाचार को पूरी दुनिया के सामने ला दिया।
गीता प्रेस में 200 स्थायी कर्मचारी और 338 अस्थायी कर्मचारी हैं। अस्थायी कर्मचारियों को पहले गीता प्रेस में कैजुअल श्रमिक के रूप में कागजी दुकानों पर श्रमिक के तौर पर दर्शाया गया था और सात महीने पहले इन्हें संविदा श्रमिक बना दिया गया जबकि ये श्रमिक 30 वर्षों से काम कर रहे है। स्थायी श्रमिक लम्बे समय से वर्ष 1992 से मूल वेतन पर महंगाई भत्ते की गणना करते हुए एरियर व नियमित वार्षिक वेतन वृद्धि की मांग कर रहे है। गीता प्रेस प्रबंधन महंगाई भत्ते की गणना मूल वेतन के बजाय न्यूनतम वेतन को ही अधिकतम सीमा मानकर एरियर देने की बात कहता रहा है।
इस विवाद को लेकर पहले दिसम्बर 2014 में कर्मचारियों ने धरना-प्रदर्शन, आंदोलन किया जो मध्य फरवरी तक चला। इस दौरान प्रबंधन ने समझौते का पालन नहीं किया और स्थायी कर्मचारियों को वेतन वृद्धि लेने के लिए वर्ष 92 से महंगाई भत्ते का एरियर छोड़ने की शर्त रख दी। अस्थायी कर्मचारी भी न्यूनतम पुनरीक्षित वेतनमान न दिए जाने से नाराज थे। इसको लेकर आठ अगस्त को सहायक प्रबंधक से कर्मचारियों का विवाद हुआ। प्रबंधन ने कर्मचारियों पर मारपीट का आरोप लगाते हुए 12 स्थायी कर्मचारियों को निलम्बित कर दिया और पांच अस्थायी कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया। इसके बाद स्थायी और अस्थायी कर्मचारी हड़ताल पर चले गए।
एक महीने तक प्रबंधन वार्ता के नाम पर तारीख लेता रहा लेकिन कोई ठोस विंदु पर बात नहीं बनी। इसी बीच उप श्रमायुक्त का तबादला हो गया और 14 सितंबर को प्रबंधन प्रभारी उप श्रमायुक्त के यहां वार्ता में नहीं आया। नाटकीय घटनाक्रम में शाम को स्थायी कर्मचारियों से डीएम की वार्ता हुई जिसमें प्रबंधन ने माफीनामा लेने के बाद 12 स्थायी कर्मचारियों का निलम्बन वापस ले लिया। महंगाई भत्ते के एरियर और वेतनवृद्धि पर प्रबंधन की ओर से कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया गया। कुछ कर्मचारी नेताओं ने बताया कि एक महीने में डीएम ने वेतन वृद्धि दिलाने का आश्वासन दिया है। इसके बाद स्थायी कर्मचारी काम पर लौट आए।
स्थायी कर्मचारियों के काम पर वापस आने से कर्मचारियों की एकता में दरार पड़ अस्थायी कर्मचारियों ने इस पर विरोध जताया और दोनांे में टकराव की स्थिति बन गई। पुलिस बल भी बुलाना पड़ा। अगले दिन अस्थायी कर्मचारियों ने फिर प्रदर्शन किया। इसके बाद हुई वार्ता में पांच अस्थायी कर्मचारियों को छोड़ शेष को प्रबंधन ने काम पर वापस ले लिया।
बिना किसी ठोस समझौतेे के हड़ताल खत्म होने से 37 दिन बाद गीता प्रेस में कामकाज जरूर शुरू हो गया लेकिन स्थिति और ज्यादा गंभीर होती जा रही है। अस्थायी कर्मचारी बहुत गुस्से में हैं और अपने को ठगा महसूस कर रहे हैं। स्थायी कर्मचारियों के एक बड़े हिस्से में भी इस तरह हड़ताल से कुछ हासिल न होने का मलाल है। उनका कहना है कि उनकी किसी भी मांग पर लिखित समझौता नहीं हुआ है। प्रबंधन जब लिखित समझौते का अनुपालन नहीं कर रहा है तो मौखिक आश्वासन पर काम पर वापस लौटने का क्या मतलब है ?
गीता प्रेस कर्मचारियों की हड़ताल और उनके मांगों का गोरखपुर के मुख्य राजनीतिक दलों और उनके नेताओं द्वारा का समर्थन न किया जाना इस बात को दर्शाता है कि ये दल और उनके नेता श्रमिकों के हित की सिर्फ बातें ही करते हैं। उनका श्रमिकों से कोई वास्ता नहीं है। भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने यह बयान दिया कि गीता प्रेस प्रबंधन का सम्मान होना चाहिए और मजदूरों के हक पर चोट नहीं पड़नी चाहिए। उन्होंने मजदूरों से वार्ता का ढोंग भी किया लेकिन गीता प्रेस प्रबंधन से उनकी जायज मांगों को मनवाने के लिए कोई दबाव नहीं बनाया। दरअसल वह बातचीत का केवल दिखावा कर रहे थे। वह पूरी तरह से प्रबंधन के साथ थे। कर्मचारियों को भी यह जल्द समझ में आ गया।
हड़ताल के दौरान सोशल मीडिया में गीता प्रेस के बंद होने और आर्थिक संकट में होने का खूब प्रचार किया गया और इसके लिए चंदे भी मांगे गए। हालांकि प्रबंधन ने इसका खंडन किया लेकिन इस बात के सबूत नहीं दिए कि वह चंदा नहीं लेता है। गीता प्रेस की आय-व्यय के बारे में कोई पारदर्शिता नहीं है। उनकी वेबसाइट पर प्रकाशित पुस्तकों व अन्य कार्यों के बारे में विस्तृत ब्योरा है लेकिन आय-व्यय के बारे में कोई जिक्र नहीं हैं। कर्मचारियों ने बताया कि गीता प्रेस ने हाल में सर्वाधिक बिकने वाली कई पुस्तकों को दाम कई बार बढ़ाया है। उनकी वार्षिक डायरी भी लाखों की संख्या में बिकती है। पत्रिकाओं की पाठक संख्या भी लाखों में है। प्रेस से रद्दी कागज लाखों में बेचे जाते हैं। कर्मचारियों ने बताया कि प्रबंधन से जुड़े लोगों की सम्पत्ति में हाल के वर्षों में खूब इजाफा हुआ है। कई ने करोड़ों की जमीन खरीदी है। यह सब इंगित करता है कि धर्म के आड़ में इस संस्थान में भ्रष्टाचार की जड़े भी काफी मजबूत हैं। यदि प्रबंधन की ही बात मानें कि संस्थान आर्थिक संकट में नहीं है तो उसे कर्मचारियों का एरियर और श्रम कानूनों के मुताबिक कर्मचारियों को वेतन देने में क्यों दिक्कत हो रही है ? दरअसल प्रबंधन श्रम की लूट से भारी मुनाफा बटोर रहा है और इसे ढंकने के लिए धर्म की आड़ ले रहा है।
( यह रिपोर्ट समकालीन जनमत के अक्टूबर 2015 के अंक में प्रकाशित हुई )