विचार

नये मिजाज का शहर

स्वदेश कुमार सिन्हा

कोई हाथ भी न मिलायेगा , जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो।
बशीर बद्र

एक मित्र करीब एक दशक बाद नगर मेें पधारे तथा यहाॅ का विकास देखकर चकित रह गये। बड़े -बड़े फ्लाई ओवर , शानदार शापिंग माल्स , मल्टी प्लेक्स,  सिनेमाहाल, रामगढ़ताल बनता पर्यटन केन्द्र ,एम्स बनाने तथा फर्टीलाईजर चलाने का निर्णय कुल मिलाकर एक कस्बाई शहर बड़ी तेजी से महानगर मेें परिवर्तित हो रहा है। सड़को पर बढ़ता जाम और प्रदूषण भी इसकी गवाही दे रहा है। आज की भाषा में जिसे विकास कहते हैैं वह तेजी से अपने गोरखपुर शहर मेें हो रहा है।
परन्तु इस विकास का एक स्याह पक्ष भी है जिसे शायद आज के भागदौड़ मेें किसी को को देखने की फुर्सत भी नही है। पिछले दिनों हिन्दी ,उर्दू के एक बड़े कथाकार से उनके निवास पर मिला। उम्र काफी हो गयी है। नब्बे के दशक में नगर में होने वाली साहित्यिक गोष्ठियोें के वे चर्चित चेहरे हुआ करते थे। वे बताने लगे अब शहर में साहित्यिक गोष्ठियाॅ करीब -करीब समाप्त हो गयी हैै। आज कल एसएमएस , व्हाट्सएप ,फेसबुक कल्चर है। जो इसमें शामिल नही है वह समाज से भी बाहर हो गया है। यह दर्द उनका अकेला नही है। सारे पुराने लोगो के दर्द की यह अभिव्यक्ति है।

नब्बे के दशक मेें जब मै विश्वविद्यालय का छात्र था नगर में सहित्यिक गोष्ठियोें, सेमिनारो की धूम मची रहती थी। हम लोग खुद निमंत्रण पत्र. लेकर साइकिलो से लोगो के घर पहुॅचते थे। लोगो से वैचारिक मतभेद होने के बावजूद सभी लोगों तथा उनके परिवारो से बहुत मजबूत संबंध थे। शहर में अनेक नाट्य संस्थाएं थीं। उनमेें डा0 गिरीश रस्तोगी देश स्तर की निर्देशिका थी। उनके निर्देशन मेें ब्रेख्त जैसे महान नाटककारों के नाटक् भी शहर में मंचित हुए है। दूसरी ओर प्रो0 लाल बहादुर वर्मा की नाट्य संस्था के नुक्कड़ नाटकों की धूम थी जो अधिकतर सामाजिक , राजनैतिक मुद्दो पर होते थे। आज गिरीश रस्तोगी इस दुनियाॅ मेें नहीं हैं। लाल बहादुर वर्मा दिल्ली में जाकर बस गये। शौकियाॅ नाट्य संस्थाये विलुप्त हो गयी। जो बची हैं उसमेें तेजी से व्यावसायिकता हावी होती जा रही है।

पहले नगर में बड़े- बड़े अखिल भारतीय मुशायरे और कवि सम्मेलनो की धूम रहती थी। अब तो उन्हे श्रोता मिलना भी मुश्किल हो जाता है। नब्बे के दशक मेें हम लोग साहित्यिक पुस्तकें तथा पत्रिकाएॅ लेकर लोगो के घर -घर पहुॅचते थे। ‘ अक्षरा ‘ जैसी पुस्तक की दुकान संचालक की आर्थिक दिक्कतो के कारण बन्द हो जाने के कारण पुस्तकों तथा पत्रिकाओ का मानो जैसे अकाल पड़ गया है क्योकि यह दुकान साहित्यिक ,सांस्कृतिक वाद विवाद का केन्द्र बन गयी थी। नगर की एक मात्र पुस्तकालय राजकीय पुस्तकालय करीब-करीब बन्द हो गई है। वहाॅ की पुस्तकें दीमक चाट रही हैं। पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय होने के कारण शहर में एक मात्र पुस्तकालय रेलवे का है परन्तु उसका लाभ भी केवल रेलवे के कर्मचारी उठा पाते हैै। प्रेमचन्द सहित्य संस्थान ,जन संस्कृति मंच , प्रलेस  , जलेस , इप्टा जैसी कुछ संस्थाएं वर्ष में कुछ कार्यक्रम जरूर कर लेती हैै। बाकी तो जनपक्षधर कार्यक्रम नामात्र के होते हैं । साहित्यिक कार्यक्रमों के नाम पर फूहड़पन तथा अपसंस्कृति व्याप्त हो गयी। यद्यपि हर साल होने वाला प्रतिरोध का सिनेमा फिल्म समारोह तथा पुस्तक मेला  इस गतिरोध को तोड़ने की कोशिश जरूर कर रहा है। शहर मेें बढ़ते अलगाव व अजनबीपन और अपसंस्कृति के बढ़ते प्रदूषण के खिलाफ शायद नयी पीढ़ी ही आगे आकर कुछ कर सकेगी। तभी सही अर्थो मेें नगर का भौतिक के साथ -साथ सांस्कृतिक और वैचारिक विकास भी होगा । उस दिन का इन्तजार सभी को है।

swadesh

 

(लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा से 9839223957  या  neelamswadesh2@gmail.com  से संपर्क किया जा सकता है )

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