लोकरंग में ” सामाजिकता के निर्माण में लोक नाट्य की भूमिका ” पर संगोष्ठी
जोगिया ( कुशीनगर)। 11वें लोकरंग के दूसरे दिन आज दोपहर में ‘ सामाजिकता के निर्माण में लोकनाट्य की भूमिका ’ विषय पर संगोष्ठी हुई। संगोष्ठी में बोलते हुए प्रख्यात इतिहासकार प्रो लाल बहादुर वर्मा ने कहा कि सामाजिकता के बिना मुनष्य, मनुष्य नहीं रहा सकता। आज सारा षडयंत्र इसी बात का है कि हम सामाजिक न रह जाएं। मनुष्य सामाजिक होने के साथ-साथ सांस्कृतिक प्राणी है। नाटक तभी चरितार्थ होता है जब वह दर्शकों के सामने प्रदर्शित होता है। दर्शक भी नाटक को रचते हैैं। उन्होंने समाज और देश को लोकतांत्रिक बनाने की लड़ाई घर से शुरू करने का आह्ान किया।
वरिष्ठ साहित्यकार प्रेम कुमार मणि ने कहा कि सामाजिकता के निर्माण में समाज और मनुष्यता का एक अन्तर्सबन्ध बनता है। हमारे सामने प्राकृतिक न्याय और सामाजिक न्याय के सवाल है। प्राकृतिक न्याय जिसकी लाठी उसकी भैंस का न्याय है जबकि सामाजिक न्याय कमजोर पर शासन, शोषण का विरोध करता है और सबके लिए न्याय सुनिश्चित करता है। लोकनाट्य ने जमींदारों, अमीरों के खिलाफ समानता के पक्ष में आवाज बुलंद की है। स्त्री के खिलाफ अन्याय, गरीबी के सवाल को प्रमुखता से उठाया। हाशिए के समाज की बात की। आज आधुनिकता और लोक के बीच इतनी दूर क्यों और कैसे बन गई , सोचने की बात है।
इसके पहले संगोष्ठी की शुरूआत करते हुए ग्वालियर से आए नाट्यकर्मी योगेन्द्र चैबे ने कहा कि लोक कलाएं कभी प्रदर्शन के लिए नहीं बनीं। आज लोकनाट्य को परम्परा की पैकेजिंग के नाम पर परोसा जा रहा है। लोककलाएं, लोकप्रियता के दबाव मे आ रही हैं जिसे मुक्त कराने के लिए संघर्ष की जरूरत है।
कवि एवं रीवा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो दिनेश कुशवाह ने कहा कि लोकनाट्य में तरह-तरह के प्रतिरोध दिखते है। भिखारी ठाकुर ने ‘ बेटी बेचवा ’ का प्रदर्शन किया तो इसने एक आंदोलन का रूप ले लिया था। लोकनाट्य सामाजिकता के निर्माण में प्रगतिशील और प्रतिरोध के मूल्य गढ़ते हैं।
कवि बलभद्र ने जनकवि रमता जी को याद करते हुए कहा कि लोकनाट्य से सामाजिकता की पहचान होती है। सामाजिक निर्माण की दिशा क्या हो, उसका विकास कैसे हो इस पर विचार करने की जरूरत है और उसके अनुरूप कार्य करने की जरूरत है।
वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन ने कहा कि नाटक लोगों से संवाद का सबसे प्रभावशाली माध्यम है। भिखारी ठाकुर, हबीब तनवीर की परम्परा का विकास क्यों अवरूद्ध हुआ यह हमारी चिंता का विषय है।
पत्रकार एवं जन संस्कृति मंच के महासचिव मनोज कुमार सिंह ने डा अम्बेडकर को उनकी जयंती पर याद करते हुए कहा कि डा अम्बेडकर ने कहा था कि भारत में यदि गैरबराबरी और सामाजिक विषमता खत्म नहीं की गई तो संवैधानिक लोकतंत्र विफल हो जाएगा। आज यह सच होता दिखाई देता है। सामाजिक विषमता के खिलाफ हजारों वर्षों की लड़ाई को तीखा और निर्णायक बनाने में सांस्कृतिक आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस सांस्कृतिक आंदोलन में लोकनाट्य की प्रतिरोधी परम्परा ने बड़ा योगदान दिया है और हमें इसकी क्रांतिकारी परम्परा को आगे बढ़ाना होगा।
सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक विद्याभूषण रावत ने कहा कि डा. अम्बेडकर के विचारों की बुनियाद पर काउंटर कल्चरल नैरेटिव को स्थापित करने की जरूरत है। ज्ञान पर एक समुदाय का कब्ब्जा है और वही दलित साहित्य को व्याख्यायित कर रहा है। सभी परम्पराएं महान नहीं होती हैं। उन्होंने लोक और आधुनिकता के फयूजन पर जोर दिया।
देहरादून से आईं सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला ने देहरादून में सामाजिक संस्कारों में पितृसत्तात्मक मूल्यांे के खिलाफ किए जा रहे कार्यों का उल्लेख करते हुए कहा लोकगाथाओं में महिलाओं का चरित्र चित्रण नकारत्मक है जिसे बदलने की जरूरत है। कवि-कथाकार-नाटककार सुरेश कांटक ने कहा कि लोक नाटकों का उपज ही सामाजिक विषमता के खिलाफ विद्रोह से हुआ। शिष्ट साहित्य ने समाज के बड़े हिस्से को अंधेरे में रखने की कोशिश की है जबकि लोक नाट्य जिसका वर्तमान रूप नुक्कड़ नाटक है, ने समाज परिवर्तन के लिए बड़ा काम किया है। ब्रेख्त ने लोकनाट्य में वैचारिकता को मिलाकर उसे समाज परिवर्तन में बड़ी भूमिका के लिए तैयार किया।
लेखक-पत्रकार सिद्धार्थ ने कहा कि डा अम्बेडकर ने बहुत साफ तौर पर कह दिया था कि देश के अंदर जाति व्यवस्था और पितृसत्ता के रहते सामाजिकता, बंधुता पनप ही नहीं सकती। लोक नाट्य सामूहिकता और चिंता की उपज है जो लोक के फार्म में लोक के बीच प्रदर्शित होती है।
संगोष्ठी में लेखक मोतीलाल, राम प्रकाश कुशवाहा, डा. जितेन्द्र भारती आदि ने अपने विचार रखे और लोकनाटकों के साथ अपने अनुभव को साझा करते हुए समाज परिवर्तन में इसकी भूमिका को महत्वपूर्ण बताया। धन्यवाद ज्ञापन लोकरंग के आयोजन सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने किया। संचालन डा महेन्द्र कुशवाहा ने किया।