प्रियंका गांधी की राजनीति में एंट्री , एक सप्ताह में उत्तर प्रदेश की 27 सीटों पर प्रत्याशी घोषित कर और भीम आर्मी के नेता चन्द्रशेखर रावन से भेंट कर कांग्रेस ने यूपी की सियासत में करीने से बाजी खेलनी शुरू कर दी है.
अब कांग्रेस यूपी में प्रियंका गांधी के धुआंधार दौरों के जरिए चुनावी माहौल को पूरी तरह बदल देने की तैयारी में जुटी है.
इन सबके बावजूद लाख टके का सवाल बना हुआ है कि 2019 के चुनाव में कांग्रेस कितना आगे बढ़ पाएगी. क्या वह वर्ष 2009 के अपने प्रदर्शन को दुहरा पाएगी ?
23 जनवरी 2019 को जब प्रियंका गांधी की राजनीति में एंट्री और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का पार्टी प्रभारी बनाने की घोषणा हुई तो सबके सामने स्पष्ट हो गया कि उत्तर प्रदेश में लम्बे अर्से से हाशिए पर रह रही पार्टी को नए सिरे से खड़े करने के लिए कांग्रेस ने अपने आखिरी शस्त्र को चला दिया है.
वर्ष 2019 का चुनाव महायुद्ध की तरह है. महायुद्ध में हर दल अपने सभी अस्त्र-शस्त्र का इस्तेमाल करेगा क्योंकि सबका अस्तित्व दांव पर लगा हुआ है. इस महायुद्ध में कोई भी दल अपने अचूक वार करने वाले अस्त्र को पैवेलियन में नहीं बिठा सकता. प्रियंका गांधी को मैदान में उतराने का फैसला, इसी रणनीति का हिस्सा था क्योंकि यदि इस चुनाव में कांग्रेस यूपी में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती है तो उसका सीधा मतलब होेगा कि अन्य राज्यों में अच्छे प्रदर्शन के बावजूद केन्द्र की राजनीति में उसकी वापसी न सिर्फ मुश्किल होगी बल्कि क्षेत्रीय दलों के पीछे उसको चलना पड़ेगा.
वर्ष 1989 के बाद से कांग्रेस यूपी में राजनीति की मुख्य धारा से हाशिए पर चली गई. वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव को छोड़ कर किसी भी विधानसभा या लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन ठीक नहीं रहा. वर्ष 2014 के लोकसभा व 2017 की विधानसभा चुनाव ने तो उसके अस्तित्व को लगभग खत्म कर दिया. लोकसभा में उसे सिर्फ रायबरेली व अमेठी की सीट आई जबकि विधानसभा में उसे सिर्फ सात सीटें मिलीं.
इन तीन दशकों में कांग्रेस ने अपनी वापसी के लिए हर जतन किए. यहां तक कि सपा से गठबंधन भी किया लेकिन उसका साथ भी काम नहीं आया. बार-बार प्रदेश अध्यक्ष व प्रभारी बदले गए. राहुल गांधी ने लम्बी किसान यात्रा की फिर भी पार्टी में जान नहीं आ सकी. पूरी पार्टी में निराशा का वातावरण बन गया. तमाम बड़े नेता पार्टी का साथ छोड़ भाजपा व अन्य दलों में चले गए.
लेकिन हाल के कुछ महीनों से हालात बदले हैं. कर्नाटक में जद यू (एस) के साथ सरकार बनाना और फिर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में जीत ने कांग्रेसियों के मनोबल को सातवें आसमान में पहुंचा दिया है. उन्हें लगता है कि कांग्रेस की वापसी हो रही है और 2019 का चुनाव उन्हें फिर से केन्द्र की सत्ता में पहुंचा देगा.
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान की जीत के बाद कांग्रेसी यह भी कहने लगे कि यूपी में किसी पार्टी के साथ गठबंधन की जरूरत नहीं है. पार्टी अपने बूते भी अच्छा प्रदर्शन कर सकती है. सपा और बसपा का गठबंधन होने और गठबंधन में जगह न दिए जाने से कांग्रेस के पास इसके सिवा कोई चारा भी नहीं था कि वह अकेले चुनाव में उतरे. अब जब कांग्रेस अकेले चुनाव में तो उतर गई है तो उसके सामने अखिलेश-मायावती और मोदी-योगी का सामना करने लायक पार्टी संगठन खड़ा करने और यूपी के लिए बड़े चेहरे की जरूरत है. प्रियंका गांधी को मैदान में उतार चेहरे की कमी दूर कर ली गई है लेकिन पार्टी संगठन की कमजोरी बरकरार है और ऐन चुनाव के वक्त उसमें ज्यादा कुछ किया भी नहीं जा सकता. सिवा इसके कि कार्यकर्ता उत्साहित रहें और अपनी पूरी क्षमता चुनाव में दें.
इन सब परिस्थितियों के बावजूद प्रियंका गांधी के लिए चुनौती आसान नहीं है. सामाजिक आधार के रूप में कांग्रेस के पास अपना कोई वोट बैंक नहीं है. सपा-बसपा के गठबंधन से पिछड़े और दलित वोट बैंक में सेंध लगाना आसान नही है. सवर्णों में नाराजगी के बावजूद भाजपा से अलग किसी दल का दामन थामने की गुंजाइश कम ही दिखती है. पूर्वी उत्तर प्रदेश ही वह इलाका है जहां अस्मिता की राजनीति सबसे अधिक तीखी है. पटेल, कुर्मी, राजभर, चौहान, निषाद, कुर्मी-कुशवाहा आदि जातियों की अपनी-अपनी पार्टियां बन चुकी हैं और उनका अपनी जातियों पर पकड़ बेहद मजबूत है. कांग्रेस को इन सबके वोट बैंक को तितर-बितर कर अपने लिए कम से कम 20 फीसदी से अधिक वोटों को जुगाड़ करना होगा तभी वह यूपी में सम्मानजनक स्थान पा सकती है.