साहित्य - संस्कृति

वक्त की आवाज़ है कि लेखक, कलाकार एकजुट होकर सत्ता के क्रूर व हिंसक चेहरे को बेनकाब करें

गोरखपुर। इप्टा की गोरखपुर इकाई ने 25 मई को अपने स्थापना दिवस पर गोरखपुर जर्नलिस्ट्स प्रेस क्लब सभागार में ‘ इप्टा की विरासत और चुनौतियाँ ‘ विषय पर गोष्ठी और जन गीतों के गायन का कार्यक्रम आयोजित किया।

कार्यक्रम में सबसे पहले शैलेन्द्र निगम, आसिफ सईद, संजय सत्यम,अभिषेक शर्मा, कुसुम ज्योति, विनोद चंद्रेश , उदयन मुखर्जी और राम आसरे ने जन गीत प्रस्तुत किए।

इसके बाद इप्टा के संयोजक डॉ मुमताज़ खान ने गोष्ठी में नहीं आ सके गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो चितरंजन मिश्र का सन्देश पढ़ा। प्रो चितरंजन मिश्र ने अपने संदेश में कहा कि नाटक साहित्य की एक ऐसी ख़ास विधा है जिसमें सभी विधाओं कि उपस्थिति होती है। इसमें कथा, गीत, संगीत, नृत्य सबका महत्व होता है। इसलिए नाटक सबसे ज़्यादा असर करने वाला माध्यम भी होता है पर नाटक की सार्थकता लिखे जाने में नहीं मंच पर प्रस्तुत किए जाने में होती है। नाटकों को लेकर लंबे समय तक यह विवाद रहा है कि नाटक लेखक का है या निर्देशक का, उसे किसकी कृति के रूप में प्रस्तुत किया जाय। एक ही लेखक का नाटक अलग-अलग निर्देशकों द्वारा मंच पर प्रस्तुत किए जाने पर अलग-अलग इफ़ेक्ट उत्पन्न करता है। इसलिए नाटक मंच पर आते ही निर्देशक का हो जाता है और उसी में उसकी सार्थकता है।

 

उन्होंने कहा कि इप्टा ने हिन्दी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं में नाटकों के लिये वैचारिक ज़मीन तैयार की जिसकी अखिल भारतीय भूमिका की उपस्थिति को रेखांकित किया जा रहा है। इप्टा की परिवर्तनकामी चेतना को  भारत के सभी बड़े नाट्य निर्देशक अपनी कला और कौशल के जरिए इज़हार करते रहे हैं। फासीवाद और सांप्रदायिकता के प्रतिकार के लिये इप्टा की प्रतिबद्धता से हम सब परिचित हैं। आज आंदोलनधर्मी मंच की अधिक सक्रियता को महसूस करते हुए सत्ता के क्रूर व हिंसक चेहरे को बेनक़ाब करने कि जरूरत है। इप्टा यह कार्य पहले कर चुकी है। इस कारण उस पर हिंसक हमले हुए। सफ़दर हाशमी जैसे बड़े कलाकार की हत्या आज भी हमारे भीतर सिहरन पैदा करती है।

प्रो मिश्र ने कहा कि इप्टा से जुड़े रंगकर्मियों ने भारतीय समाज में प्रचलित रंगमंच के सभी रूपों को सम्मिलित करके एक नये प्रभावी मंचन की शुरुआत की थी। हम याद कर सकते हैं कि पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, एम के रैना, भीष्म साहनी, हबीब तनवीर, शंभु मित्र, ज़ोहरा सहगल जैसे रंगकर्मी इसकी बुनियाद बनाने में अपनी भूमिका का निर्वाह कर चुके हैं। कृष्णचंदर, अली सरदार ज़ाफ़री, इस्मत चुगताई जैसे बड़े लेखकों ने इप्टा की निर्मिति में अपनी भूमिका निभाई। फ़ैज़, साहिर लुधियानवी और शैलेंद्र जैसे गीतकारों ने इप्टा को मज़बूत करने में अपने को लगाया।

उन्होंने कहा कि आज जब पूँजी, बाज़ार, फासीवादी और  सांप्रदायिक ताकतें पूरे समाज को धर्म और समुदाय के आधार पर बाँटकर अपना राज चलाने में लगी हैं तब इस ख़तरनाक और विचार विरोधी परिदृश्य में इप्टा जैसी संस्थाओं का जिम्मा और ज्यादा बढ़ जाता है। वैसे तो इप्टा शुरू से ही सभी तरह की जड़ताओं पर चोट करते हुए वैज्ञानिक प्रगतिशील चेतना का समाज बनाने में लगी हुई संस्था है लेकिन आज सोचने और सवाल करने पर पाबंदी है और अंधविश्वास को बढ़ावा देने के लिये अनेक तरह की ख़तरनाक कोशिश और साज़िशें चल रही हैं तब जन  बुद्धिधर्मी चेतना से लैस इप्टा के कलाकारों और इस मंच की ज़रूरी सक्रियता को बढ़ाना एक विचार संपन्न समाज को क़ायम करने के लिए बहुत आवश्यक है।

गोष्ठी में जन संस्कृति मंच के महासचिव मनोज कुमार सिंह ने इप्टा की स्थापना और उसके 80 वर्ष की यात्रा की विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि आज के समय की चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिये इप्टा की स्थापना के समय जिस तरह लेखक, कलाकार, रंगकर्मी सहित तमाम विधाओं के रचनाकार एकजुट हुए थे उसी तरह एकजुटता की ज़रूरत है। यह वक्त की आवाज़ है। आज सत्ता पुनरुत्थानवादी एजेंडा और प्रॉपेगेंडा के ज़रिए लोगों को बाँटने , एक दूसरे के ख़िलाफ़ नफ़रत और हिंसा को प्रोत्साहित करने का कार्य कर रही है। एक कठिन दौर में जब सत्ता सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए सभी कला रूपों को अपनी चाकरी में लगा लेने की कोशिश की जा रही है , सांस्कृतिक संगठनों को जन संस्कृति के विकास के लिए पूरी ताक़त लगा देनी चाहिए।

वरिष्ठ पत्रकार अशोक चौधरी ने कहा कि समय और परिस्थिति हमसे माँग कर रही है कि अपने कला रूपों को जनता के बीच लेकर जायें और एक दौर में इप्टा ने जैसा बड़ा हस्तक्षेप किया उसी तरह का हस्तक्षेप किया जाय। इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है।

प्रो अरविंद त्रिपाठी ने कहा कि आज सभी अच्छे चीजों पर सत्ता और बाज़ार की नज़र है। इप्टा की विरासत परिवर्तनकामी चेतना की थी। उसने लोगों की इस सोच को बदल दिया कि कला और साहित्य सिर्फ़ मनोरंजन के लिए है। इप्टा के सभी नाटक परिवर्तनकामी रहे। उन्होंने कहा कि साहित्य ने बहुत पहले फासीवाद के ख़तरे को भाँप लिया था और इससे लड़ने की आवश्यकता बतायी थी। उन्होंने विख्यात नाटककर हबीब तनवीर के जन्म शताब्दी वर्ष के मौक़े पर आयोजन करने पर बल देते हुए कहा कि वे रंग कर्मियों के आज भी रोल मॉडल हैं।

प्रो त्रिपाठी ने कहा कि अपने विरासत के सूत्र को पकड़ कर इप्टा को गाँव, किसानों, मज़दूरों, नौजवानों के बीच जाना चाहिये।

धन्यवाद ज्ञापन डॉ मुमताज़ खान ने किया। इस अवसर पर जय प्रकाश मल्ल, राकेश कुमार श्रीवास्तव, राममूर्ति, कलीमुल हक, धर्मेन्द्र दुबे आदि उपस्थित थे।

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