जीएनएल स्पेशललोकरंग

लोक का नया रंग लोकरंग

कुशीनगर जनपद महात्मा बुद्ध की महापरिनिर्वाण स्थली के कारण दुनिया में मशहूर है लेकिन स्थानीय तौर पर यह जिला समय-समय पर अलग-अलग कारणों से भी जाना जाता रहा है। चार दशक पहले इसकी गंडक, गन्ना और गुंडा के नाम से पहचान रही।

नेपाल से निकलकर बड़ी गंडक नदी महराजगंज के निचलौल इलाके से होते हुए कुशीनगर जनपद में प्रवेश करती है और खड्डा, पनियहवा, तमकुहीराज होते हुए बिहार में चली जाती है। बड़ी गंडक की बाढ़ से होने वाली बर्बादी की एक अलग कहानी है।

गन्ना इस जिले की पहचान है क्योंकि यूपी में सबसे अधिक चीनी मिलों वाले जिले में यह जिला शुमार है। यहां कभी दस चीनी मिलें हुआ करती थी लेकिन अब पांच बंद है। इस साल एक और चीनी मिल बंद हो गई। यहां एक लाख हेक्टेयर में गन्ने की खेती होती थी लेकिन अब रकबा घटता जा रहा है। खड्डा, दुदही इलाके में सैकड़ों गन्ना किसानों ने केले की खेती को अपना लिया है।
कुशीनगर जिले की तीसरी पहचान कभी गुंडा यानी जंगल पार्टी से भी होती थी। इस इलाके के बाहर के लोगों को जंगल पार्टी का नाम सुनकर ताजुब्ब होगा कि भला यह कौन सी राजनीतिक पार्टी है ? यह चुनाव आयोग में पंजीकृत कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है बल्कि पुलिस की फाइल में बड़ी गंडक (नारायणी) के दियारा में सक्रिय रहे डाकुओं के गिरोहों का नाम है। ये गिरोह अपने को पार्टी कहते थे। इन गिरोहों में कुछ गिरोह जातीय वर्चस्व कायम करने के लिए बने थे और उन्हें सत्ता से लेकर बड़े भूमिधरों को समर्थन था तो कुछ गिरोह इनके उत्पीडन का जवाब देने और इनके वर्चस्व को तोड़ने के लिए बने थे। बिहार, नेपाल से चिपका यह इलाका गंडक और उसकी सहायक नदियों के दियारे तथा सोहगीबरवां से लेकर बाल्मीकिनगर जंगल से होते हुए नेपाल के चितवन नेशनल पार्क का घना जंगल इन गिरोहों की शरणस्थली थे।
अब जंगल पार्टी इतिहास है और कभी शाम होने के पहले सन्नाटे में डूब जाने वाला यह इलाका गंडक नदी में मिलने वाली मछलियों-विशेषकर चेपुआ मछली के कारण गुलजार रहने लगा है। चेपुआ मछली के कारण पनियहवा रेलवे स्टेशन जबर्दस्त पिकनिक स्पॉट बन गया है। यह मछली बड़ी गंडक नदी में ही पाई जाती है। पनियहवा स्टेशन के बाहर  झोपड़ी वाले रेस्टोरेंट में चेपुआ के साथ साथ मांगुर, बरारी, टेंगर, सौरा मछली भूजा के साथ साथ मिलती है।

कुशीनगगर दो दशक पहले मैत्रेय प्रोजेक्ट और इंटरनेशनल एयरपोर्ट की वजह से चर्चा में आया। दो दशक तक चले किसान आंदोलन के कारण मैत्रेय प्रोजेक्ट की यहां से विदाई हो गई लेकिन सरकार ने अभी तक 750 एकड़ जमीन किसानों को वापस नहीं की है। छह सौ एकड़ से आधिक जमीन लेकर एयरपोर्ट तो किसी तरह बन गया और पिछले विधान सभा चुनाव के पहले इसका उद्घाटन भी हो गया लेकिन विधिवत उड़ान अभी तक शुरू नहीं हो पायी है।

लेकिन बुद्ध की यह धरती अब एक नए सांस्कृतिक पहचान के कारण भी जाने जानी लगी है। यह नई पहचान है ‘लोकरंग’। ‘ लोकरंग ‘ लोक कला की विभिन्न विधाओं के प्रदर्शन का मंच है जो इस जिले के जोगिया गांव में होता है। कथाकार ओर अब इतिहास की किताबें लिखने के कारण इतिहासकार कहलाने वाले सुभाष कुशवाहा के जोगिया गांव में 2008 में लोकरंग की शुरूआत एक प्रयोग के बतौर हुई। यह प्रयोग था कि सैकड़ों वर्षों से पुरानी लोककलाओं के विविध रूपों से जन समान्य को परिचित कराने के साथ-साथ उनमें युगानुरूप बदलाव तथा फूहड़पन, अश्लीलता, हिंसा, विरूदावली को लोक संस्कृति की पहचान बनाने के खिलाफ संघर्ष करते हुए, लोक कलाओं के संरक्षण और विकास के जरूरी कोशिश करना।

इस प्रयोग को उस समय ही एक बड़ी चुनौती मिली जब मानसिक रूप से अस्वस्थ एक महिला को देवी घोषित कर उसके हाथ से पानी पीने के चमत्कारिक प्रभाव को प्रचारित किया गया। हालात यह हो गए कि वहाँ हजारों लोग आने लगे और ‘चमत्कारिक पानी’ उपलब्ध कराने के लिए इस बड़े तमाशे को नियोजित करने वालों ने बोरिंग करा दी।

अंधविश्वास के इस संगठित खेल की पृष्ठभूमि में 23-24 मई 2008 को पहला लोकरंग का आयोजन हुआ।

बहुरूपिया कलाकार

शहीद भगत सिंह पूर्वांचल सेवा संस्थान ने जनसंस्कृति मंच, जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ के सहयोग से इस आयोजन को किया। तभी से यह सिलसिला जारी है। आगे बढ़ते हुए इस आयोजन ने अब खुद को संस्थाबद्ध कर लिया। अब इसे गांव के लोगों की संस्था लोकरंग सांस्कृतिक समिति कराती है और इसके पास अपना सांस्कृतिक परिसर, मंच, कलाकारों के ठहरने और रिहर्सल करने के कमरे हैं। इस आयोजन के खर्च स्थानीय लोगों के साथ-साथ आयोजन के समर्थक जुटाते हैं। हर वर्ष आयोजन में लोकरंग नाम से पत्रिका प्रकाशित होती है जिसमें लोक संस्कृति के विविध पहलुओं पर शोधपरक लेख होते है।

लोकरंग के शुरूआती आयोजनों में भोजपुरी क्षेत्र की लोक कलाओं को मंच मिला जो बाद में विस्तारित होते हुए देश के अन्य राज्यों की लोक नृत्य, गायक व लोक नाट्य से जुड़ा। इन राज्यों में झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश प्रमुख हैं। हर वर्ष इन राज्यों से लोक कलाकार अपने कलाओं का प्रदर्शन करने आते हैं। अब इंडियन डायस्पोरा की लोक कलाएं भी लोकरंग से जुड़ गई हैं। दक्षिण अफ्रीका, नीदरलैण्ड, मारीशस से आये कलाकार अपने देश के भोजपुरी भाषी लोगों के गायन, नृत्य का प्रदर्शन कर चुके हैं। लोक संस्कृति में रूचि रखने वाले लेखक, साहित्यकार, रंगकर्मी और बुद्धिजीवी भी बड़ी संख्या में लोकरंग में शामिल होने आते हैं।

इस वर्ष  ‘ लोकरंग ’ का आयोजन 15-16 अप्रैल को हुआ। इस बार झारखंड का खड़िया आदिवासी नृत्य, बिहार का थारु नृत्य और मध्य प्रदेश का भगोरिया, बधाई व नौरता लोकनृत्य प्रमुख आकर्षण रहा।  पश्चिमी चम्पारण के कलाकारों ने थारू नृत्य व गीत से खेती किसानी की संस्कृति को जीवंत किया। सुल्तानपुर के लखराज लोककला मंच का अवधी बिरहा गायन में अलग प्रयोग दिखा। बृजेश यादव ने बिरहा गायन के जरिये जातिभेद, अधविश्वास व अंधभक्ति पर करारी चोट की।

लोकरंग में दो नाटक ‘ जामुन का पेड़’ (दस्तक पटना, निर्देशक पुंज प्रकाश )और नाटक ‘ टैच बेचईया ‘ (नाचा थियेटर, रायपुर निर्देशक निसार आली ) का भी मंचन हुआ।
संभावना कला मंच के कलाकारों ने अपने कला गुरु राजकुमार सिंह की याद करते हुए  इंस्टालेशन आर्ट “ जब तक जिया रंग भरते हुए जिया” बनाया। मंच के कलाकारों ने बखारों व दीवारों पर बनाए गए भित्ति के माध्यम से लोक संस्कृतियों को बताने के साथ लोक को बदलने हेतु नए बिम्ब (आदर्श) व स्वप्न को भी प्रस्तुत किया।
हाल के वर्षों में युवा लेखकों, शिक्षकों, संस्कृतिकर्मियों में लोकरंग को लेकर उत्सुकता व इसको जानने-समझने की ललक बढ़ी है। इस बार कई विश्वविद्यालयों के युवा शिक्षक लोकरंग पहुंचे। इनमें डाॅ आशा सिंह, डाॅ विजय श्री मल्ल, दीनानाथ मौर्य, महेन्द्र कुशवाहा, अपर्णा चौधरी के नाम उल्लेखनीय है। इसके अलावा प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश खैरनार, प्रो शंभू गुप्त, वरिष्ठ पत्रकार चन्द्रभूषण भी शामिल हुए।
कुछ बुद्धिजीवी, लेखक, संस्कृतिकर्मी, पत्रकार तो हर वर्ष यहां आते हैं। रीवा विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो दिनेश कुशवाहा का संचालन लोकरंग में एक अलग ही रंग भरता है। वे एक बार लोकरंग में नहीं आ पाए तो दर्शकों को लोकरंग फीका लगा। लोकरंग में शिरकत करने वाले शख्सियतों में प्रो मेनेजर पांडेय, केदारनाथ सिंह, आनंद स्वरूप वर्मा, राम पुनियानी, प्रो चैथीराम यादव, वीरेन्द्र यादव, शिवमूर्ति, मारीशस की भोजपुरी स्पीकिंग यूनियन की अध्यक्ष सरिता बुधु, नीदरलैंड के प्रख्यात सरनामी गायक राजमोहन, गयाना से एस्टान रामदहल,नेपाल से उषा तितिक्षु, रामजी राय, प्रणय कृष्ण, तैयब हुसैन, प्रो शंभू गुप्त, प्रो रतनलाल, प्रो सदानंद शाही, कौशल किशोर, प्रो अनिल राय, मदन मोहन, देवेन्द्र आर्य, कपिलदेव, वंदना टेटे, एके पंकज, सर्वेश जैन, राजेश मल्ल, बीआर विप्लवी, विद्याभूषण रावत, रामजी यादव, अपर्णा, प्रभात सिंह, स्वदेश सिन्हा, इरफान आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
लोकरंग में शामिल होने आने वाले देश विदेश के बुद्धिजीवी, लेखक, संस्कृतिकर्मी अपने अपने खर्चे पर जोगिया गांव पहुंचते हैं। आयोजन कमेटी के लोग अपने-अपने घरों में मेहमानों को ठहराते हैं। लोकरंग का आयोजन इस मायने में लोकसंस्कृति का अनुकरण करता है। बिना किसी सरकारी सहायता और व्यावसायिक घरानों की स्पांसरशिप के यह आयोजन जनता के मेले का स्वरूप ग्रहण करता जा रहा है।
( यह लेख मूल रूप से संडे नवजीवन के पाँच मई के अंक में प्रकाशित हुआ है) 

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