पूरबी उत्तर प्रदेश में 1857 के विद्रोह का इतिहास हमें साहस देता है-प्रो. रिज़वी

जन संस्कृति मंच ने जिला सम्मेलन के मौके पर इतिहासकार प्रो प्रो सैयद नजमुल रज़ा रिज़वी की किताब ‘ 1857 का विद्रोही जगत-पूरबी उत्तर प्रदेश ’ पर चर्चा का आयोजन किया
गोरखपुर। पूरबी उत्तर प्रदेश की जनता ने जाति-धर्म की संकीर्ण क्षेत्रीय भावनाओं से उपर उठकर इस भूभाग में कम्पनी राज को समाप्त करने के लिए 1857 में गंभीर प्रयास किया था। 1857 के विद्रोहियों के संसार में हिन्दू-मुस्लिम समाज के सभी वर्गों एवं जातियों के लोग सम्मिलित थे। पूरबी उत्तर प्रदेश का भूभाग भी इसका उपवाद नहीं था। पूरबी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर जनपद के पैना गांव से 31 मई 1857 को प्रारम्भ हुआ जन विद्रोह जनवरी 1859 तक चलता रहा। इसके बहुत पहले दिल्ली और लखनउ का प्रतिरोध समाप्त हो चुका था। इस प्रकार इस भूभाग का जनविद्रोह छापामार रणनीति को अपनाकर विद्रोही नायकों द्वारा लगभग डेढ वर्ष तक चलाया गया। इसमें चार महीना बीस दिन का स्वतंत्र शासन भी सम्मिलित रहा।
यह बातें इतिहासकार प्रो सैयद नजमुल रज़ा रिज़वी ने आज शाम जन संस्कृति द्वारा पुस्तक संवाद कार्यक्रम में कही। पुस्तक संवाद का कार्यक्रम प्रो रिजवी की किताब ‘ 1857 का विद्रोही जगत -पूरबी उत्तर प्रदेश ’ पर आयोजित किया गया था। यह कार्यक्रम जन संस्कृति मंच के जिला सम्मेलन के मौके पर पर आयोजित किया गया था।
गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष रह चुके प्रो. रिज़वी ने  कहा कि समय सीमा की दृष्टि से पूरी उत्तर प्रदेश का महान विद्रोह सबसे लम्बी अवधि तक चला। इस भूभाग ने अपने दीर्घकालिन संघर्ष में सर्वाधिक जनधन की हानि को सहन किया। गाजीपुर के गहमर गांव के व्रिदेाही नायक मेंगर सिंह ने आत्मसमर्पण करते हुए इकबालिया बयान में कहा था कि सिर्फ गोरखपुर क्षेत्र में ही लगभग 70 हजार विद्रोही मारे गए थे। विद्रोही शासन सत्ता को उखाड़ फेंकना ही इस विद्रोह का लक्ष्य था। इस लक्ष्य को पाने के लिए पूरे उत्साह और उच्च मनोबल के साथ विद्रोही नायकों ने संघर्ष किया भले ही अंत में वे असफल रहे।
प्रो रिजवी ने कहा कि 1857 में दिल्ली, अवध विद्रोह के बारे में काफी लिखा गया। यहां तक कि बुंदेलखंड, रूहेलखंड के इतिहास के बारे में भी काफी काम हुआ लेकिन पूरबी उत्तर प्रदेश में कम काम हुआ। इस इलाके का वासी होने के कारण वह प्रेरित हुए और इस कार्य को पूरा किया। उन्होंने बताया कि वर्ष 2013 में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की ओर से मिली सीनियर फेलोशिप के तहत इस कार्य को किया।
उन्होंने कहा कि इतिहास हमें सही दिशा बताता है। इतिहास हमारे और आपके बीच है जिसको हम देख नहीं पाते। इसको हमें देखना होगा और काम करना होगा। उन्होंने किताब लिखे जाने के दौर के अनुभव बयां करते हुए कहा कि नाम का भी इतिहास होता है। हर स्थान और उसके नाम का अपना एक इतिहास होता है। इसलिए स्थानों के नाम बदलने की पीछे खास मकसद होता है। उन्होंने कहा कि पूरबी उत्तर प्रदेश में 1857 के विद्रोह में फकीर, गोंसाई, किसान, जमींदारों की भूमिका रही। इस किताब के जरिए उन्होंने 1857 के विद्रोह के अनाम नायकों को खोजने का काम किया है। हमें इस इतिहास को जरूर जानना चाहिए क्योंकि इस इलाके का 1857 का इतिहास हमें साहस देता है और वर्तमान समस्याओं से लड़ने की ताकत मिलती है।
गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रो चन्द्रभूषण अंकुर ने 1857 के विद्रोह को लेकर इतिहासकारों के मत की विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि 1857 के विद्रोह की 150 वीं वर्षगांठ तक इतिहासकार इस बात से सहमत हो गए कि यह एक महाविद्रोह था। प्रो रिजवी ने इस किताब के जरिए सिद्ध किया है कि यह महाविद्रोह एक जन विद्रोह था जिसमें जनता के विभिन्न तबकों के लोग शामिल हुए थे। उन्होंने किताब में विद्रोह के कारणों की पड़ताल की है जिसमें यह तथ्य प्रमुख रूप से सामने आता है कि कम्पनी राज के 50 वर्षों में इस इलाके में भू राजस्व दो से ढाई गुना बढ़ गया था और इससे लोगों में रोष था।
इतिहास विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डा. सुधाकर लाल ने आजमगढ़ के इलाके में विद्रोह की घटनाओं का जिक्र करते हुए कहा कि इस किताब ने अनाम नायकों को हमारे सामने लाने का काम किया है।
प्रो असीम सत्यदेव ने कहा कि इतिहास हमें बताता है कि सिकन्दर, पुर्तगालियों और अंगे्रजी हूकुमत के शासन सता के प्रारम्भ में =ही जनता ने व्रिदोह शुरू कर दिया था। जनता लड़ती है और उसके बीच से ही नायक पैदा होते हैं। 1857 के विद्रोह को हमारे दिलोदिमाग से मिटाने की बहुत कोशिश हुई है लेकिन यह संभव नहीं हो पाया है। प्रो रिजवी की यह किताब बताती है कि 1857 का विद्रोह जनता का आंदोलन था।
कार्यक्रम के दौरान सभागार में उपस्थित लोगों ने कई सवाल पूछे जिसका जवाब प्रो रिजवी ने दिया। इस दौरान वाराणसी के इतिहासकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता डॉ मोहम्मद आरिफ द्वारा इस किताब पर लिखी गई टिप्पणी को भी पढ़ा गया। इसमें उन्होंने कहा है कि इस किताब में पूरबी उत्तर प्रदेश के इलाकों में घटित घटनाओँ तथा क्रांतिकारियों की गतिविधियों का पहली बार सिलसिलेवार वर्णन ही नही है बल्कि देश भर में बिखरे उन तमाम स्रोतों की भी पड़ताल है जो अभी तक इतिहासकारों तथा समीक्षकों की नजर से ओझल रहे हैं । नेपाल की तराई,गोरखपुर से इलाहाबाद और अवध से सटे इलाकों में क्रांति की गतिविधियों को जानने में यह पुस्तक इनसाइक्लोपीडिया साबित होगी।
पुस्तक संवाद कार्यक्रम के अंत में गोरखपुर विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो अशोक कुमार सक्सेना के निधन पर दो मिनट का मौन रख कर श्रद्वांजलि दी गई।
आयोजन के दूसरे सत्र में जन संस्कृति मंच की जिला इकाई की कार्यकारिण का चुनाव हुआ। सर्वसम्मत से अशोक चौधरी अध्यक्ष, सुजीत श्रीवास्तव जिला सचिव और प्रदीप कुमार सह सचिव चुने गए। इसके अलावा 11 सदस्यीय कार्यकारिणी का भी गठन किया गया।