Thursday, September 28, 2023
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प्रचंड बहुमत और शेर की सवारी

 शुरुआत तो बहरकैफ़ बधाई से ही की जानी चाहिए। 2019 के विपुल जनमत के लिए भाजपा केा बधाई! पर बधाई भाजपा को क्यों ? चुनाव तो भाजपा की तरफ से मोदी-शाह ने लड़ा था। कहें कि वोट तो मोदी के नाम पर मांगा गया। कमल के बटन पर दबा वोट सीधे मोदी तक पहुंचने का वृतांत गढ़ा गया। लोगों को बताया गया कि यह सांसदी का चुनाव होकर भी दरअसल पी.एम. का चुनाव है और पी.एम. माने मोदी। सो ढेरों बधाइयों की हकदार एक बार फिर मोदी-शाह सरकार।

                सवाल ये है कि यह कैसे हो गया कि भाजपा माने मोदी हो गया, देश माने सरकार हो गया और मत मतलब देशभक्ति हो गयी। पिछले पांच सालों में देश को एक नया राजनैतिक शब्दकोश कैसे उपलब्ध करा दिया गया और वह बेस्टसेलर भी घोषित हो गया। यह हुआ कैसे, जिसका न भाजपा को भरोसा था, न ही विपक्ष को।

                2014 के चुनाव में मोदी ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नाम पर वोट मांगा था। झार के मिला। 2019 के चुनाव में वोट हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर मांगा गया। झुरिया झार मिला। बिना युद्ध के जनता युद्ध करते दिखी और अपनी शहादत को मत-प्रतीक में व्यक्त कर दिया। पूर्ण बहुमत। 40 पार्टियों की परमशुद्ध गठबंधन वाली एनडीए के सिर्फ एक घटक भाजपा को सरकार बनाने का मतादेश। दो पार्टियों का ठग-गठबंधन और 21 का महामिलावट गठबंधन तेल लेने चला गया।

यानी 2014 का ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा भले फेल न हुआ हो, पर कतिपय कारणों से पसे-परदा रह गया। मगर विडंबना देखिए कि चुनाव परिणाम पक्ष में आने (अथवा कर लेने) के बाद जो नया नारा गढ़ा गया, वह है ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’। यानी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद केवल तिमाही चुनावी प्रोजेक्ट थे। एक फौरी नारा, वोट बटोरने के लिए। फाइनल ड्राफ्ट में ताजा और असली नारा ‘विकास, साथ और विश्वास’ है।

       प्रश्न उठ सकता है कि 2019-24 के एजेंडे में यह ‘विश्वास’ जोड़ा क्यों गया? विश्वास तो जनमत ने 23 मई को ही दे दिया था। फिर दोबारा किस विश्वास की अपेक्षा मोदी की सरकार को है। कहें कि जनता का विश्वास जीतने के बाद मोदी कौन से विश्वास का आश्वासन देश की जनता को दे रहे हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि जीत तो प्रचंड मिली है, परंतु जीत के पीछे का सच स्वयं जीतने वाले को भयाक्रांत कर रहा है ? क्या प्रचंड बहुमत का आंकड़ा मतदाता के वास्तविक विश्वास को व्यक्त करता प्रतीत नहीं होता है ? क्या यह जीत वाकई अविश्वसनीय है ? क्या विजेता को लग रहा है कि बेशक जीत मिल गई, पर हिंदुस्तानी मन और मत विश्वास उससे छिन गया है ?

इतनी बड़ी जीत ! हूबहू उन्हीं आंकड़ों वाली जीत ! जितना कहा उतनी ही सीटें मिली ! इतना तगड़ा गणित ! इतना जबर्दस्त जोड़ घटाव ! जनता के नब्ज की ऐसी वैद्यकी कि बड़े-बड़े स्पेशलिस्ट, विदेश पलट डाक्टर बेकार साबित हुए। मोदी-शाह की उंगलियां जनता की नब्ज़ पर पड़ी नहीं कि सबकुछ स्क्रीन पर दिखाई पड़ने लगा। वायु, पित्त, कफ सब। मर्ज खुद मचलने लगा वैद्य से इश्क फरमाने को। चिकित्सा प्रणाली ही बदल चुकी है। जयपुर में डाक्टर रोग की पहचान ज्योतिषों की रिपोर्ट पर कर रहे हैं। मध्य प्रदेश में तो पूरा संकाय ही खुल गया है। ज़ाहिर है कि जनता के दिमाग में इतने परिवर्तन आ चुके हैं कि आप पुराने हारमोनल रिपोर्ट पर भरोसा कर ही नहीं सकते। विपक्ष ने किया और अपनी लुटिया डुबा ली।

                चुनाव के दौरान ही बता दिया गया और बार-बार दुहराया गया कि जनता अबकी भाजपा को 300 से ऊपर सीटें देने जा रही है और एनडीए को 350। मीडिया एक्जिट पोल के नाम पर वही दुहराता रहा जो सरकार दुहरवाना चाह रही थी। जो आंकड़ा चाहा वही भेदा। फिर भी मोदी कहते हैं कि चुनाव में गणित फेल हो गया और केमिस्ट्री जीत गयी।

जैसे फिल्मों में जब हीरो-हिरोइन की केमिस्ट्री ठीक होती है तो अभिनय सजीव होता है। तो अब गणित फेल हुई तो किसकी फेल हुई ? उनकी जो मुंह दिखाने लायक भी नहीं बचे हैं। भाजपा का परचा तो 100/100 का रहा। यह और बात है कि यह आत्मविश्वास प्रेरित पूर्वानुमान था या पूर्वनियोजित। वरना कौन परीक्षार्थी (दल) ताल ठोक कर कह सकता है कि  उसे फलां पर्चे (राज्य) में इतने नंबर और फलां पर्चे (राज्य) में इतने नंबर (मत) मिलेंगे और कुल मिलाकर इतने पूर्णांक (मत) होंगे और रैकिंग फलां रहेगी। यह तभी संभव है जब परीक्षार्थी ने पर्चे, परीक्षक और परीक्षा नियंत्रक-उद्घोषक, सबको विश्वास में ले लिया हो।

आखि़र विश्वास में लेकर विश्वसनीय आंकड़ों वाली सरकार के मन में अलग से जनता का विश्वास प्राप्त करने की चाह क्यों जगी है ? विपक्ष तो न केवल आंकलन-दरिद्र था, वरन संगठन-दरिद्र और साधन-दरिद्र भी था और 23 मई के प्रस्तावित मोदी दिवस (बाबा रामदेव) के बाद तो सीट-दरिद्र भी साबित हो गया। वह बस यही रटे था कि मोदी पी.एम. नहीं बनेंगे। यानी जनता पर विपक्ष को अतिविश्वास था और स्वयं पर अविश्वास। मशीन, मशीनरी, मनी-मीडिया को मोदीमय करके मतदाता के माइंड को मैनेज कर मनचाहा मैंडेट हासिल करना, हिंदुस्तान के लोकतंत्र में अभूतपूर्व है। इस एकनिष्ठ क्षमता के लिए वन मैन शो टू मैन आर्मी वाकई बधाई की पात्र है। अगर यह आशंका है या आरोप, तो इसे निर्मूल साबित करने की जिम्मेदारी किस पर है ? 50 प्रतिशत मतों का क्रास चेक वीवीपैट से करने या पहले वीवीपैट के मतों की गणना कर लेने पर क्या आफत आ जाती ? चुनाव परिणाम गिनती प्रक्रिया के कारण हफ्ते भर बाद ही आ पाते तो देश का क्या नुकसान हो जाता ? अपनी चुनाव प्रणाली, अपने लोकतंत्र पर पड़ रही अविश्वास की छाया दूर करने की जिम्मेदारी किस पर है?

                इस जनादेश के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या वास्तव में मोदी में जनता को देश का स्वाभिमान दिखा ? हां, कुछ हद तक इस प्रश्न का जवाब हां ही है। जो दिखेगा और जो दिखाया जायेगा वही दृश्य होगा और वही परिदृश्य रचेगा। अंततः सच भी वही होगा जो दिखेगा। छवि-निर्माण की कला में माहिर मोदी ने देशी मीडिया में अपनी एक अंतर्राष्ट्रीय छवि बनाई और देशवासियों को बताया कि पहली बार (यह मोदी का तकिया कलाम भी है) भारत की आवाज़ बड़े-बड़े देश गंभीरता से सुन और सराह रहे हैं। देश ही नहीं, विदेशी और सुरक्षा के मामलों में भी मोदी को अवतार के रूप में प्रोजेक्ट किया गया। याद कीजिए 2017 में भाजपा कार्यसमिति में वैंकेया नायडू ने कहा था ‘देश की जनता के लिए मोदी भगवान का तोहफा हैं ।’

कांग्रेस ने चुनाव के दौरान मोदी का नाम लेकर हमले किये। पूरी सरकार को पर्सनल बना दिया। व्यक्ति को पार्टी से बड़ा बनाने की मुहिम में फंस कर विपक्ष ने 2019 के चुनाव को व्यक्ति आधारित रूप दे दिया। सरकार या भाजपा निशाने पर न होकर, मोदी रहे। इस मोदी विरोधी अभियान ने मोदी की छवि को और निखरने और निखारने में मदद ही की। नारा आया ‘मोदी है तो मुमकिन है’ और सबकुछ मनचाहे तरीके से मुमकिन भी हुआ। बेरोजगार नौकरी की चिंता भूल गये, किसान को अपना दर्द फीका लगने लगा। सैनिकों की विधवायें आशीष देने लगीं। परिणाम यह हुआ कि ईवीएम बनाने वाली दोनों कंपनियों के सप्लाई आंकड़ों और चुनाव आयोग के प्राप्ति आंकड़ों के बीच 1894219 ईवीएम मशीनों के हवा में होने का गैर मामूली प्रश्न भी, प्रश्न नहीं बन पाया। कहां गए 19 लाख ईवीएम जो बनें तो जरूर पर कागज़ पर जिनका इंदराज नहीं हुआ। इसी प्रणाली को तो काला धन कहते हैं। यानी काली ईवीएम। मामला बांबे हाईकोर्ट में चल रहा है चुनाव के पहले से। आगे भी चलता रहेगा जब तक लोग खुद ही विश्वास न कर लें कि ईवीएम का मामला बकवास है और नाकामी छिपाने का बहाना।

                2019 के चुनाव में अपुष्ट खबर है कि 7 लोकसभा क्षेत्रों में भाजपा तथा कांग्रेस के उम्मीदवारों को मिले कुल मतों की संख्या क्रमशः 211820 तथा 140295 थी। यानी सातों जगह भाजपा के उम्मीदवारों ने 211820 मत पाये और इन्हीं सातों जगहों पर कांग्रेस के विभिन्न उम्मीदवारों ने 140295 मत हासिल किये। ईकाई तक का फर्क नहीं। क्या गणित है ? फिर भी मोदी जी कहते हैं कि गणित फेल हो गया, केमिस्ट्री जीत गयी। भौतिक तुला पर कौन सी केमिस्ट्री पास हुई, यह वे ही जानें। सही तो यह है कि गणित भी जीता और केमिस्ट्री भी जीती।

एक और अपुष्ट खबर बताती है कि वर्धा (महाराष्ट्र) में ईवीएम ने 1072750 मतों की गणना की जबकि वहां कुल 964549 मत ही पड़े थे। ये सारी बातें अफवाह भी हो सकती है, मुमकिन भी और विरोधी दलों की साजिश भी। पर आश्चर्यजनक रूप से पक्ष और विपक्ष ने इस बारे में जबर्दस्त चुप्पी अख्तियार कर रखी है। कोई आधिकारिक खंडन नहीं। दूसरी तरफ विपक्ष ने इस मसले को सिर्फ कोर्ट कचहरी, और प्रतिवेदन तक ही सीमित रखा है। शंका निर्मूल हुए बिना कोई सिस्टम सफलतापूर्वक नहीं चल सकता। शंका उठाना चुनाव कार्य में लगे कर्मचारियों को कठघरे में खड़ा करना नहीं  है। वैसे ही जैसे सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल करना सेना की निष्ठा और सैनिकों की क्षमता पर सवाल उठाना नहीं है।

                मोदी जी की जीत के अन्यान्य कारणों से इतर जो बहुत बड़ा कारण अनदेखा और अचर्चित है, वह है उनकी चुनाव प्रबंधन क्षमता, उनका जुझारूपन और मैन-मनी मैनेजमेंट। उन्होंने 2014 का चुनाव जीतने के साथ ही 2019 के चुनाव की तैयारी शुरु कर दी थी और 2019 का चुनाव जीतने के साथ ही उ.प्र. के 2022 और लोकसभा के 2024 के चुनाव की तैयारी शुरु कर दी है।

लंबी दूरी और अवधि की योजना मोदी-शाह की पहचान बनती जा रही है। वे हर चुनावी सफर को नया सफर मानकर चलते हैं। नये नारे, नये वादे, नया वृतांत, नये उपकरण, नयी योजना और नयी आर्मी। 2014 में में चार साल काम और पांचवे साल रिपोर्ट कार्ड दिखाने का वायदा करके सत्ता में आई भाजपा सरकार ने रिपोर्ट नहीं दिखाना बेहतर समझा और विकास तथा अच्छे दिन का नैरेटिव छोड़कर राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सम्मान के नैरेटिव पर चल पड़ी।

क्या वाकई भाजपा के पास काम के नाम पर दिखाने लायक कुछ भी नहीं था ? नहीं, ऐसा नहीं है, पर जो था, उससे स्वयं भाजपा संतुष्ट नहीं थी। जो था वह पर्याप्त नहीं था, चुनावी वैतरिणी पार कराने के लिए। पर सोचना तो पड़ेगा ही कि 70 सालों में पहली बार क्यों किसी सरकार का ध्यान गांव-गांव शौचालय की समस्या की तरफ गया ? शौच समस्या से जूझती महिलाओं के दर्द को क्यों मोदी-शाह ने ही समझा ? इज्जतघर का कंसेप्ट चाहे जितना सफल या असफल रहा हो भाजपा की बुनियादी सोच को तो दिखाता ही है। महावारी को बीमारी समझने वाले समाज के दिमाग से इतनी खुली लड़ाई क्यों भाजपा ने ही छेड़ी। यह विषय तो उनकी संस्कार-शूचिता के दायरे में भी नहीं आता। गैस सिलेंडर घर-घर पहुंचे हो या न पहुंचे हों, रिफिल हुए हों या न हुए हों, यह बहसतलब हो सकता है, पर गैस सिलेंडर के उपयोग का हक ग्रामीण महिलाओं को भी है, यह भाजपाई सोच गांव-गांव पहुंची ही। मुस्लिम महिलाओं के तीन तलाक प्रकरण को आप चाहे जितना सांप्रदायिक या गैर मजहबी साबित करते रहें पर पहली बार किसी ने इतनी बड़ी आबादी की दुखती रग को छेड़ने का खतरा मोल लिया। कांगे्रस ने तो हथियार डाल दिये थे शाहबानो के केस में।

‘एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कंप्यूटर’ का नारा तो मोदी ही लगा सकें। वह पार्टी जिसका लोकसभा में कोई भी मुस्लिम संसद नहीं है, मुस्लिमों की हमदर्द साबित हुई। 2014 की संसद में भी कोई मुस्लिम संसद भाजपा का नहीं था। यानी लगभग 10 वर्षों तक बगैर मुस्लिम प्रतिनिधित्व के मोदी मुस्लिमों का वोट हासिल कर सकें। कैसे ? राममंदिर तो उनके हाथ का झुनझुना है ही जिसकी काट में विपक्षी पार्टियों को न उगलते बनता है न निगलते बनता है। प्रज्ञा ठाकुर की जीत धर्मनिरपेक्षता के लिए उतनी खतरनाक नहीं है जितनी सेकुलर दिग्विजय सिंह का मंदिरों और कंप्यूटर बाबाओं के शरण में जाना।

ज़ाहिर है कि भाजपा की अपनी विचारधारा है और वह उसमें उन्नीस-बीस करके समयानुसार अपना मतलब साधती रही है। पर विपक्ष की कौन सी विचारधारा बन पायी? कभी मुस्लिम तुष्टिकरण, कभी साफ्ट हिंदुत्व, कभी सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के न्यायालय के निर्णय का विरोध, कभी जातीय समीकरण, कभी परिवारवाद का वह प्रदर्शन जिसमें कांग्रेस प्रत्याशी (शत्रुघ्न सिन्हा), सपा प्रत्याशी (अपनी पत्नी) का चुनाव प्रचार करते दिखता है। यानी कांग्रेसी ही कांग्रेसी का विरोधी।

पश्चिम बंगाल के वाम कार्यकर्ताओं ने लाल झंडे की जगह भगवा थाम लिया। न सही वैचारिक कट्टरता पर कहां गयी वैचारिक प्रतिबद्धता। असली दलित और नकली दलित के नैरेटिव में फंसा माया-अखिलेश का गठबंधन फ्लाप क्यों साबित हुआ ? एंटी-इन्कम्बेन्सी को मोदी ने प्रो इन्कम्बेन्सी कैसे बना दिया ?

                निश्चित रूप से मोदी-शाह ने जब चाहा, जैसी धुन पर चाहा, विपक्ष को नाचने को मजबूर कर दिया। चुनाव बुद्धि से कम भाव से अधिक जीते जाते हैं। आंकड़े नहीं ‘मन की बात’ आपको मत दिलाते हैं, यह साबित कर दिया है 2019 के चुनाव ने। बावजूद इसके कि नमो टीवी कैसे घर-घर घुसा और कैसे फकीर की तरह झोला लेकर रफूचक्कर हो गया, इस पर आज भी परदा ही पड़ा है, शायह कभी हटे भी न। कौमों के सांप्रदायिक घाव और भाव सहलाना, देशभक्ति के नैसर्गिक जज़्बे को दुलराना और मशीनरी पर आधिपत्य जमाकर मत निचोड़ना ही तो मोदी कला है ! गुजरात माडल ! हवा से पैसा बनाना और पैसे से हवा बनाना जनता को सांप्रदायिकता की आग में झोकना और फिर सांप्रदायिक रेस्क्यु आपरेशन चलाना।

हिंदू कभी सांप्रदायिक हो ही नहीं सकता, यह मिथ गढ़ना, बहुसंख्यक हिंदुओं के मन में अल्पसंख्यक होते जाने का भय पैदा करना, देशभक्ति की भावना से छेड़छाड़, विपक्ष का नकारापन, किसे चुनें, की मजबूत विकल्पहीनता, जनता का वास्तविक हमदर्द न बन पाने की कमी, बाजार भाव पर नियंत्रण, साफ-सफाई और रख-रखाव तथा प्रतीकों का बेहतर इस्तेमाल (पटेल की मूर्ति) जो सम्मान भाव जगाये (जैसा माया ने लखनऊ में हाथियों की मूर्तियां बनवाकर जगाई थीं) दूसरों के नायकों, आदर्शों पर अपना हक जमाना (भगतसिंह, अंबेडकर), ये सब चुनाव जीतने-हारने के नये कारण बने। विपक्ष के पास इनसे लड़ने के लिए कोई योजना नहीं थी।

                इस चुनाव ने भाषा की अहमियत पर भी प्रकाश डाला है। जादुई भाषा में, जादुई वक्तव्य। पारदर्शी, मुहावरेदार, अनुप्रासिक भाषा अदायगी (जी हां अभिव्यक्ति नहीं अदायगी) ने मोदी की धाराप्रवाह वाग्मिता में चार चांद लगाए। भाषा ने 16 लाख के सूट वाले व्यक्ति को जनता के बीच फकीर के रूप में स्थापित कर दिया। विपक्ष इसे जुमलेबाजी ही कहता रह गया। यह सब जुमलेबाजी है भी तो चुनावी अस्त्र के रूप में गर्हित कैसे हैं ? हिंदी ने हिंदीपन को छुआ, अश्लील बयानों को मुहावरा बना दिया। यह सब भाषा में मुमकिन हो सका, क्योंकि मोदी था। बुद्धिजीवी और भाषा की रोटी खाने वाले साहित्यकारों ने लामबंदी करके मोदी की सहायता ही की। मोदी को हराने का कवियों, साहित्यकारों, लेखक संगठनों का प्रस्ताव साहित्यिक था या राजनैतिक ? ये फेसबुकिया बहस जारी रही और दूसरी तरफ मोदी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को रोजगार से जोड़ दिया। भाजपा भक्ति पेड हो गयी। पेड मोदी-मोदी, पेड मीडिया, उत्सर्ग की भावना वाले नौजवान, कार्यकर्ताओं को नियमित आय। संविदा आधारित कार्यकर्ता अलग, नियमित अलग।

खबर तो यहां तक है कि चुनाव के दौरान कार्यकर्ताओं ने 10 से 15 लाख रुपये बनाये हैं। योग्यतानुसार आमदनी। बूथ तक कार्यकर्ताओं को पारिश्रमिक और मानदेय बाटा गया। दीन भी है, ईमान भी है, माया भी मिली, राम भी मिले, त्याग भी, अनुराग भी, आय भी और राष्ट्रवाद भी। सब एक साथ, फिर कमल क्यों न खिले ? क्यों न हो प्रचंड तमाशा। मोदी-शाह की जोड़ी ने दिखाया कि काम करना ही नहीं, काम करते दिखना भी उतना ही जरूरी है। न्याय के साथ यह परिभाषा हटा दी गयी और कर्म के साथ जोड़ दी गयी। वरना क्या कारण था कि काम करके दिल्ली में न शीला दीक्षित जीतीं न आतिशी, न गाजीपुर में मनोज सिन्हा।

                विपक्ष को अब एहसास हो जाना चाहिए की बहुत सारी धारणायें, चुनावी परिपाटियां, मिथ, तौर तरीके और चेहरे 2019 के मैंडेट में कबाड़ साबित हो चुके  हैं। अब मत संख्या आधारित लोकतंत्र में बुनियादी चुनावी परिवर्तन अपरिहार्य हैं। मोदी ने बिना डंका पीटे 2019 के चुनाव को प्रेसीडेंसियल फार्म आफ इलेक्शन में बदल दिया। हमें आनुपातिक प्रणाली के विषय में भी सोचना चाहिए ताकि विपक्ष का सफाया न हो सके और अच्छे लोग भी संसद में आ सकें। चुनाव आयोग के पुनगर्ठन, नियमों में फेरबदल, कुछ कड़े नियम, आयुक्तों का चयन का ढंग, आचार संहिता और उसके उलंघन के मुद्दे, आयोग के सरकारी नियंत्रण में जाने के खतरे, चुनाव खर्च, ये सब कुछ नये विषय हैं, जिन पर विमर्श जरूरी हो गया है।

पार्टी बदलने और उम्मीदवार घोषित होने में कोई आवधिक रूकावट ज़रूरी है ताकि पालाबदल का खेल इतना आसान न हो जाए। नौकरशाही, न्यायपालिका, राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े लोगों द्वारा पदमुक्त होते ही या स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेते ही सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का सदस्य बनना, चुनाव लड़ना और लाभ के पद पर नियुक्त हो जाना यह दर्शाता है कि उनके द्वारा उठाये गये कदम, लिये गये निर्णय, कहीं न कहीं सरकारी मंशा से प्रभावित रहे हैं। इस प्रवृत्ति पर भी अंकुश जरूरी है।

2019 के चुनाव परिणाम के बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल की राज्य सरकारों के साथ होने वाले सुलूक और हार्सट्रेडिंग की कल्पना करना कठिन नहीं है। कांग्रेस ने भी यही किया है। यह खेल चाहे जिसके हक में हो, लोकतंत्र के हक में नहीं है। इसे कैसे रोका जाए? क्या चुनाव का मतलब अपनी मयखोरी को छिपाकर या महिमामंडित करके और दूसरे को पियक्कड़ साबित-प्रचारित करने की कला मात्र रह गया है? क्या वास्तव में जनता का विवेक इतना गिर गया है? हां, हो सकता है यदि सूचनाओं पर नियंत्रण कर लिया जाए? जानकारी ही विवेक का निर्माण करती है।

                 कुछ आसन्न खतरे और भी है। संघ विरोधी पार्टियों के भीतर एक अलग तरह का संघवाद पैदा हो चुका है। वैचारिक कट्टरता चाहे कम्यून की हो या आरएसएस की, हमें एकांगी, सांप्रदायिक, तानाशाही प्रवृत्ति वाली, हिंसक और अंततः अप्रासांगिक बना देती है। संघ विरोधी पार्टियों को अपने भीतर पनप रहे संघवाद की पहचान करनी चाहिए और उससे संघर्ष करना चाहिए। दूसरी तरफ भाजपा  के भीतर विपक्ष का ब्राह्मणवाद, वंशवाद और सुविधावाद पनपने लगा है। अधिनायकवाद के खतरे भाजपा में साफ दिख रहे हैं। याद रखिये, 70 सालों की संसदीय प्रीमियम पार्टी भी जमींदोज होने की कगार पर पहुंच सकती है। इसलिए ‘इंदिरा इज इंडिया’ की तर्ज पर ‘मोदी इज इंडिया’ की ध्वनि सुनाई पड़ना खतरनाक है। वैसे भी भाजपा आधी कांग्रेस हो चुकी है।

प्रश्न उठता है कि क्या देश चलाने के लिए आपका आधा भाजपाई और आधा कांग्रेसी होना जरूरी हो गया है ? क्या प्रचंड बहुमत पाये मोदी के लिए 2019-24 की अवधि शेर की सवारी साबित होगी ? क्या पेड कार्यकर्ता, पेड मीडिया के मुंह में जो खून लग गया है, उसकी आपूर्ति मुसल्सल हो पायेगी ? कहीं मोदी मोदी करती यह बेरोजगारों की फौज राजा पोरस की कहानी तो नहीं दोहरायेगी ?

                उत्सर्ग भावना और कार्यकर्ता आधारित भाजपा में घुसता कारपोरेट कल्चर कहीं उसे दूसरी कांग्रेस तो नहीं बनाने जा रहा है, जहां अंतिम लक्ष्य सेवा नहीं आरामतलबी है। सत्ता-सुविधा आदती विपक्ष पूरी तरह आलसी और एसी कमरों की वक्तव्य राजनीति का लती हो चुका है। सिर्फ ममता और राहुल ही सड़कों पर उतरते और जूझते दिखे। क्या यही हाल कुछ वर्षों बाद सत्तारूढ़ दल का भी होने वाला है ? यह प्रश्न तब और प्रासंगिक हो जाता है जब सफलता अप्रत्याशित, घर बैठे छप्परफाड़ और विपक्ष की नजरों में संदिग्ध भी हो।

                2019 के चुनाव में भाजपा को कुल 22.6 करोड़ वोट मिले हैं जबकि कांग्रेस को 11.86 करोड़ वोटों से ही संतोष करना पड़ा है। क्या यह अंतर पाटा नहीं जा सकता है ? क्या कांग्रेस भाजपा के वंशवाद के नैरेटिव के बहाने उसके छिपे एजेंडे, राहुल मुक्त भारत के झांसे में आ जायेगी ? कांग्रेस मुक्त भारत का सपना तो फिलहाल पूरा नहीं हुआ ? क्या राहुल गांधी और उनकी पहले से बेहतर दिख रही कांग्रेस में एक लंबी लड़ाई का माद्दा है ? क्या वह प्रिपरेशन लीव लेकर 2024 के चुनाव की तैयारी कर पायेगी ? क्या महात्मा गांधी के नैरेटिव से निकल कर यह देश गोडसे के नैरेटिव की तरफ चला जायेगा ? क्या मोदी का दूसरा नेहरू बनने का सपना पूरा हो पायेगा ? याद कीजिए शुरुआत ही चायवाला के नैरेटिव से हुई थी। सकारात्मक अर्थों में ही सही, भारतीय लोकतंत्र की यह खूबी बताई गयी थी कि उसमें चपरासी का पोता (नेहरू) भी प्रधानमंत्री बन सकता है। पर नेहरू ने संघमुक्त भारत की कल्पना तो की नहीं। मैंने चुनाव परिणाम आने के एक हफ्ता पहले 17 मई को अपने फेसबुक पर टिप्पणी डाली थी। उसकी कुछ पंक्तियों के साथ बात समाप्त कर रहा हूं:

                ‘क्या वाकई तेईस मई के बाद देश में सबकुछ लोकतांत्रिक ढंग से ही चलेगा?… तेईस मई के बाद संसद में जो होगा, लोकतंत्र उससे नहीं बचेगा। लोकतंत्र सिर्फ संसद और सरकार नहीं होता। तेईस के बाद जो लोग संसद से सड़क तक उतरने का खतरा मोल लेंगे वे ही लोकतंत्र बचा पायेंगे। सत्ता-साधना में लगी कितनी पार्टियां आपको इसके लिए तैयार दिखती हैं।’

 

( देवेन्द्र आर्य कविता की दुनिया में जाना माना नाम हैं. सम्पर्क –‘ आशावरी ‘ , ए-127 आवास विकास कालोनी शाहपुर , गोरखपुर-273006 मोबाइल: 7318323162 )

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