साहित्य - संस्कृति

सुरेश कांटक का उपन्यास ‘ खेत ‘ : परिवर्तन का सांस्कृतिक दस्तावेज

कौशल किशोर 

हिंदी साहित्य का बहुलांश नगरी व महानगरीय हुआ है। वहां मध्यवर्गीय जीवन, मन: स्थिति, उसकी विसंगतियां, जद्दोजहद आमतौर पर पढ़ने को मिलता है। यही कथा साहित्य में भी अभिव्यक्त हुआ है, हो रहा है।
पिछले तीन दशक के दौरान भारत के ग्रामीण समाज में काफी बदलाव आया है। बड़े पैमाने पर गांवों से शहरों की ओर पलायन हुआ है। नव उदारवादी संस्कृति या कहिए पूंजीवादी संस्कृति की ग्रामीण जीवन में पैठ हुई है। सत्ता संस्कृति और सामाजिक-राजनीतिक बदलाव का असर वहां देखने को मिलता है। पुराने समीकरण व सामाजिक संतुलन बदले हैं। नए बने हैं या बन रहे हैं। संघर्ष का चरित्र बदला है। भारतीय गांव संक्रमणकालीन दौर में हैं।
सुरेश कांटक की सृजनात्मक भूमि भोजपुर का क्षेत्र है। यह क्षेत्र अपने कथा साहित्य के लिए चर्चित रहा है। यहां जिस त्रयी की चर्चा होती है, वह मधुकर सिंह, विजेंद्र अनिल और सुरेश कांटक को लेकर बनती है।  भोजपुर क्रान्तिकारी किसान आंदोलन के लिए जाना जाता है। कॉमरेड विनोद मिश्र की किताब ‘बिहार के धधकते खेत खलिहानों की दास्तान’ सत्ता और सामंतों के गठजोड़ तथा सामंती जकड़न के विरुद्ध जुझारू किसान आंदोलन और जन उभार का दस्तावेज है। एक समय था, जब किसानों के संघर्ष से मध्य बिहार के खेत-खलिहान धधक उठे थे। क्रांतिकारी बदलाव की राजनीति से नई चेतना पैदा हुई थी। किसानों ने सामंती शक्तियां तथा उनका पक्ष पोषण करने वाली राजनीतिक व्यवस्था से टक्कर ली। दमन झेला। उसका सामना किया। शहीद हुए। फिर भी वे डटे रहे। उसकी धमक आज भी मौजूद है। गरीब किसानों, खेतिहरों, शोषितों-पीड़ितों की इस जुझारू एकता से जो नया सामाजिक यथार्थ आया, इससे भोजपुर का कथा साहित्य अनुप्राणित हुआ। इसके विविध पहलुओं को कथाकारों ने कहानी का विषय वस्तु बनाया।
सुरेश कांटक की सूक्ष्म दृष्टि उस परिवर्तन पर है जो बीते चार-पांच दशक के दौरान ग्रामीण जनजीवन में घटित हुआ है या हो रहा है। उनके नवीनतम उपन्यास ‘खेत’ में इसे देखा जा सकता है। भोजपुर के किसान आंदोलन ने दोस्त और दुश्मन की पहचान और वर्गीय समझ दी है। वहीं, मंडल-कमंडल परिघटना और ‘सामाजिक न्याय’ आंदोलन के बाद ग्रामीण यथार्थ में बदलाव आया है। वर्ग व वर्ण के नए समीकरण-ध्रुवीकरण बने हैं। जहां सत्ता के सवर्ण सामंती केंद्र कमजोर हुए, वहीं नए केंद्र का उदय भी हुआ। इस यथार्थ को ‘खेत’ सामने ले आता है। यह सुरेश कांटक का तीसरा उपन्यास है। इसके पहले उनके दो उपन्यास ‘नरमेध’ और ‘जननायक’ प्रकाशित हो चुके हैं।
‘खेत’ किसान के खेत से रिश्ते की कहानी है और खेत को बचाने के लिए वह जो संघर्ष करता है, उसकी गाथा भी है। किसान का खेत से रिश्ता बहुत गाढ़ा है बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि किसान का जीवन और अस्तित्व ही खेत पर  निर्भर करता है। प्रेमचंद की कहानियों में भी उनके किसान पात्र का अपने खेत से भावनात्मक लगाव का पहलू सामने आया है, वहीं सुरेश कांटक के किसान का भी खेत से अगाध प्रेम है। उसका अतीत, वर्तमान और भविष्य खेत से जुड़ा है। किसान के लिए खेत ही वह माध्यम है जिससे उसका जीवन यापन होता है। वर्तमान से लेकर उसका भविष्य तक जुड़ा है। खेत उसका सम्मान और स्वाभिमान है। इसलिए वह उसे बचाने के लिए लड़ने-भिड़ने पर उतारू हो जाता है। अपने भोलेपन में वह झांसे में भी आ जाता है। यहां तक कि गलत समझौते भी कर लेता है और इसका एहसास होने पर उसकी रीढ़ की हड्डी तन भी जाती है।
‘खेत’ का केंद्रीय पात्र भगतू साह है जिसके इर्द-गिर्द उपन्यास की कथा चलती है। कभी गांव में सवर्ण सामंतों का वर्चस्व था। उनका आतंक छाया रहता था। पिछड़ी व दलित जातियों की क्या मजाल कि उनके सामने से सिर उठा कर चले। उनकी बहु बेटियों पर भी बुरी नज़र रहती। पिछड़ी व दलित जातियों के बहुसंख्यक होने के बाद भी उन्हें दबकर रहने को मजबूर होना पड़ता था। छोटी जातियां बाबू साहब के बनिहार थे। इन स्थितियों में बदलाव की शुरुआत के पीछे किसान संघर्ष और इससे आई वर्ग चेतना है। सामंतों के श्वेत आतंक पर संघर्ष की चोट पड़नी शुरू होती है।
वैसे, उपन्यास में वामपंथी संगठन की प्रत्यक्ष उपस्थिति नहीं दिखती लेकिन नरेश श्रीवास्तव की मौजूदगी से उससे पैदा होने वाली चेतना का पता चलता है। लोगों में नरेश श्रीवास्तव को लेकर सम्मान का भाव है और किसी भी मसले में उनकी राय और हस्तक्षेप का महत्व भी है। उनकी पहचान कम्युनिस्ट की है। इसके साथ मुखिया, रमता महतो, बटाई जादो, जीतू सिंह, धनराज आदि हैं। जीतू सिंह सवर्ण हैं अन्य किसान पिछड़ी जातियों से हैं। सभी में खेत को लेकर आकर्षण है। उनके लिए खेत का होना सम्पन्नता की निशानी और सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक है।  इसलिए सबकी चाहत अपनी खेती को बढ़ाना है। इसे लेकर उनके निजी स्वार्थ टकराते भी रहते हैं। भगतू साह को छोड़कर सबके पास खेती के अतिरिक्त भी आय के साधन है।
गांव में दूसरा परिवर्तन तब घटित होता है जब 10 हजार की आबादी वाले इस पंचायत में पिछड़ी जाति का मुखिया जीतता है। इससे सामाजिक शक्ति संतुलन में बदलाव आता है। आर्थिक और सामाजिक रूप से जो जातियां पिछड़ी रही हैं, हाशिए पर ढकेल दी गई थीं, यह उनका उभार और सामाजिक न्याय आंदोलन का जमीनी विस्तार है। दूसरी तरफ, यह सवर्ण सामंती प्रभु वर्ग, जिसका प्रतिनिधित्व भूतनाथ सिंह करते हैं, के लिए बड़ा आघात है। वह इस हार को स्वीकार करने को तैयार नहीं। पिछड़ी और दलित जातियों की गोलबंदी और उनकी एकता ने सामंती शक्तियों को बैकफुट पर जाने तथा परिस्थिति के अनुरूप रणनीति बदलने को बाध्य किया है। मतलब ‘रस्सी जल गई ऐठन नहीं गई’। भूतनाथ सिंह की साजिशें चलती रहती हैं। वह ऐसे मौके की तलाश में रहता है जिसमें उसे कोई मुद्दा मिल जाए ताकि किसी व्यक्ति को मोहरा बना वह अपना स्वार्थ सिद्ध कर सके। उसका वर्चस्व कायम हो। वह पिछड़ी जाति के मुखिया को दाव दे सके।  किसानों के निजी हितों की टकराहट की वजह से यह अवसर उस तक पहुंच भी जाता है।
पिछड़ी और मध्यम जातियों में ‘इज्जत’ के नाम पर दिखावे की मध्यवर्गीय संस्कृति का विस्तार हुआ है। भगतू साह बेटी की शादी के लिए लाखों का कर्ज लेता है। यह तो समझ में आता है लेकिन बाप के मरने पर श्राद्ध और पूड़ी-जलेबी और भोज-भात के लिए कर्ज लेकर खर्च करना अपनी स्थिति को खराब करना नहीं तो और क्या है? भगतू साह यही करता है। उसके पास ऐसा कुछ नहीं कि उसे कर्ज मिले। वह अपने खेत को रेहन पर रखकर रमता महतो, जीतू सिंह, बटाई जादो से कर्ज लेता है। फिर इन सब का कर्ज उतारने के लिए धनराज से खेत को रेहन नहीं कबाला करने के एवज में कर्ज लेता है। इन सबकी गिद्ध दृष्टि उसके खेत पर है।
भगतू साह बटाई जादो और जीतू सिंह को पैसा लौटा कर अपना खेत छुड़ा लेने में सफल हो जाता है। लेकिन रमता महतो खेत वापस करने को तैयार नहीं। उसका इस बात पर जोर कि पैसा खेत के कबाला करने के लिए दिया गया था। यह भगतू का वायदे से मुकरना है। जबकि भगतू का कहना था कि यह रेहन पर था। मामला दोनों के बीच विवाद का रूप ले लेता है और मुखिया तक पहुंचता है। मुखिया भगतू से पैसा रमता महतो को वापस करा देता हैं। पर इतने सालों तक पैसा भगतू के पास रहा इसलिए उसे सूद चाहिए, रमता जिद पकड़ लेता है। जबकि भगतू साह का कहना था कि इतने सालों तक खेत पर रमता का अधिकार रहा है और इसका लाभ भी उसे मिला है। फिर सूद किस बात का? खेत के रेहन रखने में सूद का कोई नियम भी नहीं है। रमता मानने को तैयार नहीं और पैसा लेने के बाद भी वह खेत पर अपना कब्जा नहीं छोड़ता है। इस संबंध में मुखिया के असमंजस के कारण भगतू को लगता है कि वे पक्षपात कर रहे हैं। पैसा देने के बाद भी खेत पर उसे कब्जा नहीं मिला। यह अन्याय है। निराशा और हड़बड़ी में भगतू मुखिया से न्याय की उम्मीद छोड़ भूतनाथ सिंह की हवेली पहुंच जाता है। भूतनाथ सिंह को और क्या चाहिए? मछली जाल में अपने आप फंस गई थी।
भूतनाथ सिंह भगतू को मदारी की तरह नचाते हैं और वह बंदर की तरह नाचने लगता है। उसकी दुहाई शुरू होती है। पैसा पानी की तरह बहता है। मामला थाना तक जाता है। फिर गांव से बाहर भृंगुनाथ सिंह के पास पहुंचता है जो  रसूखदार आदमी हैं। कांग्रेस के मशहूर नेता और कई समितियों के प्रधान हैं। वे ही फैसला करेंगे। भगतू अपने को दोराहे पर खड़ा पाता है। वर्चस्ववादी शक्तियों के विरुद्ध गांव में जो एकता बनी थी, भगतू साह के निजी स्वार्थ के कारण यह उसका दरकना था। गांव के मुखिया की जगह कोई बाहरी आकर फैसला करे और वह भी सामंती शक्तियों का प्रतिनिधि, यह परिवर्तन के चक्र को पीछे ले जाना है। नरेश श्रीवास्तव जैसे वर्ग चेतस के लिए चिंतित करने वाली बात थी। उनके हस्तक्षेप से भगतू साह को अपनी ग़लती का एहसास होता है। वह मुखिया से मिलता है। इस मामले को हल करने के लिए पंचायत बुलाई जाती है। जो फैसला होता है, उसे रमता महतो और भगतू साह स्वीकार करते हैं। भूतनाथ सिंह इसे अपनी सामाजिक पराजय मानता है। उसके अत्याचार का शिकार भगतू बनता है। वे बताना चाहते हैं कि वे मुखिया हों या न हों समाज पर वर्चस्व उनका ही रहा है, उन्हीं की सामाजिक सत्ता रही है और रहेगी। गांव बदल चुका है। उसकी संस्कृति बदल चुकी है। नई पीढ़ी को स्वीकार नहीं है। वह सर झुका कर नहीं सर उठा कर चलने में यकीन करती है। यह नई जन गोलबंदी है।
इस तरह सुरेश कांटक का उपन्यास ‘खेत’ परिवर्तन का सांस्कृतिक दस्तावेज है। गांव ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ से बाहर निकल ठोस यथार्थ की जमीन पर खड़ा है। दुनिया में जो बदलाव हो रहे हैं, उसका सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव गांव और समाज पर पड़ा है। पूंजीवादी संस्कृति का प्रभाव बढ़ा है। यह कई रूपों व प्रवृत्तियों में उपन्यास में व्यक्त हुआ है। यह उपन्यास इस सच्चाई को रेखांकित करता है कि भले ही किसानी पर संकट है, खेती करना कठिन होता जा रहा है और किसान खेती छोड़ने को बाध्य हो रहे हैं, फिर भी किसान का खेत से भौतिक और भावनात्मक रिश्ता कमजोर नहीं है। गांव का मुख्य आर्थिक और सामाजिक आधार खेत और खेती है।
सुरेश कांटक यथार्थवादी लेखक हैं। उनका नजरिया समावेशी और समन्वयवादी नहीं है। वे द्वंदवादी हैं। उनके पास सामाजिक अंतर्विरोधों की समझ है और उसे हल करने का दृष्टिकोण भी। उपन्यास में दो प्रवृत्तियां सामने आती हैं। एक तरफ वर्ग शत्रुओं के साथ अंतर्विरोध है जिसकी अभिव्यक्ति अगड़े-पिछड़े या कहिए सवर्णवाद-पिछड़ावाद के रूप में होती है, वहीं मित्र शक्तियों अर्थात किसान जनता के बीच का  अंतर्विरोध है। ‘खेत’ में ये दोनों अंतर्विरोध अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचता है।
कुछ बातें गौरतलब और विचारणीय है। गांव में बदलाव आया है। जनवाद व पिछड़ावाद के उभार से पारंपरिक सामंती-ब्राहमणवादी-वर्चस्ववादी शक्तियों का प्रभाव कम हुआ है लेकिन जिस तरह देश में प्रतिगामी सांप्रदायिक राजनीति का प्रभाव बढ़ा है, उससे उन्हें ताकत मिल रही है। उपन्यास में यह पहलू नहीं दिखता है।
दूसरी बात, उपन्यास में स्त्रियों की भूमिका गौण रह गई है। वे विभिन्न मसलों पर राय देना चाहती हैं। पर वे नजरंदाज कर दी जाती हैं। क्या इसके पीछे पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचा तो नहीं?
तीसरी बात, भूमिहीन व गरीब किसान, खेतिहर मजदूर, बनिहार आदि जिन्हें सामाजिक रूप से ‘दलित’ से जाना जाता रहा है, भोजपुर के किसान आन्दोलन में उनकी वर्गीय पहचान थी। वे वामपंथ की राजनीति के केंद्र में थे। ये ही भोजपुर के किसान आंदोलन का मुख्य आधार थे। क्या संघर्ष का वर्ग चरित्र तो नहीं बदला है? वर्तमान में पिछड़ावाद के छाते के नीचे ही उनका समायोजन तो नहीं हो रहा है? उपन्यास में वामपंथ की मौजूदगी संघर्ष के शक्ति केंद्र की जगह एक प्रवृत्ति के रूप में है। क्या यह जमीनी हकीकत में आये या आ रहे बदलाव का संकेत तो नहीं है ?
अंतिम बात, इस उपन्यास की भाषा और शैली को लेकर। कांटक जी ने समाज के जटिल इस यथार्थ को जिस सहज सरल तरीके से व्यक्त किया है, उससे इसमें प्रवाह व पठनीयता आई है। हमारी जनभाषा के शब्दों का प्रयोग अद्भुत है। उन्हें जिंदगी मिली है। हिंदी समृद्ध हुई है।

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