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“ हिन्दी बचेगी तभी बोलियाँ, उनकी शब्द सम्पदा और क्षेत्र विशेष की संस्कृति बचेगी ”

गोरखपुर। विमर्श केन्द्रित संस्था “आयाम” द्वारा 24 सितम्बर को प्रेस क्लब में  ‘ भोजपुरी बनाम हिन्दी : तथ्य और परिणाम ‘ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया।

संगोष्ठी के मुख्य अतिथि कोलकाता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. अमरनाथ ने कहा कि भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग करना दरअसल हिन्दी का अहित करना है। हिन्दी का अहित, केवल देवनागरी हिन्दी का ही अहित नहीं है वरन प्रकारांतर से हिन्दी में समाहित जनपदीय भाषाओं और बोलियों का भी अहित है। हिन्दी बचेगी तभी बोलियाँ, उनकी शब्द सम्पदा और क्षेत्र विशेष की संस्कृति बचेगी. यह केवल बोलने वालों का संख्या बल है जिसके आधार पर अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं को पीछे छोड़ कर हिन्दी राजभाषा की मान्यता कर सकी है। यह बात अपनी औपनिवेशिक श्रेष्ठता का दम्भ पाले हुई और अपने साथ तथाकथित वैश्विक भाषा का तमगा जोड़े हुए अंग्रेजी भाषा और उसके कर्णधारों को लगातार चुभती रही है। धर्म के आधार पर बंटा देश अब भाषा के नाम पर बंटे, इस साम्राज्यवादी साजिश को न समझ पाने का दुष्परिणाम यह होगा कि हिन्दी का राजभाषा का दर्ज़ा तो ख़तरे में पड़ेगा ही, कालांतर में उसमें समाहित उपभाषाओं की हैसियत भी और कमज़ोर होगी।

उन्होंने कहा कि संविधान की आठवीं अनुसूची में यदि भोजपुरी को शामिल किया जाता है तो उसे हिन्दी से अलग एक स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता मिल जाएगी और अभी सर्वाधिक लोगों द्वारा बोले जाने वाली हिन्दी भाषियों की संख्या में से भोजपुरी बोलने वालों की संख्या अलग कर दी जाएगी. इसके पहले मैथिली को आठवीं अनुसूची में शामिल करने पर यही हो चुका है. वो तो कहिये कि मैथिली के स्वतंत्र भाषा बनने के बाद भी और उसे बोलने वालों की संख्या हिन्दी बोलने वालों की संख्या में से कम करने के बावजूद हिन्दी देश की राजभाषा बनी रही. परन्तु भोजपुरी को हिन्दी से अलग गिनने पर हिन्दी का दावा राजभाषा के रूप में अत्यंत कमज़ोर हो जाएगा. मोटी मोटा लगभग बीस करोड़ हिन्दी भाषियों में लगभग छ: करोड़ भोजपुरी भाषी शामिल हैं. यह संख्या अपनी भाषा के नाम पर अलग मान्यता प्राप्त कर ले, यही उच्च स्तरीय साजिश है जिसके बहकावे में आकर भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की मांग की जा रही है. स्वयं को हिन्दी भाषा और संस्कृति का संरक्षक घोषित करने वाली राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदे भी अपने वोटरों को लुभाने के लिए, इस विभाजनकारी मांग को देश-प्रदेश के मंचों से उठा रहे हैं. यह एक आत्मघाती कदम है जिससे हिन्दी का नुकसान बेशक हो जाए, भोजपुरी का कोई दूरगामी फ़ायदा नहीं होने वाला है. हाँ तत्काल बेशक आठवीं अनुसूची में आ जाने पर उसके रचनाकारों को कुछ एक पुरस्कार/ सम्मान मिलने लगे. मगर नहीं भूलना चाहिए कि एक भाषा के रूप में भोजपुरी के कई स्वरूप सामने आते हैं. आख़िर कौन सी भोजपुरी ? बलिया वाली कि बगहा वाली कि बनारस वाली? आठवीं अनुसूची में दाखिल होने के बाद भोजपुरी में ही आपसी टकराव सिर उठाने लगेंगे जैसा कि हम मैथिली और अंगिका के आपसी टकराव और असंतोष को देख रहे हैं. घर के बंटवारे का फ़ायदा ज़ाहिर है उसके रहवासियों को कमज़ोर करेगा और मजबूत प्रतिद्वंद्वी पड़ोसी उसका लाभ उठाएंगे।

इस विमर्श का बीज वक्तव्य रखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार में उप सचिव रहे लेखक-आलोचक डा. राम चन्द शुक्ल ने विस्तार से हिन्दी के लिए ख़तरा बन रही भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग के पीछे छिपी भावना को समझाया और इसे हिन्दी के लिए एक साजिश बताया. वहीं दूसरी ओर भोजपुरी के विद्वान डा. फूल चन्द गुप्त और अपने भोजपुरी काव्य संग्रह के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से पुरस्कृत कवि चन्द्रेश्वर शर्मा ‘परवाना’ ने अपने तथ्यों और तर्कों के आधार पर भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की मांग का भरपूर समर्थन किया।

विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए कवि प्रमोद कुमार, भोजपुरी संगम संस्था के अभिनीत, जलेस के नगर अध्यक्ष जय प्रकाश मल्ल, फ़िल्मकार प्रदीप सुविज्ञ और गोरखपुरिया भोजपुरिया मंच के नरेन्द्र मिश्र और एक्टिविस्ट रंगकर्मी राजाराम ने कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर सदन का ध्यान खींचा।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ चिकित्सक और विचारक डा.ए.के.पाण्डेय ने चिंता ज़ाहिर की कि जिस तरह हम भोजपुरी के लोग अपने ही घर परिवार और दैनिक जीवन से भोजपुरी को बाहर करते जा रहे हैं, वह इस भाषा को अगली पीढ़ी तक भी जीवित नहीं रख पाएगा।

कार्यक्रम का समापन करते हुए “आयाम” के संयोजक देवेन्द्र आर्य ने रेखांकित किया कि हिन्दी भाषा जनपदीय भाषाओं, उप भाषाओं, बोलियों का फ़िनिश्ड प्रोडक्ट, प्रसंस्कृत, टिकाऊ और बिकाऊ उत्पाद है. लेकिन इससे बोलियों अथवा उपभाषाओं को उपभोक्तावादी दृष्टिकोण के तहत केवल कच्चा माल समझना अथवा रा मैटीरियल की हैसियत देकर अवमूल्यित करना कतई उचित नहीं है। भोजपुरी के पास स्तरीय साहित्य नहीं है, क्या यह एक लाइन में किसी की पूरी अस्मिता को ख़ारिज़ कर देना नहीं है ? स्तरीकरण और मानकीकरण का सिद्धांत क्या है सिवा सम्भ्रान्त कहे जाने वाले ताकतवर लोगों के किसी के पक्ष में बार बार दुहराने के कि यह स्तरीय है, और यही स्तरीय है।  विश्व विद्यालयों के हिन्दी विभागों या राजभाषा मंत्रालयों में बैठे लोग मन माफ़िक़ और लगभग अन्यायपूर्ण ठंग से निर्णय लेते हुए, पाठ्यक्रम निर्धारित करके पीढ़ी दर पीढ़ी रटवाते रहें कि यह स्तरीय है और बाक़ी सब मवाली, तो क्या यह मीडिया के प्रचार युद्ध की तरह नहीं है ? बार बार बोला जाने वाला सच, वास्तव में कितना सच है, इसकी भी पड़ताल आवश्यक है।

उन्होंने कहा कि हिन्दी भाषा के पैरोकारों को गम्भीरता पूर्वक समझना और स्वीकार करना होगा कि सामुदायिक, समन्यवादी विकास के इस दौर में बहुत दिनों तक किसी के असंतोष, अधिकारों और मांगों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसे केवल भाषाई तुष्टिकरण मानते हुए भोजपुरी भाषियों से बड़े उद्देश्य के लिए त्याग करने की नसीहत दे कर नहीं रोका जा सकता है। वे खुली आँखों देख रहे हैं कि हिन्दी के लिए नौकरी से लेकर पुरस्कार/ सम्मान/ विदेश यात्रा जैसे तमाम संसाधन मुहैया हैं, मगर भोजपुरी के हक़ में सिवा दैन्य, दरिद्रता और दुर्दशा के कुछ भी हासिल नहीं है।  ऐसा विभेद पूर्ण रवैया निश्चित रूप से भोजपुरी भाषियों के असंतोष को गहरा कर रहा है जिसका परिणाम अंततः हिन्दी और भोजपुरी दोनों के लिए घातक होगा। बड़ी बहन के रूप में हिन्दी को अपनी सहोदर छोटी भाषाओं के दर्द और आगामी विघटनकारी ख़तरे को भांपते हुए कोई कार्य योजना ज़मीन पर उतारनी होगी ताकि भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग को रोका जा सके।

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