साहित्य - संस्कृति

जनपदीय संस्कृति एक जीवित , जागृत एवं जन हितैषी पर्यावरणीय संस्कृति है – प्रो अवधेश प्रधान

पडरौना। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ और प्रेमचंद साहित्य संस्थान के संयुक्त का तत्वावधान में आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन सात अक्टूबर को उदित नारायण पोस्ट ग्रेजुएशन कॉलेज पडरौना कुशीनगर में दूसरे सत्र प्रथम में “केदारनाथ सिंह की कविता में जनपद और जनपदीय संस्कृति” विषय पर हिन्दी जगत में कई प्रतिष्ठित विद्वतजनों ने विचार व्यक्त किए।

दूसरे सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो अवधेश प्रधान ने केदारनाथ सिंह की कविता के हवाले से ग्लोबल संस्कृति, समाज और सोच को देखने की कोशिश की। वे कहते हैं कि पाश्चात्य देशों की की तरह हमारी लोक संस्कृति मृत संस्कृति नहीं है। जनपदीय संस्कृति एक जीवित पर्यावरणीय संस्कृति है। जनपदीय संस्कृति में धारावाहिकता है जिसकी प्रवृत्ति में मिट्टी की चमक है। आधुनिकता की एक बड़ी त्रासदी यह है कि आज गांव का जो कुछ अच्छा है वो शहर चला जा रहा है। गांव जब शहर में जाता है तो वहां का पेट पालता है लेकिन शहर जब गांव में जाता है तो गांव का पेट कटता है। हिन्दी के वैश्विक स्वरूप का विकास जनपदीय भाषाई संस्कृति से ही हुआ है। वर्तमान समय में गहरी चुप्पी के बीच गुंजता शोर है।

विशिष्ट वक्ता के रूप में जनसंदेश टाइम्स के संपादक सुभाष राय ने कहा कि केदारनाथ सिंह जी जन संघर्ष के कवि हैं । केदारनाथ सिंह की कविताएं नई संभावनाओं की तलाश की कविता है।

मुख्य वक्ता के रूप में प्रो नलिन रंजन सिंह ने रामचंद्र शुक्ल को याद करते हुए कहा कि ‘नई कविता के दौर में जनपदीयता का ज्यों ज्यों विस्तार होता जायेगा कवि कर्म कठिन होता चला जायेगा।’ केदारनाथ सिंह की कविता की ताकत लोकशक्ति है। वे आगे कहते हैं कि मेरा यह दृढ़ विश्वास है आधुनिक संदर्भ में लोकसाहित्य एवं लोक भाषा के माध्यम से नई कविता की कुछ चुनौतियां को कम किया जा सकता था। केदारनाथ सिंह अपनी भाषा भाषी क्षेत्र के सभी लोगों के अधिकांश बातें भोजपुरी में हुआ करती थी । कविता में बार बार वे भाषा में लौटने की बात करते हैं। उनकी कविताओं की व्याख्या लोक संवेदना , लोक भाषा एवं लोकचित्त के संदर्भो से ही बात की जा सकती है। उन्होंने केदारनाथ सिंह को याद करते हुए कहते हैं कि मौसम चाहे जितना उदास हो कविताएं उम्मीद नहीं छोड़ती।

प्रो सिंह ने कहा कि केदारनाथ सिंह केवल लोक के कवि नहीं हैं वे बैचेनी के कवि भी हैं। उनकी कविताओं में गांव की वो तमाम शब्दावली है जो उन्हें शहर में रहने के बाद भी देशज बनाता है। भिखारी ठाकुर के बहाने वे गांधी को भी याद करते हैं । केदार जी को गीत बहुत पसंद थे । उन्होंने लेखन को शुरुआत भी गीत से ही किया । देशज संवेदना को कवि ही खरगोश के जगह खरहा , आंचल की जगह खोइछा लिख सकता है। दीपदान कविता लोक परंपरा से जुड़े हुए व्यवस्था को बदलने वाले बैचेनी की कविता है।

मुख्य वक्ता के रूप में प्रो अनिल त्रिपाठी कहते हैं कि केदारनाथ सिंह जी को जानना और समझना नई कविता को जानना और समझना है। तीसरे सप्तक में शामिल उनकी कविताओं को देखें तो लगता है वे एक अच्छे गीतकार बनना चाहते थे या बन सकते थे। ‘ अभी बिल्कुल अभी के बीच ‘ के बाद उनका दूसरा काव्य संग्रह ‘ज़मीन पक रही है ‘ आयी। केदारनाथ सिंह ने लोकचेतना को आधुनिकता के दायरे में रख दिया। केदारनाथ सिंह ये जानते थे कि बिना स्थानीय हुए वैश्विक नहीं हुआ जा सकता इसलिए उनकी स्थानीयता बहुत मजबूत थी। वे अवध के किसान कवि त्रिलोचन से काफ़ी प्रभावित थे। इसलिए उन्हें अपना काव्य गुरु भी मानते हैं।

आलोचक कपिल देव ने कहा कि केदारनाथ सिंह जी जनपदीय संवेदना के कवि हैं । लोक एक महासमुन्द है जिसमें जनपदीयता की सारी धाराएं जाकर मिलती है । लोक-संस्कृति एक समासिक संस्कृति होती है। जनपदीयता एक विशेष संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। वे आगे कहते हैं कि केदारनाथ सिंह को को लोक जागरण का कवि कहने से ज्यादा सही जनपदीय संस्कृति के पुरोधा कवि कहना चाहिए। केदारनाथ सिंह जी का जनपदीय बोध हमारी पूर्वजों के जनपदीयता से जुड़ता है इसलिए उनकी कविता अपने मूल की तलाश करती है।

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