भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता के सवाल पर ‘आयाम’ ने संगोष्ठी आयोजित की
गोरखपुर। ‘ भोजपुरी सिर्फ बोली ही नहीं सक्षम भाषा भी है जिसकी सांस्कृतिक जड़ें देश विदेश में फैली हुई हैं। भोजपुरी बोलने वाले करोड़ों लोगों की पुरानी मांग है कि उसके संरक्षण और विकास के लिए उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए। भोजपुरी का खड़ी बोली हिन्दी से कोई बैर विरोध नहीं है बल्कि सच यह है कि बोलियों के संवर्धन से हिन्दी और भी मजबूत बनेगी। हमें हिन्दी उतनी ही प्यारी है जितनी भोजपुरी। यदि भोजपुरी अपने संरक्षण और विकास के लिए सरकार प्रदत्त सुविधाएं और सहयोग की मांग कर रही है तो इसमें हिन्दी के विभागाध्यक्षों और कतिपय विद्वानों को क्यों एतराज़ है। हम भोजपुरी भाषी लोग स्वयं हिन्दी भाषियों में शामिल हैं। ‘
यह बातें गोरखपुर की विमर्श केन्द्रित संस्था ‘आयाम’ द्वारा 10 दिसंबर को प्रेस क्लब सभागार में आयोजित एक संगोष्ठी में दिल्ली से पधारे भोजपुरी के चिंतक आलोचक कवि डा. संतोष पटेल ने कहीं।
विषय प्रवर्तन करते हुए जे. पी. विश्वविद्यालय छपरा के प्रोफेसर और भोजपुरी साहित्य के गम्भीर अध्येता डा. पृथ्वी राज सिंह ने भाषा के रूप में भोजपुरी के महत्व को रेखांकित किया. भोजपुरी प्रदेश का अद्यतन नक्शा और जनगणना तथा सर्वेक्षण आंकड़ों के आधार पर उन्होंने दर्शाया कि जहाँ एक तरफ़ दूसरी संवैधानिक मान्यता प्राप्त भाषाओं के बोलने वालों की संख्या में गिरावट दर्ज की गयी है वहीं हिन्दी बोलने वालों के साथ ही साथ भोजपुरी को अपनी मातृभाषा मानने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है और भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा देने से हिन्दी की हैसियत को कोई खतरा नहीं है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे दीनदयाल उपाध्याय वि.वि के प्रो. विमलेश कुमार मिश्र ने भोजपुरी के ऊपर मंडरा रहे ख़तरों की ओर इशारा किया। उन्होंने भोजपुरी भाषा में व्यक्त हो रहे समकाल और उसकी साहित्यिक स्तरीयता को प्रश्नांकित करते हुए कहा कि खड़ी बोली में जो रचनात्मक गद्य-पद्य आ रहा है उससे भोजपुरी के लोग स्वयं तुलना करके अपनी स्थिति का आकलन करें। हिन्दी के शब्दों को भोजपुरी में लिखने मात्र से भोजपुरी भाषा विकसित नहीं होगी।
आलोचक डा. अरविंद त्रिपाठी में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि यदि भोजपुरी और अन्य बोलियों के साहित्य और उनकी शब्द सम्पदा को निकाल दिया जाए तो खड़ी बोली हिन्दी के पास बचता ही क्या है ? भोजपुरी का इतिहास हज़ारों सालों में फैला है जबकि हिन्दी की पैदाइश ही अभी तीन चार सौ साल की है. भोजपुरी भाषा ही नहीं, संस्कार भी है।
बी आई टी इंजीनियरिंग कालेज में एथिक्स के प्रवक्ता डा. राकेश तिवारी ने चिंता व्यक्त की कि भाषा के स्तर पर नयी पीढ़ी एकदम कंगाल है। कानवेंट स्कूलों के दबाव में हम स्वयं अपने घरों में बच्चों को भोजपुरी बोलने से मना करते हैं जिससे उनमें भोजपुरी के प्रति कोई लगाव ही नहीं उपजता है।
बी.एच.यू के शोध कर्ता फूल बदन कुशवाहा ने अपनी पीड़ा एक भोजपुरी कविता के माध्यम से व्यक्त की. सेवा निवृत्त प्रधानाचार्य, भोजपुरी कवि सुभाषचंद्र यादव ने भी अपने विचार और भोजपुरी को संसदीय मान्यता दिलाने के लिए किये गये प्रयासों को सामने रखा।
संगोष्ठी का संचालन ‘आयाम’ के सक्रिय सदस्य एवं शिक्षक नेता अजय कुमार सिंह ने किया. इसके पूर्व ‘आयाम’ के संयोजक देवेन्द्र आर्य ने अतिथियों को सम्मानित करते हुए इस संगोष्ठी के औचित्य पर प्रकाश डाला.
‘आयाम’ ने इस सेमीनार के पूर्व 24 सितम्बर को भाषा विमर्श के उद्देश्य से ” भोजपुरी बनाम हिन्दी : तथ्य एवं परिणाम विषयक संगोष्ठी आयोजित की थी जिसमें डा. अमरनाथ (कोलकाता) और डा. रामचंद्र शुक्ल (लखनऊ) ने मुख्य रूप से यह स्थापना की थी कि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग से देश स्तर पर हिन्दी भाषा की स्थिति कमज़ोर पड़ेगी और अंततः अंग्रेजी भाषा को इसका लाभ मिलेगा।
सेमीनार के दौरान और उसके बाद छपी रपटों को पढ़ कर भी इस स्थापना के विरोध में बहुत मुखर सम्मतियां सामने आईं और ‘आयाम’ को लगा कि अलग भाषा के रूप में भोजपुरी की संवैधानिक मान्यता के प्रश्न पर अभी और विमर्श आवश्यक है. इसी उद्देश्य से ‘आयाम’ ने पूर्व में सम्पन्न सेमीनार के क्रम में विमर्श की यह दूसरी कड़ी आयोजित की ताकि भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग विषयक तर्क भी सामने आ सकें।
इन दोनों सेमिनारों में व्यक्त विचारों को शामिल करते हुए एक पुस्तक सम्पादन की सम्भावना पर भी अलग से चर्चा की गई।