विचार

किसान को एम.एस.पी. दी जाए तो कैसे ?

योगेन्द्र यादव

 

वर्तमान किसान आंदोलन में एम.एस.पी. की बहस को अब इस आखिरी मुकाम तक पहुंचा दिया है। इससे पहले सवाल यह पूछा जाता था कि एम.एस.पी. है क्या ? या आखिर किसान को एम.एस.पी. क्यों दी जानी चाहिए ?  लेकिन अब सरकारी नौकरशाह, दरबारी मीडिया और किताबी अर्थशास्त्री भी यह सवाल पूछने लगे हैं कि चलो एम.एस.पी. देनी तो पड़ेगी। अब दी कैसे जाए ? किसान को कोई भी हक एक बार में नहीं मिलता। एक ही मांग मनवाने के लिए किसान को बार-बार लड़ाई लड़नी पड़ती है। चाहे अभी एम.एस.पी. का कानून नहीं मिला हो, लेकिन इस आंदोलन में एम.एस.पी. की लड़ाई को इस छोर तक लाने को किसान आंदोलन की जीत माना जाना चाहिए।

इस सवाल का जवाब देने से ही पहली दो भ्रांतियों से ही मुक्त होना जरूरी है। पहली भ्रांति यह है कि किसानों को एम.एस.पी. की गारंटी देने का मतलब है कि सरकार सभी फसलों की पूरी खरीद करे। यह भ्रांति तो अलग बातों को जोड़ देने से पैदा होती है-सरकार  द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलवाना और खुद सरकार द्वारा खरीद करना। इसी भ्रांति के चलते ही आलोचक यह आरोप लगाते हैं कि किसानों की यह मांग असंभव है। अगर सरकार के पास फंड हों भी तो सरकार सारी फसल खरीद कर क्या करेगी ? उसे किस गोदाम में रखेगी ? कहां बेचेगी ? क्या सरकार बाजार के सारे काम अपने सर पर ले लेगी ? इसमें मुसीबत तो है ही, बर्बादी और भ्रष्टाचार भी होने की बहुत संभावना है। इस आलोचना में दम है। किसानों की सभी फसलों की पूरी पैदावार को सरकार न तो खरीद सकती है और न ही उसके लिए ऐसा करना जरूरी है। किसान सिर्फ इतना चाहता है कि उसे अपनी मेहनत का हक मिले,उसे इससे मतलब नहीं कि उसे एम.एस.पी. किस हाथ से मिले, सरकार से या व्यापारी से।

दूसरी भ्रांति यह है कि सरकार को अपनी जेब से कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ेगा, बस सिर्फ यह कानून बना दे कि एम.एस.पी. से नीचे खरीद-फरोख्त गैर-कानूनी है। कई किसान नेता भी कहते हैं कि बस एम.एस.पी. से नीचे खरीद करने वाले व्यापारी को जेल भेज दो, अपने आप किसान को सही दाम मिल जाएगा। यह धारणा भी गलत और खतरनाक है। कानून बना देने और सजा का प्रावधान करने से किसान को सही दाम तो नहीं मिलेगा, व्यापारी अपनी दुकान जरूर बंद कर लेगा और पिछले दरवाजे से किसान से ब्लैक में खरीद करेगा। ऐसे कानून पहले भी बन चुके हैं और उन्हें लागू करवाना संभव नहीं है। अगर बाजार भाव एम.एस.पी. से बहुत नीचे है तो व्यापारी को ज्यादा दाम देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। सरकार को अपनी जेब से कुछ खर्च करना ही होगा।

तो फिर कैसे लागू की जा सकती है यह गारंटी ? इसके लिए सरकार को व्यापारी बनने या डंडा चलाने की बजाय होशियार नियामक की भूमिका निभानी होगी। सरकार को 3 तरह के काम करने होंगे-या तो खुद फसल खरीदे या फिर बाजार में हस्तक्षेप कर फसलों का दाम गिरने से रोके या और कुछ नहीं तो किसान को हुए नुकसान की भरपाई करे। कुल मिलाकर यह जिम्मेदारी ले कि किसान की जेब में कम से कम एम.एस.पी. के बराबर पैसा पहुंचे, अगर सरकार अपनी जिम्मेदारी निभाने में असमर्थ रहती है तो किसान कोर्ट-कचहरी जाकर आपना हक वसूल सकता है। इन तीनों तरह की भूमिकाओं को ध्यान से समझना चाहिए।

सबसे पहले तो किसान को एम.एस.पी. दिलाने के लिए सरकार आज जितनी खरीद करती है, उससे कुछ ज्यादा  खरीद कर सकती है। सरकार स्वास्थ्य की दृष्टि से ज्वार, बाजरा जैसे मोटे अनाज को प्रोत्साहन देने की योजनाएं चला रही है। उसके लिए सबसे उपयुक्त होगा कि सरकार उन्हें बाजार में एम.एस.पी. पर खड़ा कर सस्ते दाम पर बेचे। इसी तरह सरकार राशन में अनाज के साथ-साथ दाल और रसोई का तेल भी दे सकती है। मिड-डे मील में ज्यादा फल, दूध और अंडा दिया जाना चाहिए। इससे ‘एक पंथ दो काज’ होंगे। देश की सेहत सुधरेगी और कुछ किसानों को एम.एस.पी. भी मिलेगी। जाहिर है इस योजना की सीमा है और इसे अधिकांश फसलों पर लागू नहीं किया जा सकता।

अधिकांश किसानों को बाजार में वाजिब दाम दिलवाने का सबसे प्रभावी तरीका होगा सरकार द्वारा बाजार में चुनिंदा हस्तक्षेप कर बाहरी भाव को गिरने से रोकना। यह कोई अनहोनी या असंभव बात नहीं है। कपास की फसल में कॉटन कार्पोरेशन ऑफ इंडिया यही करता है। बाजार का अनुभव यही बताता है कि दाम तभी गिरते हैं अगर किसी वस्तु की आपूर्ति उसकी मांग से  ज्यादा हो जाए। ऐसे में सरकार अगर 5 से 10 प्रतिशत फसल भी खरीद ले तो बाजार में दाम संभल जाते हैं। भारत सरकार की एक पुरानी योजना है ‘मार्कीट  इंटरवैंशन स्कीम’ जिसका यही उद्देश्य है। दिक्कत यह है कि इस योजना को कभी भी पर्याप्त फंड नहीं मिलता। इस सरकार ने तो पिछले साल इस योजना को लगभग बंद ही कर दिया। इस योजना के लिए पर्याप्त फंड देकर एक नियामक संस्था बनाने से बाहरी भाव को एम.एस.पी. से नीचे गिरने से रोका जा सकता है।

बाजार भाव को नियमित करने के अलावा सरकार के हाथ में और भी कई औजार हैं। कम से कम सरकार आयात-निर्यात के जरिए फसल के दाम गिराने का काम तो बंद कर सकती है। फसल के निर्यात पर यदा-कदा बैन लगाना और पैदावार कम होते ही बड़ी मात्रा में आयात कर लेने से किसान को सही दाम नहीं मिल पाते। इन नीतियों को रोकना पड़ेगा, किसान को गैर-जरूरी आयात से बचाना और उसके लिए निर्यात के अवसर ढूंढना सरकार की जिम्मेदारी है। सरकार किसान को बेहतर दाम देने वाली सहकारी समिति या एफ.पी.ओ. को समर्थन और सहयोग दे सकती है। किसान को हड़बड़ी में सस्ते में फसल न बेचनी पड़े इसके लिए सरकार वेयरहाऊस रिसीप्ट योजना में सुधार कर उसे एम.एस.पी. से जोड़ सकती है।

अगर इन सब तरीकों से काम न बना तो सरकार को तीसरा और अंतिम उपाय करना पड़ेगा। अगर सरकारी खरीद और हस्तक्षेप के बावजूद कोई फसल एम.एस.पी. से नीचे बिकती है तो सरकार को किसान को हुए नुक़सान की भरपाई करनी होगी। भवान्तर भुगतान की योजना कई राज्यों में लागू की जा चुकी है, मध्य प्रदेश और हरियाणा में उसके प्रयोग हो चुके हैं। इस योजना के तहत सरकार यह जिम्मेवारी लेती है कि एम.एस.पी. से नीचे बेचने की वजह से किसान को जितना घाटा हुआ, उतना पैसा किसान के अकाऊंट में ट्रांसफर किया जाता है। इसमें खर्च कितना होगा? सी.आर.आई.एस.आई. एल. संस्था ने अनुमान लगाया है कि पिछले साल एम.एस.पी. और बाजार भाव में 21,000 करोड़ रुपए का अंतर था। अगर इसकी सरकार के खजाने से भरपाई की जाती तो यह भारत सरकार के बजट का आधा प्रतिशत से भी कम होता। कहते हैं -जहां चाह-वहां राह। किसान को एम.एस.पी. की गारंटी देने पर यह पूरी तरह लागू होती है। अगर एक बार राजनीतिक चाह या इच्छा शक्ति हो तो योजनाओं की राह खुल जाएगी।

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